बहुत कम लोग इसे याद रख पा रहे होंगे कि पिछली 24 जुलाई को भारत
में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की शुरूआत के बीस साल पूरे हुए अर्थात भारत
में भूमंडलीकरण के बीस साल पूरे हो चुके हैं. 24
जुलाई 1991 को ही अपने बजटीय भाषण में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने
भारत को भूमंडल के बाजार से जोड़ने का ऐलान किया था. नेहरूवादी समाजवाद की
समाधि पर बाजारवादी व्यवस्था के आगाज की जो घोषणा की गयी उसके बीस साल
पूरे होने जा रहे हैं. इस मौके पर हमें बहुत कुछ याद करने की जरूरत है.
बहुत विस्तार में बात करने की जरूरत है. जिन दिनों भूमंडलीकरण की शुरूआत
हुई उन्हीं दिनों उसके विरोध का पहला बिगुल बजाया था डॉ बनवारी लाल शर्मा
ने. आज बीस भूमंडलीकरण के पड़ताल की शुरूआत हम उन्हीं डॉ बनवारी लाल शर्मा
के आलेख से कर रहे हैं जिन्होंने इसके विरोध का पहला आंदोलन खड़ा किया था.
अमेरिका हो जाने की जिद में आगे बढ़ते भारत को डॉ बनवारी लाल शर्मा की
नसीहत-
उसी भारत को आज तीसरी दुनिया के देश हिकारत की नजर से देखते हैं। ऐसा कैसे हुआ? 1989 में सेावियत संघ के विघटन के बाद अमरीका ने भारत को अपने गुट में मिलाने की चाल चली। एक तो, उसे भारत का बड़ा बाजार चाहिए था और दूसरे, उससे टक्कर लेने की तैयारी कर रहे देश चीन के बीच एक ‘बफर जोन’ चाहिए था अमरीका को जो भारत ही हो सकता था। बड़ी चतुराई से अमरीका और यूरोप की मुट्ठी में बंधे विश्व बैंक और मुद्राकोष के भारतीय नौकरशाहों को भारत की राजनीति में घुसाया। डॉ. मनमोहन सिंह से यह कवायद शुरू हुई। 1992 में केन्द्र सरकार में वित्तमंत्री बनकर विश्व बैंक के नौकर डॉ. मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को (और आगे चलकर राजनीति को भी) अमरीका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोल दिया। उन्होंने छोड़ दिया गान्धी का स्वावलम्बन का रास्ता, छोड़ दिया गुट निरपेक्ष देश का नेतृत्व और डाल दिया भारत को अमरीकी गुट में। आज भारत गुट निरपेक्ष देश नहीं है, वह बाकायदा अमरीकी गुट का सदस्य है। कृषि, सेवा, शिक्षा, उद्योग ही नहीं, सुरक्षा के क्षेत्र में अमरीकी दखलंदाजी बढ़ रही है।
जरा हम देखें कि वह कैसा अमरीका है जिसका पिछलग्गू बनने में इस देश की सरकार, उद्यमी और कुछ बुद्धिजीवी पगला गये हैं। डॉ. मनमोहन सिंह ने केवल एक बार प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात कही है। वह कब? कहा- ‘अगर अमरीका के साथ परमाणु सौदा संसद से पास न होता तो मैं त्याग पत्र दे देता’। वफादारी की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है?
