20090122

'मेरा बयान अखबार में जरूर छापना कि पाकिस्तान हमला करेगा तो हम झेल लेंगे'

पंजाब का गांव दिलावर भैणी तीन तरफ से पाकिस्तान से घिरा हुआ है. लेकिन यह गांव कल तक जैसे बेखौफ था आज भी बेखौफ है. युद्ध की आहट देहरी पर है. भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की राजधानियों में भले ही युद्ध की आशंका से भले ही पारा गरम हो लेकिन यहां इस गांव में सबकुछ सामान्य है. यह कोई कूटनीतिक रणनीति नहीं है. बल्कि यहां के गांववालों की यह दिलेरी और जिंदादिली है जो जंग की आशंकाओं के बीच भी उनको बैखौफ जीने को प्रेरित कर रहा है. सीमा से लौटकर अर्जुन शर्मा की रिपोर्ट-

किसी शिकार कथा को पढ़ कर शेर की भयानकता का अंदाला लगाने व शेर की मांद में रह कर हंसते खेलते जीवन व्यतीत करने वाले अनुभव में जमीन आसमान का अन्तर होता है। इस्लाम धर्म के कथित रहबरों द्वारा न्यूयार्क व वाशिंगटन से लेकर मुंबई तक में दिखाए गए दुस्साहस की चर्चा चाहे बंगाल के किसी अध्यापक, उत्तर प्रदेश के पनवाडी या बिहार के खेतिहार के लिए एक ही जैसा महत्व रखती हो पर भारत पाकिस्तान की सीमा पर बैठे व्यक्ति के लिए यह चर्चा उसके व उसके परिवार के भविष्य के साथ बावस्ता होती है। ये वो लोग हैं जो भारत-पाक संबंधों में सुधार की गुंजायश देख कर जश्र मानाते हैं। जबकि दोनों देशों में आती कटुता से इन्हें अपने भविष्य की जन्म कुंडली में घुसपैठ कर आए राहू जैसी स्थिति का अहसास होता है। जहां जंग की आशंका के चलते दुनिया भर के शेयर बाजार बुखार जैसे अनुभव से गुजर रहे हों वहीं अंतरराष्ट्री सीमा से मात्र पांच सौ गज की दूरी पर स्थित अपने खेत में हल चला रहे किसान को, ट्रैक्टर पर लगे टेप-रिकार्ड पे फुल वाल्युम पर जुगानी जा वड़ी कलकत्ते सुनते हुए उसका खिलंदड़ रूप देख कर आपको कैसा लगेगा? और यदि पत्रकार के तौर पर आप इन हालात व इस प्रकार के नजारे के गवाह रहे हों तो इस नजारे को देश के लोगों के समक्ष न रखना धोखेबाजी होगी।

रछपाल सिंह के साथ बैठे जोगिंद्र सिंह टियर्ड पटवारी हमारी बातचीत में दिलचस्पी लेते हैं पर यकायक वो हम पर बरस पड़ते हैं, ``बाउ जी, तोहाड़ी सरकार किद्दां दी है, फौजी मोर्चे पर दुश्मन के दांत खट्ठे कर देता है पर तुसी कुर्सी ते बैठ के ओह सारे इलाके वापस कर देंदे ओ जेहड़े फौजां ने अपनी जान ते खेल के जित्ते हुंदे नें।´´ (आपकी सरकार कैसी है। फौज जो दुश्मन के दात खट्ठे करके, अपनी जान को जोखिम में डालकर जंग में जिन इलाकों पर जीत दर्ज करती है आपकी सरकार उन्हें बातचीत के दौरान आराम से वापिस कर देती है।) असल में पटवारी साहिब ने मुझे सरकारी अधिकारी समझ लिया था। रछपाल उन्हें समझाते हैं कि ये तो पत्रकार हैं जो इन हालात में हम लोगों की सुध लेने आए हैं। तब यकायक जोगिंद्र सिंह खामोश हो जाते हैं। उन्हें इस बात पर खुशी है कि पत्रकारों ने इतनी दूरदराज बैठे उन लोगों की कोई खबरा-सार ली है। जोगिंद्र सिंह जब तेरह साल के थे तब बटवारे के कारण वे लाहौर से भारत आए थे। उन्होंने 1965 व 1971 की भारत पाक जंग को देखा व सहसूस किया है। वे अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं,``देश के सैनिकों की बहादुरी व देशभक्ति पर हमें कोई शक नहीं परन्तु नेता नपुंसक हैं। मेरा यह बयान अखबार में जरूर छापना कि यदि पाकिस्तान हमला करता है तो हम झेल लेंगे पर जो इलाका हमारी फौज जीत ले उसे वापिस नहीं किया जाना चाहिए।´´ इन्हीं के साथ बैठे फत्तूवाला गांव के राजेन्द्र सिंह नंबदार का अनुभव यह था कि 1971 की जंग में उनके गांव में पाकिस्तानियों ने हवाई हमले करके कुछ बम गिराए थे पर वो खेतों में ही गिरे थे जिसके चलते जान-माल की हानी नहीं हुई थी। वे कहते हैं कि उस जंग में भारतीय सेनाओं को गांव के लोगों ने दूध-चाय व दाल-फुल्के की कमी नहीं आने दी। गांव के उत्साही नौजवान तो फौज को चाय पिलाने के लिए मोर्चों तक चले जाते थे व फौजियों से कहते थे कि आप खा-पी लें, तब तक गोली हम चलाते हैं।

