7 दिसम्बर को प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की सबसे बड़ी धार्मिक संस्था `नेशनल कौंसिल फॉर चर्चेज इन इंडिया´ एवं कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया दलितों की मुक्ति के लिए `दलित मुक्ति संडे´ मना रही थी। यह दोनों ही चर्च वेटिकन एवं जनेवा स्थित वर्ल्ड चर्च कौंसिल के दिशा निर्देशों के तहत अपने कार्यों को विस्तार देते है। इन चर्च संस्थाओं से मेरा सवाल यह है कि अगर गर्भ से लेकर कब्र तक दलित ईसाईयों के साथ भेदभाव किया जाता है तो फिर इस तरह के संडे मंडे मनाने का क्या तुक है?
दलितों की मुक्ति के लिए चर्च अधिकारियों में कर्तव्यबोध जगाने हेतु बाइबल से याशयाह नबी के इस कथन का जिक्र किया गया है- न्याय करो और दबे हुओं को छुटकारा दिलाओ.´अच्छा है कि आखिर चर्च अधिकारियों को ईसाइयत के अंदर हाशिए पर पड़े इन करोड़ों लोगो की याद तो आयी, पर प्रश्न यह उठता है कि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाई चर्च की गोद में गये धर्मांतरितों के वंशज आज भी दलितों की श्रेणी में क्यों पड़े हुए हैं? चर्च की गोद में जाने के बाद यदि उन्हें सामाजिक-आर्थिक विषमता से छुटकारा नहीं मिल सकता तो उनके जीवन में चर्च का योगदान क्या हैं? जब चर्च के नेता यह दावा करते हैं कि भारत की 70 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या दलितों की श्रेणी में आती हैं तब वे खुले मन से यह स्वीकार क्यों नहीं करते कि चर्च उन्हें सामाजिक-आर्थिक समानता देने में असफल रहा हैं ? चर्च के भीतर भी उनके प्रति भेदभाव क्यों बरता जा रहा हैं?
दलित ईसाइयों की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस चर्च नेतृत्व को आज अपराधियों के कठघरे में खड़ा होना चाहिए था, वही आज सीनाजोरी के साथ निर्लज्जतापूर्वक स्वीकार कर रहा है कि भारत की ईसाई जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से दलित है, इसलिए उन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिये संविधान संशोधन किया जाना चाहिए । लेकिन वह यह बताने को तैयार नही है कि चार पॉच सौ वर्षों तक उसकी छत्रछाया में रहने के बाद भी इतना बड़ा वर्ग सामाजिक एवं आर्थिक असमानता, अस्पृश्यता और दारिद्रय का शिकार क्यों है? यह ऐतिहासिक सत्य है कि समाज के निचले तबके के वंचित वर्गों को मिशनरियों ने हिन्दू धर्म को उनकी इस दर्दनाक स्थिति का जिम्मेदार बताकर बड़े स्तर पर भारत में धर्मांतंरण का किया है परन्तु सैकड़ों सालों बाद भी अगर ईसाइयत में वह उससे भी बुरी स्थिति में आज है तो क्या चर्च अधिकारी इसके लिए दोषी नही है?
