20091207

छह विद्रोही युवाओं से शुरु हुई थी उल्फा

बीते 30 साल से पूर्वोत्तरी राज्य में आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असम [उल्फा] की शुरुआत छह विद्रोही युवाओं के साथ हुई थी जो 1979 में संप्रभु और समाजवादी असम की विचारधारा की पैरवी करते थे.
वर्ष 1979 के वसंत में रंगाली बीहू [फसल कटाई से जुड़े उत्सव] से कुछ दिन पहले छह युवकों ने असम के शिवसागर जिले के रंगघर में मुलाकात की। यहीं से उन्होंने सशस्त्र विद्रोह संयुक्त मुक्ति वाहिनी असम यानी यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असम की शुरुआत की। उस वर्ष सात अप्रैल के दिन राजीव राजकुंवर उर्फ अरविंद राजखोवा, परेश बरुआ, समीरन गोगोई उर्फ प्रदीप गोगोई, गोलाप बरुआ उर्फ अनूप चेतिया और भद्रेश्वर गोहैन ने अपने मामा भीमकांत बुरूगोहैन के साथ उल्फा की भविष्य की विध्वंसकारी गतिविधियों का खुलासा किया.

राजखोवा संगठन का अध्यक्ष बन गया, वहीं बरूआ को सशस्त्र इकाई का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई। तीस साल के भीतर कई हिंसक गतिविधियों के बाद बरूआ का साथ छोड़कर उल्फा के सभी संस्थापक सदस्य अब हिरासत में हैं.

उल्फा के उपाध्यक्ष प्रदीप गोगोई को आठ अप्रैल 1998 को गिरफ्तार किया गया। वह गुवाहाटी की केंद्रीय जेल में न्यायिक हिरासत में है। उल्फा महासचिव अनूप चेतिया को ढाका में 21 दिसंबर 1997 को गिरफ्तार किया गया। वह अब भी बांग्लादेश में हिरासत में है। भीमकांत को दिसंबर 2003 में भूटान में हुए एक अभियान के दौरान गिरफ्तार किया गया। वह अभी सोनीतपुर की तेजपुर जेल में है। चार दिसंबर को राजखोवा और उसके उप सी इन सी राजू बरूआ को सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने गिरफ्तार किया। अब वह असम पुलिस की हिरासत में है.

सूत्रों का कहना है कि पड़ोसी देशों विशेषकर बांग्लादेश में अपना जाल फैला चुके उल्फा ने संगठन चलाने के लिए असम में बंदूक के बल पर अवैध वसूली की गतिविधियां शुरू कीं। इसी से उसने अपने सदस्यों को म्यांमार में काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी से प्रशिक्षण दिलाने के लिए भुगतान किया। कहा जाता है कि म्यांमार की सेना हर एक सदस्य को प्रशिक्षित करने के लिए भारतीय मुद्रा में एक लाख रुपये लेती थी। उन्होंने कहा कि वर्ष 1983 के बाद से उल्फा ने बांग्लादेश में कई शिविर स्थापित किए। उसने आमदनी बढ़ाने के लिए ढाका में कई गतिविधियों को अंजाम दिया। इन गतिविधियों में शीत पेय निर्माण की इकाइयां, मीडिया सलाहकार सेवाएं, तीन होटल, दो मोटर ड्राइविंग स्कूल और एक निजी स्वास्थ्य अस्पताल की स्थापना शामिल है.

कहा जाता है कि बरूआ का खुद का चमड़ा बनाने का कारखाना, ट्रेवल एजेंसियां, डिपार्टमेंटल स्टोर की श्रृंखला, कपड़ा बनाने के कारखाने, मछली पकड़ने के जहाज और परिवहन तथा निवेश कंपनियां हैं। उल्फा ने अपनी गतिविधियों को और विस्तार दिया। उसने मुस्लिम यूनाइटेड टाइगर्स ऑफ असम और मुस्लिम यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असम की मदद से भारत में हथियारों की तस्करी करने से पहले उसकी खेप बांग्लादेश में हासिल की। उसने पाकिस्तान की आईएसआई और अफगान मुजाहिदीन से भी कथित तौर पर संपर्क साधा। उसने अपने 200 सदस्यों को खुफिया प्रतिरोध और अत्याधुनिक हथियार तथा विस्फोटक चलाने का प्रशिक्षण दिलाया.