हालांकि बार्डर पर बसे सभी ग्रामीणों से बातचीत हो पाना संभव नहीं था पर उनके खेतों की स्थिति देख कर उनकी मनोभावनाओं का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल नहीं था। इससे यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि सीमा पर बसे लोगों को पाकिस्तानी हमले का या तो खतरा नहीं या फिर सहम जैसी कोई बात नहीं। गांव के बाहर व अंतरराष्ट्रीय सीमा के करीब चार सौ गज की दूरी पर बने बड़े से अहाते में रखीं आधुनिक कुर्सियों पर बैठ कर अखबार पढ़ते हुए सरकार बगीचा सिंह से बातचीत का दौर भी काफी उत्साह वर्धक रहा। वे इस अत्यंत पिछते इलाके के निवासी होने के बावजूद काफी अप-डेट दिखे। बातचीत का सिलसिला शुरू होते ही बड़ी जीवट मुस्कान के साथ उन्होंने विश्वास जताया कि पाकिस्तान भारत पर हमला नहीं करेगा। थोड़ा कुरेदने पर उनकी मुद्रा थोड़ी दार्शनिक हो गई। उन्होंने कहा,``जंग का नाम ही महापाप जैसा है, पर दुनिया के हालात देखते हुए ऐसा लगता है कि नाम लेने या न लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता। हां यह दुआ है कि जंग न लगे। पर इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि हमें कोई खौफ है। मेरी तो यह मान्यता है कि पाकिस्तान हम पर हमले जैसी मूर्खता नहीं करेगा क्योंकि उसके पास है ही क्या? वर्ष 95 में जब मैं पाकिस्तान गया था तब बड़ा विचित्र अनुभव हुआ। जब मैने वहां के लोगों से बातचीत के दौरान बताया कि हमारे यहां एक खेत से इतना गेहूं व इतना चावल पैदा होता है तो उन लोगों का हैरानी से मुंह फटा रह गया था व उनकी टिप्पणी थी कि सरदारजी झूठ बोल रहे हैं। जब मैंने अपने पंजाब की भूमि पर खेती करने में सहायक यंत्रों (टयूबवैल,टैक्टर इत्यादि) की अनुमानित गिनती बताई तो वे हैरान रह गए कि खेती के क्षेत्र में भारतीय पंजाब ने इतनी तरक्की कैसे कर ली,।´´ बगीचा सिंह ताजा प्रकरण के चलते दुनिया भर में मंडरा रहे तनाव के बादलों पर भी काफी ठोस राय रखते हैं। उनका मानना है कि जुल्म करने वाले को सजा न देना भी जुल्म करने वाले की मदद करने जैसा है। मुठ्ठी भर लोगों को धर्म के नाम पर दुनिया को मुसीबत में डालने का कोई हक नहीं है।