चर्च नेतृत्व अपनी असफलता को छिपाने के लिए ही अपनी नाकामी का ठीकरा हिन्दुओं के सिर फोड़ रहा है। भारत में पुर्तगालियों के समय से ही चर्च ने अपना विस्तार करना शुरू कर दिया था। अंग्रेजी शासन के दौरान इसमें बहुत तेजी आई संपत्ति और जनसंख्या के मामले में चर्च ने अठारह सौ वर्षों (सेंट थोमस के समय से) के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। 19वीं सदी के मध्य तक समुद्र तटीय इलाकों से आगे बढ़कर पंजाब तक पुहंच चुका था। चर्च ने अपना टारगेट भारत के वंचित वर्गो की ही बनाया, हिन्दु समाज की नीची मानी जाने वाली जातियों में बड़े स्तर पर धर्मांतरण का खेल खेला गया परन्तु यह जातियां ईसाइयत में आने के बाद भी पीड़त है। पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का मत है कि गर्भ से लेकर कब्र तक दलित `ईसाइयत´ के अंदर जातिवाद के शिकार है।
देश की स्वतंत्रता के बाद बने संविधान में जहां हिन्दू समाज की नीची माने जाने वाली जातियों के लिए विशेष प्रवधान किये गये वहीं करोड़ों धर्मांतरित लोगों को उससे बाहर माना गया क्योंकि उन्होंने जाति व्यवस्था से मुक्ति के लिये धर्मांतरण का मार्ग अपना लिया था। तभी चर्च नेतृत्व की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि वह इन लोगों को समाज में बराबरी के स्तर पर लाता परन्तु चर्च नेतृत्व ने इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति सुधारने की अपेक्षा अपने साम्राज्वाद को ही अहमियत दी. वह वंचित वर्गों को सरकारी सुविधाओं से दूर करते हुए अपने बाड़ों में लाने के कार्य में लगा रहा लेकिन यहां उसे आदिवासी समाज में मिली सफलता की तरह सफलता प्राप्त नहीं हो सकी.
छोटानागपुर क्षेत्र में ही भारत के कुल कैथोलिको का 10 प्रतिशत संख्या है। उतर पूर्व के सात राज्यों में तीन ईसाई बहुसंख्यक है यहां कैथोलिक क्षेत्र की ईसाई आबादी का चौथा हिस्सा है। लेकिन अनुसूचित जातियों से ईसाइयत की शरण में आये लोगों को हिन्दु दलितों को मिलने वाली सवुधाओं से बाहर कर देने के कारण भारत की आबादी का छटा हिस्सा यानी 16 प्रतिशत दलित चर्च के साम्राज्वाद से दूर हो गया है इसलिये आज चर्च नेतृत्व का पूरा जोर धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने को लेकर लग रहा है। इस कारण दलित ईसाइयों और दलित हिन्दुओं के बीच टकराव एवं आपसी कटुता भी बढ़ रही है। अभी हाल ही में उड़ीसा के कंधमाल जिले में अनुसूचित जातियों की श्रेणी से धर्मांतरित हुए `पाण´ ईसाइयों एवं कंध जाति के लोगों के बीच जबरदस्त टकराव हुआ जिसमें दर्जनों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और हजारों लोग बेघर हो गये लेकिन चर्च अधिकारी अपना खेल खेलने में व्यस्त हैं. इस पूरे मामले में उन्हें धर्मांतरित ईसाइयों की चिंता कम अपने लाभ की अधिक है.
सन् 1965 में केरल में कुमार पिल्लई कमेटी ने वहां के बहुसंख्यक ईसाई समाज के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन पर अपनी रिर्पोट दी थी। सन् 1970 में संथानम रिर्पोट में साफ लिखा गया कि `हिन्दू समाज में तो अपने सामाजिक-आर्थिक पिछड़ों को ऊपर उठाने का आंदोलन प्रबल हो रहा है, किन्तु चर्च में ऐसी कोई हलचल नही है।' सन् 1975 में चिदंबरम रिर्पोट में भी ऐसी बात कही गई, पर चर्च अधिकारी मौन रहे। होना तो यह चाहिए था कि चर्च अपनी विफलता पर आत्म-मंथन करता और धर्मांतरण का धंधा बंद कर अपने अनुयायियों के विकास को महत्व देता। पर चर्च नेतृत्व ने ऐसा कुछ भी नही किया। वह दलितों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का जोरदार प्रयास करने के बजाय उनपर अपना शिकंजा बनाए रखने के लिए उन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग करने लगा।
