20090330

सरदार, कितना यूरेनियम चाहिए?

जिन दिनों भारतीय लोकतंत्र अमेरिकी लोकतंत्र की इज्जत बचाने के लिए अपना अस्तित्व और संप्रभुता दांव पर लगा रहा था उन दिनों जॉर्ज बुश अपने पैतालीस पन्नों के एक परम गोपनीय पत्र में अपनी सीनेट को दिलासा दे रहे थे कि उन्होंने तो दरअसल भारत को बेवकूफ बनाया है और भारत ने अगर नाभिकीय अप्रसार संधि पर स्वीकृति नहीं दी और फिर से कोई परमाणु परीक्षण किया तो पूरी दुनिया उसे यूरेनियम देना बंद कर देगी और कसम खा कर बुश ने कहा था कि अमेरिका ऐसा करने वालों में सबसे आगे होगा.

अमेरिका बनिया स्वभाव वालों का देश है। वे खुद एक तोला यूरेनियम पैदा नहीं करते मगर दुनिया भर में उसके सबसे बड़े व्यापारी होने का दावा करते हैं। एटमी अप्रसार संधि पर खुद इन दगाबाजों ने दस्तखत नहीं किए लेकिन भारत सहित सभी विकासशील देशों से उनकी उम्मीद है कि सब हलफनामा भर कर दे दें कि वे अपनी एटमी क्षमताओं का प्रसार नहीं करेंगे। कम लोगों को मालूम हैं कि नासा को सबसे ताकतवर बनाने के लिए अमेरिकी सीनेट ने बीच में एक प्रस्ताव पर भी विचार किया था कि दुनिया के सारे देश अपने उपग्रह छोड़ने के पहले अमेरिका के नेतृत्व में प्रस्तावित अंतरिक्ष क्लब की अनुमति लें. चीन और रूस ने अपनी दुश्मनी भुलाते हुए इस मामले पर इतना बखेड़ा खड़ा किया कि यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा.

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अमेरिका आज तक भारत को तीसरी दुनिया में गिनता आ रहा है और उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे नेता दुनिया की आंख में आंख डाल कर यह कहने से डरते हैं कि तुम्हे जो करना है सो कर लो, हम तुम से नहीं डरते। यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि भारत जैसे विराट देश में धरती के गर्भ में इतना यूरेनियम मौजूद है कि जो पैतालीस देश भारत की परमाणु नियति का फैसला करने का दावा कर रहे हैं उन सबकों हम यूरेनियम बेच सकते हैं। अपने झारखंड और छत्तीसगढ़ में यूरेनियम और प्लेटोनियम की इतनी बड़ी खदानें मौजूद हैं कि हमें अपनी एटमी ताकत बढ़ाने के लिए किसी भी खां साहब का मुंह नहीं देखना.

सिर्फ मेघालय में पच्चीस वर्ग किलोमीटर में यूरेनियम होने की इतनी ज्यादा मात्रा का पता अंतरिक्ष चित्रों से चला और फिर हमारे अधिकारियों ने जा कर जमीन पर उसकी पुष्टि की. और अब केंद्र सरकार के एक संयुक्त सचिव वहां यूरेनियम की खदान लीज पर लेने के लिए राज्य सरकार से बात कर रहे हैं। यह यूरेनियम इतना है जितना हम फिलहाल चार देशों से आयात करते हैं। इसके अलावा हमारे यूरेनियम निगम ने लगातार शोध कर के बहुत सारे यूरेनियम भंडारों का पता लगाया है और अगर हम प्राथमिकता के आधार पर कुछ वर्षों के लिए यूरेनियम के संधान को युद्व स्तर पर खोजने और संश्लेषित करने में जुट जाएं तो हमें पूरी दुनिया में खोजबीन और भीख मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

अमेरिका को पता था कि यूरेनियम और एटमी सामग्री के तौर पर इस्तेमाल होने वाला यूरेनियम और भारी पानी दोनों दुनिया के विकास के साथ लगातार मांग में आगे बढ़ेंगे और इसीलिए 1986 में ही उसने अपना परमाणु कानून बना कर यह सुनिश्चित कर दिया था कि यूरेनियम और भारी पानी दोनों के उत्पादन पर उसका ही नियंत्रण रहे। बाद में जब दूसरे देशों ने अपनी परमाणु नीतियां बनाई तो तय पाया गया कि अमेरिका इन नीतियों को निरस्त करने के लिए अपनी परमाणु नीति में संशोधन करें। तभी नाभिकीय अप्रसार संधि का नाटक खड़ा किया गया.

