20091207

पत्थरों के गढ़ में माफिया पर हासिल की फतह

झोपड़ियों की ऊबड़ खाबड़ कतार के बीच पत्थर चुन कर घेरी गई दीवारों पर पालीथीन डाल कर बनाया गया घर। बाहर सभी ओर पत्थरों का फैलाव। दूर दूर तक बिजली या अन्य आधुनिक कही जाने वाली सुविधाओं का पूरी तरह अभाव।
यह है वयोवृद्ध दुईजी दाई का संसार। चारो तरफ बिखरे पड़े पत्थरों के बीच बैठी वयोवृद्ध महिला को देख कर यह अहसास करना मुश्किल है कि कुछ वर्ष पूर्व यही महिला शांति के नोबल पुरस्कार के लिए विश्व के कुछ चुनिंदा लोगों की सूची में नामांकित हुई थी.

यह दुईजी दाई हैं। मूलत: बांदा जिले के बड़गढ़ क्षेत्र के कटइया डांडी-मनिका की निवासी दुईजी दाई को गरीबी इलाहाबाद के शंकरगढ़ ब्लाक स्थित जूही ग्राम सभा के कोठी मजरे तक खींच लाई थी। पर यहां भी खनन के क्षेत्र में काबिज माफियाओं के चलते दस बच्चों को पालने में समस्या बनी रही।
पूरी तरह अनपढ़ दुईजी दाई के शब्दों में 'आठ रोज पत्थर तोड़ी ता 200 रुपइया बतावैं, पर मांगै पर सौ रुपइया दइदें। हफ्ते भर बाद फिर मांगै जांव तो दुईसौ रुपइया के पेशगी बता दें। अइसे हम गरीब से कर्जदार बन गए.'

इस कठिन परिस्थिति के बीच दुईजी देवी ने महिलाओं को संगठित करना और परिस्थितियों के खिलाफ लड़ना शुरू किया। लंबी लड़ाई के बाद वर्ष 2003 में दुईजी दाई के महिला दल को पत्थर खनन का पंट्टा मिला। इसी के साथ शंकरगढ़ की पहाड़ियों पर रहने वाले आदिवासियों विशेष कर महिलाओं को एक नई राह मिल गई। दर्जनों महिला समूहों ने पंट्टा लिया और यह सिलसिला आज भी जारी है।
दुईजी दाई के अनुसार लीज में आर्थिक रूप से तो नुकसान हुआ पर इसने नया सिलसिला शुरू कर दिया.

इस उपलब्धि पर उन्हें वर्ष 2006 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। इसके साथ ही विश्व भर में वह चर्चित हो गईं। यह अलग बात है कि इन सबसे दुईजी दाई की जिंदगी में कोई परिवर्तन नहीं आया। पर वह संतुष्ट हैं.

बिना छत के घर में रह रही दुईजी दाई अब समाज के अन्य बच्चों का ख्याल रख रही हैं। मध्याह्न भोजन योजना के तहत दो प्राथमिक व एक पूर्व माध्यमिक विद्यालय के बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन देने, स्कूल चलो अभियान के तहत मिलने वाली पुस्तकें, बैग व अन्य सहूलियतें उन तक पहुंचाने का कार्य कर रही हैं.
(दैनिक जागरण)
----------------------------------------------------------------------------------------------------
कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

No comments:

Post a Comment