एक पुस्तक `आस्था से विश्वासघात´ पुस्तक में भारतीय वंचित ईसाइयों की पीड़ा जाहिर की है कि जब चर्च नेतृत्व ने देखा कि अब उसके बाड़े में असंतोष बढ़ने लगा है, कभी भी विद्रोह की स्थिति पैदा हो सकती है और उसका बाड़ा खाली हो सकता है तब उसने धर्मांतरित ईसाइयों के असंतोष को सरकार की तरफ मोड़ते हुए नई रणनीति `अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग´ शुरू कर दी। हालांकि ऐसी मांग के पूरा होने की संभावना दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं देती। क्योंकि चर्च नेतृत्व का मकसद इस मांग के तहत भारतीय दलित ईसाइयों को अपने बाड़े में बनाए रखना और साथ ही राजनीतिक पार्टियों पर अपने निजी हितों की पूर्ति के लिए दबाब बनाना भी है। वहीं दूसरी और राजनीतिक पार्टिया दलित ईसाइयों के वोट बटोरने के लिए समितियों एवं कमीशनों की स्थापना करती रहती है और उनकी रपटें चर्च एवं सरकार के लिए रद्दी बराबर होती है।
प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक, दोनों ही चर्चों ने वंचित लोगों को अपने साम्राज्वाद के परे कभी देखा ही नहीं है। इन वर्गों की मुक्ति में चर्च नेतृत्व की कोई रुचि नहीं रही है। उत्पीड़न, रोजमर्रा का संघर्ष, देश के विभिन्न भागों में व्याप्त जातिवाद, अशिक्षा, (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा अशिक्षित धर्मांतरित ईसाई ही है) गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, सामाजिक न्याय की तलाश और चर्च ढांचे में अपने अधिकारों को पाने हेतु संघर्ष -इनमें से किसी में भी चर्च नेतृत्व की कोई रुचि नहीं रही। इस समय देश में चर्च नेतृत्व 40,000 हजार से अधिक शैक्षणिक, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक विकास से सम्बधित संस्थाए चला रहा है। भारत सरकार के बाद चर्च के पास सबसे अधिक भूमि है. चर्च के अधिकार में भारत की सबसे बेहतर शिक्षण संस्थाए है जिनका उपयोग वह अपने स्वार्थ के लिये कर रहा है. ईसाइयों का पैसा, उनकी इमारते एवं सारे ईसाई संसाधनों का इस्तेमाल वंचित वर्गों/धर्मांतरित ईसाइयों को छोड़कर व्यक्तिगत लाभ के लिये किया जा रहा है। जिस भेदभाव, उत्पीड़न एवं जाति व्यवस्था से छुटकारे के लिये वंचितों ने अपने पूवर्जों का धर्म त्यागकर चर्च नेतृत्व का दामन थामा था आज वहीं चर्च नेतृत्व अपने घर में इन करोड़ों वंचितों को उससे मुक्ति देने की अपेक्षा इस बुराई को अपने स्वार्थ के लिये कानूनी जामा पहनाने के लिये जोर लगा रहा है।
चर्च अधिकारी अगर `दलितों की मुक्ति´ के लिये इतने ही ईमानदार है तो उन्हें चाहिए कि वह अपने घर (चर्च ढांचे में) उन्हें उनकी संख्या के मुताबिक प्रशासिनक भागीदारी उपलब्ध करवाये, धर्म-प्रचार के नाम पर खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल उनके विकास के लिए किया जाए। प्रोटस्टेंट की तरह ही कैथोलिक चर्च में बिशप का चुनाव वेटिकन के स्थान पर स्थानीय कलीसियों से करवाया जाए। यूरोपीय चश्में की जगह जमीनी धरातल पर दलितो की समास्याओं को समझा जाए। चर्च के संस्थानों में उन्हें समान अवसर मुहैया करवाये जाए तभी `दलित मुक्ति संडे' जैसे आयोजनों को सफल माना जा सकता है।
(www.visfot.com से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
bahut accha likha hai aapne...
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