दुनिया में सिर्फ एक बार दूसरे विश्व युद्व में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बमों का इस्तेमाल हुआ था और वहां का हाल देख कर परमाणु ताकत से संपन्न कोई भी देश और खास तौर पर पड़ोसी दुश्मन देश यह साहस नहीं करेगा कि घोर से घोर युद्व में एटम बम का इस्तेमाल करें। कारण साफ है। अगर पाकिस्तान भारत पर या भारत पाकिस्तान पर एटम बम छोड़ता है तो लाहौर और इस्लामाबाद तो जाएंगे ही, बचेंगे अपने जालंधर, अमृतसर और जम्मू भी नहीं। और फिर भारत तो पहले से ही कहता आ रहा है कि वह एटमी ताकत के पहले इस्तेमाल न करने का वचन दे चुका है। अगर कोई एटमी हमला करता है तो उसे भुगतना पड़ेगा वरना हम पहले एटम बम चलाने वालों में से नहीं हैं.

दुनिया में एटमी खदानों के खजानों की अगर पड़ताल की जाए तो सबसे ज्यादा यूरेनियम अफ्रीका में मौजूद है और यह अभी तक की शोध है। यूरेनियम अपने आप में एक ऐसा तत्व है जिसका अपने अणुओं, परमाणुओं और नाभिकों पर भी कोई काबू नहीं रहता। भारी पानी यानी सादा पानी में आक्सीजन का एक और परमाणु जोड़ दिया जाए, तो वह भारी पानी हो जाता है और आक्सीजन का यह अतिरिक्त परमाणु यूरेनियम के अगर एक ही अणु में विस्फोट करता है तो उसके बाद वह अणु पहले अपने साथ के सारे परमाणुओं को विस्फोटक बना देता है, इसके बाद हवा में जो आक्सीजन और हाइड्रोजन होती है, उसके परमाणु भी टूटना शुरू हो जाते है। इससे अपार उर्जा जन्म लेती है जो अगर नियंत्रित न रहे तो विनाश का कारण बनती है। नियंत्रित विस्फोट से इस उर्जा को बिजली में बदला जाता है.

विज्ञान के बहुत सारे ज्ञानी हमें यह बताने पर तुले हुए हैं कि कितनी भी परमाणु बिजली पैदा कर लो, सहारा तो पानी और कोयले आदि से पैदा होने वाली बिजली का ही लेना पड़ेगा। भारत में बिजली के वितरण का कोई राज मार्ग नहीं हैं और उपलब्ध बिजली में से भी एक तिहाई रास्ते में बर्बाद हो जाती है और बाकी एक तिहाई या तो चोरी कर ली जाती है या वितरण नहीं होने के कारण ट्रांसफार्मर में ही बर्बाद हो जाती है। जाहिर है कि हमें बिजली से ज्यादा बिजली प्रबंधन की जरूरत है और जिस तरह हम धीरे-धीरे अपनी सामाजिक गरीबी को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही एटमी गरीबी को निपटाने की कोशिश किए बगैर कोई उपाय नहीं हैं.

रही अमेरिका और एनएसजी देशों की बात तो अगर वे राजनीति कर रहे हैं तो हमें कूटनीति करनी पड़ेगी और यहां कूटनीति का अर्थ कूटने की नीति से है। अमेरिका को शायद याद दिलाना पड़ेगा कि कोलंबस बेचारा निकला तो भारत खोजने था लेकिन उसने गलती से अमेरिका को ही भारत समझ लिया। जिस देश का जन्म ही भारत की तलाश में हुआ है उसकी औकात यह कब से हो गई कि वह भारत को ज्ञान दें और अपनी शर्तों समझाए ?
(आलोक तोमर)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