उल्फा आतंकियों ने कई मौकों पर दावा किया कि संगठन ने दक्षिण पूर्वी एशिया से म्यांमार में हथियारों के परिवहन और अपने सदस्यों को विस्फोटकों के बारे में प्रशिक्षण दिलाने के लिए लिट्टे के साथ भी करीबी संपर्क स्थापित किया था.
(दैनिक जागरण)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

पत्थरों के गढ़ में माफिया पर हासिल की फतह

झोपड़ियों की ऊबड़ खाबड़ कतार के बीच पत्थर चुन कर घेरी गई दीवारों पर पालीथीन डाल कर बनाया गया घर। बाहर सभी ओर पत्थरों का फैलाव। दूर दूर तक बिजली या अन्य आधुनिक कही जाने वाली सुविधाओं का पूरी तरह अभाव।
यह है वयोवृद्ध दुईजी दाई का संसार। चारो तरफ बिखरे पड़े पत्थरों के बीच बैठी वयोवृद्ध महिला को देख कर यह अहसास करना मुश्किल है कि कुछ वर्ष पूर्व यही महिला शांति के नोबल पुरस्कार के लिए विश्व के कुछ चुनिंदा लोगों की सूची में नामांकित हुई थी.

यह दुईजी दाई हैं। मूलत: बांदा जिले के बड़गढ़ क्षेत्र के कटइया डांडी-मनिका की निवासी दुईजी दाई को गरीबी इलाहाबाद के शंकरगढ़ ब्लाक स्थित जूही ग्राम सभा के कोठी मजरे तक खींच लाई थी। पर यहां भी खनन के क्षेत्र में काबिज माफियाओं के चलते दस बच्चों को पालने में समस्या बनी रही।
पूरी तरह अनपढ़ दुईजी दाई के शब्दों में 'आठ रोज पत्थर तोड़ी ता 200 रुपइया बतावैं, पर मांगै पर सौ रुपइया दइदें। हफ्ते भर बाद फिर मांगै जांव तो दुईसौ रुपइया के पेशगी बता दें। अइसे हम गरीब से कर्जदार बन गए.'

इस कठिन परिस्थिति के बीच दुईजी देवी ने महिलाओं को संगठित करना और परिस्थितियों के खिलाफ लड़ना शुरू किया। लंबी लड़ाई के बाद वर्ष 2003 में दुईजी दाई के महिला दल को पत्थर खनन का पंट्टा मिला। इसी के साथ शंकरगढ़ की पहाड़ियों पर रहने वाले आदिवासियों विशेष कर महिलाओं को एक नई राह मिल गई। दर्जनों महिला समूहों ने पंट्टा लिया और यह सिलसिला आज भी जारी है।
दुईजी दाई के अनुसार लीज में आर्थिक रूप से तो नुकसान हुआ पर इसने नया सिलसिला शुरू कर दिया.

इस उपलब्धि पर उन्हें वर्ष 2006 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। इसके साथ ही विश्व भर में वह चर्चित हो गईं। यह अलग बात है कि इन सबसे दुईजी दाई की जिंदगी में कोई परिवर्तन नहीं आया। पर वह संतुष्ट हैं.

बिना छत के घर में रह रही दुईजी दाई अब समाज के अन्य बच्चों का ख्याल रख रही हैं। मध्याह्न भोजन योजना के तहत दो प्राथमिक व एक पूर्व माध्यमिक विद्यालय के बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन देने, स्कूल चलो अभियान के तहत मिलने वाली पुस्तकें, बैग व अन्य सहूलियतें उन तक पहुंचाने का कार्य कर रही हैं.
(दैनिक जागरण)
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