उस गांव से हमारा अगला पड़ाव भारत सीमा से महज सवा किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव डि्डा के बाहर स्थित खेत रहे। मात्र 22-23 वर्षीय वो चुलबुली सी डा. रवि हमें पूरे उत्साह के साथ अपने तीन में से एक एकड़ भूमि के खेत में उगी जड़ी बूटियों की किस्में बताने में मशगूल है। वो धारा-प्रवाह बोलती हुई हमें समझा रही है कि इन वनस्पतियों में कौन-कौन सी बीमारियों को भगाने की क्षमता है। डा. रवि अपने पिता डा. गुरबचन के साथ जलालाबाद में रहती है जो भारत पाक सीमा से करीब पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर है परन्तु उसका मन सीमा पर बसे अपने वनस्पतियों से ओत-प्रोत उस खेत में ही रमता है। मैने उससे पूछा कि हम इस वक्त सरहद के इतने नजदीक खड़े है पाकिस्तान की तरफ से चली बंदूक की गोली हमारे पास आकर गिर सकती है। वनस्पति पर चर्चा बंद करके क्यों न बार्डर की टैंशन पर चर्चा करें? इस पर उसका जवाब सुन कर मैं हैरान रह गया। उसका कहना था। हम बार्डर के रहने वाले लोग जंग से नहीं डरते। चाहे कोई समझे या न समझे पर हम भी इस देश के बिना वेतन वाले फौजी हैं। विश्वास करें, पिछले हफ्ते से टैंशन बढ़ी है, तब से मैंने यहां के दुगने चक्कर लगाने शुरू कर दिए हैं। एक अकेली लड़की को बेखौफ अपनी स्कूटी पर बार्डर की तरफ आता जाता देख कर यहां के निवासियों का मनोबल बढ़ता है। हमें अपनी सेनाओं की वीरता पर पूरा भरोसा है, पाकिस्तान आमने सामने की जंग में हमारे सामने एक दिन भी टिक नहीं पाएगा। कायर केवल पीठ पर वार करके भागता है।

इसी प्रकार फाजिल्का सैक्टर में एक गांव है दिलावर भैणी। उस गांव की स्थिति ऐसी है जैसे किसी ने एक चौरस डिब्बा उठा कर बार्डर की सीधी लाईन के उस पार रख कर केवल आगे वाला हिस्सा भारत की तरफ रखा हो। इस गांव के तीनों तरफ पाकिस्तान है, फैंसिंग से घिरे हुए इस गांव का जो प्रवेश द्ववार है वहां सतलुज नदी बहती है जिस पर टैंपरेरी पुल सा बना हुआ है। प्रवेश द्ववार पर बीएसएफ की पोस्ट है। इस समय उस गांव में बाहरी व्यक्ति के जाने पर पाबंदी है। आखिरकार तीन तरफ से पाकिस्तान से घिरे उस गांव के लोग बार्डर पर फौजों का जमावड़ा देख कर कैसा महसूस करते हैं। हमने इस बार दिलावर भैणी के बाहर टैप लगाया ताकि आने जाने वाले लोगों के विचार व उसके हावभाव से उनकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा सकें। ज्यादातर लोग तो अपनी रोजाना की समस्याओं जैसी बातों में मश्गूल दिखे। दिलावर भैणी के निवासी चंदा सिंह ने बताया कि गांव में लोग पूरी तरह से चढ़दी कला में है। पाकिस्तानी फौज के बंकर तो हमारे गांव से ही दिखते हैं जहां गतिविधियां काफी तेज हैं पर हमारी तरफ से बीएसएफ की तैनाती के चलते हमें कोई खतरा नहीं लगता।

(www.visfot.com से साभार)
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20090121

गर्भ से कब्र तक सिर्फ भेदभाव

7 दिसम्बर को प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की सबसे बड़ी धार्मिक संस्था `नेशनल कौंसिल फॉर चर्चेज इन इंडिया´ एवं कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया दलितों की मुक्ति के लिए `दलित मुक्ति संडे´ मना रही थी। यह दोनों ही चर्च वेटिकन एवं जनेवा स्थित वर्ल्ड चर्च कौंसिल के दिशा निर्देशों के तहत अपने कार्यों को विस्तार देते है। इन चर्च संस्थाओं से मेरा सवाल यह है कि अगर गर्भ से लेकर कब्र तक दलित ईसाईयों के साथ भेदभाव किया जाता है तो फिर इस तरह के संडे मंडे मनाने का क्या तुक है?