पोप पोषित मिशनरियों के पाप

चर्च पर हिन्दू चरमपंथियों द्वारा हमला तो खबर बनती है लेकिन यह खबर कभी क्यों नहीं बनती कि चर्च के अंदर कितना शोष, अत्याचार और दमन हो रहा है. चर्च संगठन अपने ही कर्मचारियों का शोषण करते हैं, नन्स और पारी की संदेहास्पद हत्याओं के मामले भी प्रकाश में आये हैं, जिनमें चर्च प्रशासन से जुड़े लोग ही शामिल पाये गये हैं, फिर भी हमारा प्रबुद्ध समाज चर्च संगठनों के बीच फैली इन कुरीतियों के बारे में कभी अपनी जबान नहीं खोलता.

पिछले दिनों चर्चों से जुड़ी ऐसी कई घटनांए सामने आई हैं जिन्हें साप्रदायिकता की श्रेणी में रखा जा रहा है। अभी हाल ही में रतलाम (मध्य प्रदेश) की रेलवे कंलोनी में स्थित 85 वर्ष पुराने चर्च में आग लगा दी गई। इस घटना को सीधे हिन्दु संगठनों से जोड़ा गया। मामला तुंरत अतंराष्ट्रीय स्तर तक पंहुचाया गया। चर्च अधिकारियों और उनके विदेशी आकाओं की भकुटियां तन गई। बाद में पता चला कि उक्त घटना की तह में था उसी चर्च का चौकीदार था- नोयल पारे. नोयल पारे ने आक्रोशवश ही चर्च में आग लगाई थी।

चर्च की 86वीं वर्षगांठ मनाई जाने वाली थी. बड़े समारोह की तैयारियॉ थी. किंतु उस चर्च के चौकीदार पर आठ हजार का कर्ज था. कर्ज था बनियों का. जिनसे वह पेट भरने के लिये जरुरी नून-तेल उधार लेता था। चर्च प्रशासन उसे मात्र 1000 रुपए मासिक वेतन देता था। कितना बड़ा अंतर है सरकारी नियमों में न्यूनतम मजदूरी को लेकर और चर्च प्रषासन द्वारा दी जाने वाली मजदूरी के बीच. देश की राजधानी दिल्ली में ही चर्च द्वारा चलाये जाने वाले अधिक्तर संस्थानों में भी ऐसा ही हाल है, सरकारी आदेश पोप पोषित धर्मराज्य के प्रशासकों के ठेंगे पर होते है। चर्च का गुलाम कर्मचारी 24 घंटे काम करके एक हजार रुपए महीना अर्थात 33 रुपए प्रतिदिन, ऐसी स्थिति में -क्रिया की प्रतिक्रिया - शोषण का परिणाम आक्रोश तो होगा ही. आक्रोशवश ऐसा कर्मचारी कुछ भी कर सकता है। हत्या या आत्महत्या या फिर तोड़फोड़ मारपीट अगजनी इत्यादि या चोरी चकारी, लूटपाट कुछ भी.

कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के ही झाबुआ में कान्वेंट की ननों (धर्म-बहनों) पर सामूहिक हमला व बलात्कार का मामला भी खूब उछाला गया। लेकिन उस समय भी बात वहीं थी बंदर की बला तबेले के सिर. हिन्दू संगठन ही बदनाम किये गये। इस मामले में भी झाबुआ के धर्मांतरित ईसाइयों का आक्रोश ही था। मलयाली-दक्षिण भारतीय ननें बनाम आदिवासी ईसाई. यहां रतलाम में चर्च जलाने की जिस घटना का जिक्र किया जा रहा है उसके मूल में भी मलयाली चर्च प्रशासन पादरी जोस मैथ्यू (मलयाली) बनाम नोयल पारे (स्थानीय मराठी मूल का आदिवासी) है. हाल ही में बिजनौर -उतर प्रदेश की एक स्थानीय अदालत ने `संत मेरी स्कूल´ की नन प्रमिला की 5 नवंबर 2007 को हुई हत्या के मामले में स्कूल के चौकीदार जॉन को उम्रकैद की सजा सुनाई है। कुछ दिन पूर्व उतराखंड के रामपुर में एक कैथोलिक पादरी एवं उसकी नौकरानी की हत्या के मामले में भी उक्त आश्रम से जुड़े कुछ लोग पकड़े गये है। आजकल उड़ीसा में एक नन के साथ हुये बलात्कार का मामला राष्ट्रीय एवं अतंरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में छाया हुआ है. उड़ीसा पुलिस ने संदेह के आधार पर चार लोगों को हिरासत में लिया है. पीड़ित नन चर्च अधिकारियों के संरक्षण में अज्ञातवास में चली गई है. चर्च अधिकारियों के मुताबिक पीड़िता को सही समय पर सामने लाया जायेगा। किसी भी महिला के साथ बलात्कार एक घिनौना अपराध है. बलात्कारी शरीर ही नहीं पीड़िता की आत्मा की भी हत्या कर देता है. ऐसा अपराधी कोई भी हो उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए परन्तु उड़ीसा मामले को लेकर कुछ चर्च अधिकारियों पर ही अगुंली उठ रही है. ऐसे में यह जरूरी है कि सच लोगों के सामने लाया जाना चाहिए.