इस अमरीका की कुछ खास बातें ये हैं:
1. अमरीका दुनिया में दादागीरी करने वाला पहला देश है: वियतनाम से फ्रांसीसियों के बाहर निकलने के बाद वहां घुस गया, अपनी फौजें बिछा दी। बहाना बनाया, इस देश को कम्युनिस्टों से बचाना है। 7-8 साल में उस छोटे से देश को इस ‘महान’ देश ने ध्वस्त कर दिया और फिर मुँह की खाकर, पूँछ दबाकर बाहर भागना पड़ा। वही कुकर्म इसने अफगानिस्तान में किया है। 26/11 की घटना के लिए ओसामा को जिम्मेदार ठहराकर उसे खोजने निकल पड़ा अफगानिस्तान में। 10 साल में उस छोटे देश का, जो उससे पहले 24 साल तक अमरीका और सोवियत संघ की कुश्ती का मैदान बना रहा था, तबाह कर दिया। ओसामा अफगानिस्तान में नहीं, अमरीका के दोस्त देश पाकिस्तान में मिला। वियतनाम की तरह अफगानिस्तान में भी मुँह की खाकर ओबामा कुछ अमरीकी फौजें वहां से हटा रहा है। क्या किया उसने 10 साल में? अपने 1551 सैनिक मरवाये, 443 अरब डॉलर फूँके, हजारों बेकसूर अफगानियों को मारा और झक मारकर तालिबानियों से बातचीत करने की पहल की जा रही है। अन्तरराष्ट्रीय मामलों में अमरीका का व्यवहार एक शराबी गुण्डे की तरह रहा है।
2. दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश: भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अमरीका को स्वर्ग मानते हैं, वहां अपने बेटे-बेटियों को पढ़ाने, नौकरी कराने और बुढ़ापे में वहीं आखिरी वक्त काटने का मौका मिलने से जीवन को धन्य मानते हैं। यह देश दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। ताजे आँकड़ों के अनुसार अमरीका पर उसके जीडीपी का 99.5 फीसदी कर्ज लदा है।
3. टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट की पोल खुल गयी: कहा जाता है कि अमरीका टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट में दुनिया का गुरू है। 1997 में जो मन्दी आयी, उससे पोल खुल गयी। लेहमन ब्रदर्स जैसी बैंकें और जनरल मोटर्स जैसे उद्योग घराने दिवालिया हो गये। 300 से ज्यादा बैंकों पर ताले पड़ गये हैं, अरबों रुपया आमजन का डूब गया है, बेरोजगारी पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है। निजी कंपनियों और बैंकों की वकालत करने वाले देश की सरकार ने अरबों डॉलर इन निजी संस्थानों को बचाने के लिए लोगों के धन से से दिये।
4. दुनिया का सबसे बड़ा झूठा देश: लिखित रूप से हस्ताक्षर किये गये समझौतों को तोड़ने में अमरीका का कोई सानी नहीं। अनेक उदाहरण हैं, यहां केवल दो का उल्लेख पर्याप्त है। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को बचाने के लिए 1992 में रियो सम्मेलन हुआ। उसमें कार्बन डाईआक्साइड गैस कम करने के लिए एक समिति बनी जिसने 5 साल मेहनत करके क्योटो प्रोटोकॉल बनाया जिसमें अमरीका अपने देश में 7 फीसदी कार्बनडाई आक्साइड का सृजन कम करने के लिए राजी हुआ। अमरीकी प्रतिनिधि ने क्योटो प्रोटोकॉल पर बाकायदा दस्तखत किये। पर यह देश मुकर गया। बोला, नहीं करते हैं कम। दूसरा उदाहरण, डब्लूटीओ में तय हुआ कि विकसित देश अपने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी कम करेंगे। अमरीका ने ठीक उल्टा किया। वह किसानों को भारी सब्सिडी दे रहा है, नतीजन, तीसरी दुनिया के देश कृषि के अन्तररष्ट्रीय बाजार में टिक नहीं पा रहे। 10 साल से डब्लूटीओ को दोहा चक्र चल रहा है। विकासशील देश कह रहे हैं- भाईजान, खेती की सब्सिडी क्यों नहीं कम करते हो! जवाब मिलता है- पहले हमारे गैर कृषि- यानी उद्योग-सेवा के लिए अपना बाजार खोल दो तब सोचेंगे।
5. दुनिया का सबसे बड़ा नैतिक पतन वाला देश: 1996 में अमरीका में एक आयोग का गठन हुआ, नैतिक पतन के कारण और उनका निदान खोजने के लिए। कहा गया- अमरीका दुनिया में चोटी पर है- सेक्स और हिंसा में, तलाक दर में, सिंगल पेरेंट परिवार में, अश्लील साहित्य के उत्पादन और उपभोग में, यह सूची लम्बी है।
सवाल यह है कि भारत की सरकार ऐसे घटिया देश के गुट में क्यों शामिल हो रही है? क्या उसकी दादागीरी से डर गयी है? इसका जवाब इस देश के लोग देंगे। अमरीका (और उसके गुट के अन्य देशों) की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देश के बाहर खदेड़ देंगे, एक भी परमाणु प्लांट नहीं लगने देंगे तथा अन्य अमरीकी अड्डों को समाप्त करेंगे।
(डॉ बनवारी लाल शर्मा)
(डॉ बनवारी लाल शर्मा ऐसे शुरूआती लोगों में हैं जिन्होंने आजादी भूमंडलीकरण का विरोध शुरू किया और आजादी बचाओ आंदोलन की स्थापना की. इन दिनों पीपुल्स न्यूज नेटवर्क का संचालन करते हैं)
------------------------------------------------------ कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आए
ReplyDeleteक्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 07-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-872 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
यह मेरे लिए हर्ष की बात है.
Deletegood one...
ReplyDeletekeep it up...
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