दलितों की मुक्ति के लिए चर्च अधिकारियों में कर्तव्यबोध जगाने हेतु बाइबल से याशयाह नबी के इस कथन का जिक्र किया गया है- न्याय करो और दबे हुओं को छुटकारा दिलाओ.´अच्छा है कि आखिर चर्च अधिकारियों को ईसाइयत के अंदर हाशिए पर पड़े इन करोड़ों लोगो की याद तो आयी, पर प्रश्न यह उठता है कि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाई चर्च की गोद में गये धर्मांतरितों के वंशज आज भी दलितों की श्रेणी में क्यों पड़े हुए हैं? चर्च की गोद में जाने के बाद यदि उन्हें सामाजिक-आर्थिक विषमता से छुटकारा नहीं मिल सकता तो उनके जीवन में चर्च का योगदान क्या हैं? जब चर्च के नेता यह दावा करते हैं कि भारत की 70 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या दलितों की श्रेणी में आती हैं तब वे खुले मन से यह स्वीकार क्यों नहीं करते कि चर्च उन्हें सामाजिक-आर्थिक समानता देने में असफल रहा हैं ? चर्च के भीतर भी उनके प्रति भेदभाव क्यों बरता जा रहा हैं?

दलित ईसाइयों की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस चर्च नेतृत्व को आज अपराधियों के कठघरे में खड़ा होना चाहिए था, वही आज सीनाजोरी के साथ निर्लज्जतापूर्वक स्वीकार कर रहा है कि भारत की ईसाई जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से दलित है, इसलिए उन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिये संविधान संशोधन किया जाना चाहिए । लेकिन वह यह बताने को तैयार नही है कि चार पॉच सौ वर्षों तक उसकी छत्रछाया में रहने के बाद भी इतना बड़ा वर्ग सामाजिक एवं आर्थिक असमानता, अस्पृश्यता और दारिद्रय का शिकार क्यों है? यह ऐतिहासिक सत्य है कि समाज के निचले तबके के वंचित वर्गों को मिशनरियों ने हिन्दू धर्म को उनकी इस दर्दनाक स्थिति का जिम्मेदार बताकर बड़े स्तर पर भारत में धर्मांतंरण का किया है परन्तु सैकड़ों सालों बाद भी अगर ईसाइयत में वह उससे भी बुरी स्थिति में आज है तो क्या चर्च अधिकारी इसके लिए दोषी नही है?

चर्च नेतृत्व अपनी असफलता को छिपाने के लिए ही अपनी नाकामी का ठीकरा हिन्दुओं के सिर फोड़ रहा है। भारत में पुर्तगालियों के समय से ही चर्च ने अपना विस्तार करना शुरू कर दिया था। अंग्रेजी शासन के दौरान इसमें बहुत तेजी आई संपत्ति और जनसंख्या के मामले में चर्च ने अठारह सौ वर्षों (सेंट थोमस के समय से) के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। 19वीं सदी के मध्य तक समुद्र तटीय इलाकों से आगे बढ़कर पंजाब तक पुहंच चुका था। चर्च ने अपना टारगेट भारत के वंचित वर्गो की ही बनाया, हिन्दु समाज की नीची मानी जाने वाली जातियों में बड़े स्तर पर धर्मांतरण का खेल खेला गया परन्तु यह जातियां ईसाइयत में आने के बाद भी पीड़त है। पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का मत है कि गर्भ से लेकर कब्र तक दलित `ईसाइयत´ के अंदर जातिवाद के शिकार है।

देश की स्वतंत्रता के बाद बने संविधान में जहां हिन्दू समाज की नीची माने जाने वाली जातियों के लिए विशेष प्रवधान किये गये वहीं करोड़ों धर्मांतरित लोगों को उससे बाहर माना गया क्योंकि उन्होंने जाति व्यवस्था से मुक्ति के लिये धर्मांतरण का मार्ग अपना लिया था। तभी चर्च नेतृत्व की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि वह इन लोगों को समाज में बराबरी के स्तर पर लाता परन्तु चर्च नेतृत्व ने इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति सुधारने की अपेक्षा अपने साम्राज्वाद को ही अहमियत दी. वह वंचित वर्गों को सरकारी सुविधाओं से दूर करते हुए अपने बाड़ों में लाने के कार्य में लगा रहा लेकिन यहां उसे आदिवासी समाज में मिली सफलता की तरह सफलता प्राप्त नहीं हो सकी.