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मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है.

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यहीं नहीं उड़ीसा में जो हो रहा है उसमें भी मलयाली मिशनरियों का बड़ा हाथ है। कटक के आर्च बिशप राइट रेव्हण रिफेल चीनथ भी मलयाली ही है। वहां इनकी गलतियों की सजा गरीब एवं सीधे साधे धर्मांतरित वंचितों को मिली। छल, फरेब, धोखाधड़ी के बलबूते अपने साम्राज्य का विस्तार करते `पोप पोषित´ यह मिशनरी हिन्दू दलितों को मतांतरित करने के बाद भी सरकारी दस्तावेजों में हिन्दू रहने के लिए प्रेरित करते है, ताकि वह इन से नहीं सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहे और इनकी धर्मांतरण की दुकान बिना किसी रोक-टोक के चलती रहे।

इन्हें वंचितों एवं आदिवासियों के प्रति कितनी सहनाभूति है यह उड़ीसा के कंधमाल और कर्नाटक में हुए कुछ चर्चों पर हमलों के दौरान विरोध करने के तरीके से भी समझा जा सकता है। जहां उड़ीसा के मामले में कैथोलिक चर्च अधिकारी एक औपचारिकता निभाते दिखाई दिये वहीं मंगलूर में हुई घटनाओं के बाद उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। अंग्रेंजी अखबारों में दो-दो पेज तक की खबरे आनी शुरू हुई। चर्च अधिकारी और उनके राजनीतिक समर्थक ऐसे सक्रिय हुए मानों कर्नाटक में `ईसाइयत´ समाप्त होने को हो। चर्च अधिकारियों की सक्रियता और उग्र तेवरों को देखते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री तुरंत मंगलूर डायसिस के बिषप के यहां सफाई देने वैसे ही पुहचें जैसे राजग के शासनकाल में केन्द्र सरकार अपनी सफाई देती थी। मंगलूर की घटनाओं के बाद चर्च अधिकारियों का उग्र होना स्भाविक था क्योंकि एक तरह से वह चर्च का मिनी वैटिकन जो ठहरा। यदि मराठियों,असामियों, बगालियों, पंजाबियों आदि को अपने अस्तित्व की चिन्ता सता सकती है तो उड़ीसा के मूल निवासियों को भी अपने अस्तित्व की रक्षा की चिन्ता होना स्भाविक है।

मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है। यह दक्षिण भारतीय पादरी - बिशप विदेशी मिशनरियों द्वारा छोड़ी गई अकूत सम्पति को अपने हाथ से निकलने न देने की फिराक में नित नयें हथकंडे अपनाते रहते है। यहां एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है कि वास्कोडिगामा द्वारा छोड़े गये पुर्तगाली मूल के मिशनरियों के वंशज अब भी मंगलोरियन - गोअन - के रुप में उपस्थित है। उतर प्रदेश के नौ कैथोलिक डायसिसों आगरा, मेरठ, झॉसी, बिजनौर, इलाहाबाद, लखनाऊ, बनारस, गोरखपुर, बरेली - के बिशपों में से छ: बिशप पुर्तगाली मूल के है - शेष मलयाली (केरल) के है। अभी कुछ माह पूर्व केरल के आर्च बिशप ने केरल के ईसाइयों के नाम एक परिपत्र (फतवा) जारी किया था कि प्रत्येक दम्पती को चाहिये कि वे `अधिक से अधिक´ संतान उत्पन्न करें. आशय यही था कि चर्च संपदा को हथियाये रखने के लिए केरल के कर्णधारों की अवश्यकता है.

चर्च अधिकारी आज विभिन्न तरीकों से अथाह दौलत कमा रहे हैं. उनका पूरा व्यावसाय इस देश के करोड़ों वंचितों के नाम पर चल रहा है। भारत सरकार का वार्षिक बजट तो आय-व्याय के साथ घाटे के बजट के रुप में जुड़ा होता है मगर इनके घाटे का तो सवाल ही नहीं और साथ ही धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के हित्तों की रक्षा का भार भारत की सरकार पर जिसके तहत इटली की सरकार और वैटिकन भारत के राजदूत को बुलाकर डांट लगाती है। यहीं कारण है कि चर्च अधिकारियों द्वारा शोषित आम ईसाई अनाथ सा विक्षिप्तावस्था में जा पहुंचा है जिसका भविष्य आक्रोश और विरोध की नींव पर खड़ा है.

(आर एल फ्रांसिस)

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आचार संहिता का उल्लंघन...चुपचाप

न कोई विज्ञप्ति, न कोई सार्वजनिक घोषणा। रिजर्व बैंक ने चुपचाप एक अधिसूचना जारी कर यूपीए सरकार की सर्वाधिक लोकलुभावन किसानों की कर्जमाफी योजना में नई राहत दे दी। वह भी उन किसानों को जिनके पास दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से ज्यादा जमीन है। कर्जमाफी योजना के तहत इन किसानों को बकाया कर्ज में एकल समायोजन (वन टाइम सेटलमेंट) के तहत 25 फीसदी छूट देने का प्रावधान है, बशर्ते ये लोग बाकी 75 फीसदी कर्ज तीन किश्तों में अदा कर देते हैं।

पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले इन किसानों को बकाया कर्ज की पहली किश्त 30 सितंबर 2008 तक, दूसरी किश्त 31 मार्च 2009 तक और तीसरी किश्त 30 जून 2009 तक चुकानी है। लेकिन रिजर्व बैंक ने दूसरी किश्त की अंतिम तिथि से आठ दिन पहले सोमवार को अधिसूचना जारी कर पहली किश्त को भी अदा करने की तिथि बढ़ाकर 31 मार्च 2009 कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक तिथि को आगे बढ़ाने का फैसला भारत सरकार का है। जाहिर है, इससे सीधे-सीधे देश के उन सारे बड़े किसानों को फायदा मिलेगा, जिन्होंने अभी तक पहली किश्त नहीं जमा की है।

2 मार्च को आम चुनावों की तिथि की घोषणा हो जाने के बाद देश में आचार संहिता लागू हो चुकी है। ऐसे में रिजर्व बैंक या किसी भी सरकारी संस्था की ऐसी घोषणा को आचार संहिता का उल्लंघन माना जाएगा जो आबादी के बड़े हिस्से को नया लाभ पहुंचाती हो। शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत कहते हैं कि साढ़े पांच महीने से केंद्र सरकार सोई हुई थी क्या? चुनावों की तिथि घोषित हो जाने के बाद वित्त मंत्रालय की पहले पर की गई यह घोषणा सरासर आचार संहिता का उल्लंघन है। आदित्य बिड़ला समूह के प्रमुख अर्थशास्त्री अजित रानाडे कहते है कि वैसे तो रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्था है। लेकिन चूंकि अधिसूचना में भारत सरकार के फैसले का जिक्र किया गया है, इसलिए यकीनन यह चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है।