छोटानागपुर क्षेत्र में ही भारत के कुल कैथोलिको का 10 प्रतिशत संख्या है। उतर पूर्व के सात राज्यों में तीन ईसाई बहुसंख्यक है यहां कैथोलिक क्षेत्र की ईसाई आबादी का चौथा हिस्सा है। लेकिन अनुसूचित जातियों से ईसाइयत की शरण में आये लोगों को हिन्दु दलितों को मिलने वाली सवुधाओं से बाहर कर देने के कारण भारत की आबादी का छटा हिस्सा यानी 16 प्रतिशत दलित चर्च के साम्राज्वाद से दूर हो गया है इसलिये आज चर्च नेतृत्व का पूरा जोर धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने को लेकर लग रहा है। इस कारण दलित ईसाइयों और दलित हिन्दुओं के बीच टकराव एवं आपसी कटुता भी बढ़ रही है। अभी हाल ही में उड़ीसा के कंधमाल जिले में अनुसूचित जातियों की श्रेणी से धर्मांतरित हुए `पाण´ ईसाइयों एवं कंध जाति के लोगों के बीच जबरदस्त टकराव हुआ जिसमें दर्जनों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और हजारों लोग बेघर हो गये लेकिन चर्च अधिकारी अपना खेल खेलने में व्यस्त हैं. इस पूरे मामले में उन्हें धर्मांतरित ईसाइयों की चिंता कम अपने लाभ की अधिक है.

सन् 1965 में केरल में कुमार पिल्लई कमेटी ने वहां के बहुसंख्यक ईसाई समाज के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन पर अपनी रिर्पोट दी थी। सन् 1970 में संथानम रिर्पोट में साफ लिखा गया कि `हिन्दू समाज में तो अपने सामाजिक-आर्थिक पिछड़ों को ऊपर उठाने का आंदोलन प्रबल हो रहा है, किन्तु चर्च में ऐसी कोई हलचल नही है।' सन् 1975 में चिदंबरम रिर्पोट में भी ऐसी बात कही गई, पर चर्च अधिकारी मौन रहे। होना तो यह चाहिए था कि चर्च अपनी विफलता पर आत्म-मंथन करता और धर्मांतरण का धंधा बंद कर अपने अनुयायियों के विकास को महत्व देता। पर चर्च नेतृत्व ने ऐसा कुछ भी नही किया। वह दलितों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का जोरदार प्रयास करने के बजाय उनपर अपना शिकंजा बनाए रखने के लिए उन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग करने लगा।

एक पुस्तक `आस्था से विश्वासघात´ पुस्तक में भारतीय वंचित ईसाइयों की पीड़ा जाहिर की है कि जब चर्च नेतृत्व ने देखा कि अब उसके बाड़े में असंतोष बढ़ने लगा है, कभी भी विद्रोह की स्थिति पैदा हो सकती है और उसका बाड़ा खाली हो सकता है तब उसने धर्मांतरित ईसाइयों के असंतोष को सरकार की तरफ मोड़ते हुए नई रणनीति `अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग´ शुरू कर दी। हालांकि ऐसी मांग के पूरा होने की संभावना दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं देती। क्योंकि चर्च नेतृत्व का मकसद इस मांग के तहत भारतीय दलित ईसाइयों को अपने बाड़े में बनाए रखना और साथ ही राजनीतिक पार्टियों पर अपने निजी हितों की पूर्ति के लिए दबाब बनाना भी है। वहीं दूसरी और राजनीतिक पार्टिया दलित ईसाइयों के वोट बटोरने के लिए समितियों एवं कमीशनों की स्थापना करती रहती है और उनकी रपटें चर्च एवं सरकार के लिए रद्दी बराबर होती है।