असल में केंद्र सरकार की कर्जमाफी योजना के तहत पांच एकड़ से कम जमीन वाले लघु व सीमांत किसानों को 31 मार्च 1997 के बाद 31 मार्च 2007 तक वितरित और 31 दिसंबर 2007 को बकाया व 29 फरवरी 2008 तक न चुकाए गए सारे बैंक कर्ज माफ कर दिए थे। लेकिन पांच एकड़ से ज्यादा जोतवाले किसानों को कर्ज में 25 फीसदी की राहत दी गई थी। इस कर्ज की रकम की व्याख्या ऐसी है कि इसकी सीमा में ऐसे किसानों के सारे कर्ज आ सकते हैं। वित्त मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक इन किसानों के लिए कर्ज छूट की रकम या 20,000 रुपए में से जो भी ज्यादा होगा, उसका 25 फीसदी हिस्सा माफ कर दिया जाएगा। लेकिन यह माफी तब मिलेगी, जब ये किसान अपने हिस्से का 75 फीसदी कर्ज चुका देंगे। इसकी भरपाई बैंकों को केंद्र सरकार की तरफ से की जाएगी। दूसरे शब्दों में 30 जून 2009 तक बड़े किसानों द्वारा कर्ज की 75 फीसदी रकम दे दिए जाने के बाद उस कर्ज का बाकी 25 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार बैंकों को दे देगी।

रिजर्व बैंक ने सोमवार, 23 मार्च को जारी अधिसूचना में कहा है कि समयसीमा केवल 31 मार्च तक बकाया किश्तों के लिए बढ़ाई गई है और तीसरी व अतिम किश्त के लिए निर्धारित 30 जून 2009 की समयसीमा में कोई तब्दीली नहीं की गई है। तब तक अदायगी न होने पर बैंकों को ऐसे कर्ज को एनपीए में डाल देना होगा और उसके मुताबिक अपने खातों में प्रावधान करना होगा.

(अनिल रघुराज)

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आई. आई. टी. खड़गपुर - कहाँ से कहाँ तक

IIT-KGP अब बाजारवाद का शिकार बन कर रह गया है...... भाँति-भाँति के courses शुरू तो किये गए और किए जा रहे हैं पर बात-बात में अपने को Premier Institute बताने वाला यह संस्थान अभी भी मूलभूत आवश्यकताओं से ही जूझ रहा है. यहाँ के प्रबंधन में अब राजनैतिक प्रभाव अधिक हो गया है. जिसे संस्थान और छात्रों से अधिक अपने विकास की चिंता है. गत २ वर्षों में जितने भी निर्णय लिये गये उनमें से अधिकतर यहाँ छात्र जीवन में बाधक ही प्रमाणित हुये हैं. जिसका प्रभाव छात्रों के विकास पर पड़ रहा है. अभी हाल ही में घटी घटनायें इन सबका प्रमाण हैं. राजनेताओं की भाँति यहाँ के क्षत्रप भी लीपा-पोती में लगे हुये हैं.

पर इन सबके पीछे एक बात स्प्ष्ट दिख रही है..... आगामी चुनाव तक स्थिति को कैसे भी काबू में रखा जाए.

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एक सप्ताह बाद

Mr. Muthuraman (Chairman, BOG) came to meet the students regarding Rohit's death - what caused it and what followed it. He has not taken any decision yet but has assured us on the following points:

1: An enquiry committee headed by a person who does not have any connection with the institute.
2: Proper medical and health care facilities to be put up in KGP in collaboration with the industries in the area.
3: Filing of FIR by the institute regarding the event.
4: Assessment of BCRTH by Dr. AK Ray from Tata Main Hosp. Jamshedpur.

He asked us for our faith in him regarding the removal of the director and DOSA. Alumni support as expressed on websites and emails presented are with the director. But he said that the decision would be his and only his - without any outside pressure.

Regarding Tomar: He was clear that he was in favour of just one event getting investigated i.e. Rohit. He did not know of any other events such as that of Tomar or Mithun.

I believe that what is to come will not be what we are fighting for - other than the hospital. But there is some hope - we have given him proofs for the BCRTH issue getting raised time and again since 2005 and the administration's deaf ear to it.

I suggest that we wait for a verdict from Mr. Muthuraman on the resignations and the enquiry committee that he shall now constitute.

(Shreyas Ashok Karkhedkar से साभार)
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