प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक, दोनों ही चर्चों ने वंचित लोगों को अपने साम्राज्वाद के परे कभी देखा ही नहीं है। इन वर्गों की मुक्ति में चर्च नेतृत्व की कोई रुचि नहीं रही है। उत्पीड़न, रोजमर्रा का संघर्ष, देश के विभिन्न भागों में व्याप्त जातिवाद, अशिक्षा, (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा अशिक्षित धर्मांतरित ईसाई ही है) गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, सामाजिक न्याय की तलाश और चर्च ढांचे में अपने अधिकारों को पाने हेतु संघर्ष -इनमें से किसी में भी चर्च नेतृत्व की कोई रुचि नहीं रही। इस समय देश में चर्च नेतृत्व 40,000 हजार से अधिक शैक्षणिक, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक विकास से सम्बधित संस्थाए चला रहा है। भारत सरकार के बाद चर्च के पास सबसे अधिक भूमि है. चर्च के अधिकार में भारत की सबसे बेहतर शिक्षण संस्थाए है जिनका उपयोग वह अपने स्वार्थ के लिये कर रहा है. ईसाइयों का पैसा, उनकी इमारते एवं सारे ईसाई संसाधनों का इस्तेमाल वंचित वर्गों/धर्मांतरित ईसाइयों को छोड़कर व्यक्तिगत लाभ के लिये किया जा रहा है। जिस भेदभाव, उत्पीड़न एवं जाति व्यवस्था से छुटकारे के लिये वंचितों ने अपने पूवर्जों का धर्म त्यागकर चर्च नेतृत्व का दामन थामा था आज वहीं चर्च नेतृत्व अपने घर में इन करोड़ों वंचितों को उससे मुक्ति देने की अपेक्षा इस बुराई को अपने स्वार्थ के लिये कानूनी जामा पहनाने के लिये जोर लगा रहा है।

चर्च अधिकारी अगर `दलितों की मुक्ति´ के लिये इतने ही ईमानदार है तो उन्हें चाहिए कि वह अपने घर (चर्च ढांचे में) उन्हें उनकी संख्या के मुताबिक प्रशासिनक भागीदारी उपलब्ध करवाये, धर्म-प्रचार के नाम पर खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल उनके विकास के लिए किया जाए। प्रोटस्टेंट की तरह ही कैथोलिक चर्च में बिशप का चुनाव वेटिकन के स्थान पर स्थानीय कलीसियों से करवाया जाए। यूरोपीय चश्में की जगह जमीनी धरातल पर दलितो की समास्याओं को समझा जाए। चर्च के संस्थानों में उन्हें समान अवसर मुहैया करवाये जाए तभी `दलित मुक्ति संडे' जैसे आयोजनों को सफल माना जा सकता है।

(www.visfot.com से साभार)
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20090120

सिक्किम का सबसे खूबसूरत गाँव

सिक्किम की खूबसूरती के चर्चे तो आम हैं. लेकिन यहां हम जिक्र कर रहे हैं उस जगह का जिसे सिक्किम के सबसे खूबसूरत गांव के रूप में ख्याति हासिल है. इस गांव का नाम है लाचुंग. इसे यह दर्जा दिया था ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ डॉल्टन हुकर ने 1855 में प्रकाशित हुए द हिमालयन जर्नल में. लेकिन जोसेफ डाल्टन के उस तमगे के बिना भी यह गांव दिलकश है. यह उत्तर सिक्किम में चीन की सीमा के बहुत नजदीक है. लाचुंग 9600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित है. ये नदियां ही आगे जाकर तीस्ता नदी में मिल जाती हैं. इतनी ऊंचाई पर ठंड तो बारहमासी होती है. लेकिन बर्फ गिरी हो तो यहां की खूबसूरती को नया ही आयाम मिल जाता है... ... जिसकी फोटो उतारकर आप अपने ड्राइंगरूम में सजा सकते हैं. इसीलिए लोग यहां सर्दी के मौसम में भी खूब आते हैं. प्राकृतिक खूबसूरती के अलावा सिक्किम की खास बात यह भी है कि बर्फ गिरने पर भी उत्तर का यह इलाका उतना ही सुगम रहता है. पहुंच आसान हो तो घूमने का मजा ही मजा. बर्फ से ढकी चोटियां, झरने और चांदी सी झिलमिलाती नदियां यहां आने वाले सैलानियों को स्तब्ध कर देती हैं.

आम तौर पर लाचुंग को युमथांग घाटी के लिए बेस के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. युमथांग घाटी को पूरब का स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है.

क्या करें

युमथांग जाने के अलावा भी लाचुंग में बहुत कुछ किया जा सकता है. एक अलग पहाड़ी की चोटी पर लाचुंग मोनेस्ट्री है। अद्भुत वादी में यहां ध्यान लगाने बैठें तो मानो खुद को ही भूल जाएं। लगभग 12 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित न्यिंगमापा बौद्धों की इस मोनेस्ट्री की स्थापना 1806 में हुई थी। इसके अलावा लाचुंग में हथकरघा केंद्र है जहां स्थानीय हस्तशिल्प का जायजा लिया जा सकता है. पास ही शिंगबा रोडोडेंड्रन (बुरांश) अभयारण्य है. सात-आठ हजार फुट से ऊपर की ऊंचाई वाले हिमालयी पेड़ों को रंग देने वाले बुरांश के पेड़ों को यह बेहद नजदीक से महसूस किया जा सकता है. यहां रोडोडेंड्रन की लगभग 25 तरह की किस्में हैं. नेपाली, लेपचा और भूटिया यहां के मूल निवासी हैं. उनकी संस्कृति से मेल मिलाप का भी खूबसूरत मौका यहां मिलता है. कंचनजंघा नेशनल पार्क भी इसी इलाके में है. युमथांग से आगे युमे-सेमदोंग तक जाया जा सकता है। वह सड़क का आखिरी सिरा है। वहाँ जीरो प्वाइंट 15,700 फुट से ऊपर है. उस ऊंचाई पर खड़े होकर, जहां हवा भी थोड़ी झीनी हो जाती है, आगे का नजारा देखना एक दुर्लभ अवसर है.

कब-कैसे-कहां

लाचुंग जाने का सर्वश्रेष्ठ समय अक्टूबर से मई तक है. अप्रैल-मई में यह घाटी फूलों से लकदक दिखाई देगी तो जनवरी-फरवरी में बर्फ से आच्छादित. हर वक्त की अलग खूबसूरती है.

लाचुंग सिक्किम की राजधानी गंगटोक से 117 किलोमीटर दूर है. गंगटोक से यह रास्ता जीप में पांच घंटे में तय किया जा सकता है. लाचुंग से युमथांग घाटी 24 किलोमीटर आगे है. युमथांग तक जीपें जाती हैं. रास्ता फोदोंग, मंगन, सिंघिक व चुंगथांग होते हुए जाता है. जीपें गंगटोक से मिल जाती हैं. ध्यान रहे कि सिक्किम में बाहर से आने वाले जीप-कार आगे का सफर तय नहीं कर सकते. इसलिए वाहन का जुगाड़ स्थानीय स्तर पर ही करना होगा.

भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू होने के बाद से इस इलाके में सैलानियों की आवाजाही भी बढ़ी है. इससे पहले 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था. बाद में यह इलाका लंबे समय तक आम लोगों के लिए बंद रहा. अब सीमा पर हालात सामान्य होने के साथ ही सैलानी यहां फिर से जाने लगे हैं. लिहाजा यहां कई होटल भी बने हैं. सस्ते व महंगे, दोनों तरह के होटल मिल जाएंगे. होटलों की बुकिंग गंगटोक से ही करा लें तो बेहतर रहेगा.

सर्दियों में सिक्किम

सिक्किम बाकी हिमालयी राज्यों की तुलना में ज्यादा शांत है. हर साल गंगटोक में दिसंबर में फूड एंड कल्चर फेस्टिवल होता है. जनवरी में मकर संक्रांति को यहां माघे संक्रांति के रूप में मनाया जाता है. तीस्ता व रिंगित नदियों के संगम पर यहां बड़ा मेला लगता है जिसमें बडी संख्या में स्थानीय लोग व सैलानी शामिल होते हैं. इसके अलावा अलग-अलग बौद्ध मठों के भी अपने-अपने आकर्षक धार्मिक आयोजन होते हैं.

(दैनिक जागरण से साभार)


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