मुम्बई पुलिस ने देश की नाक नीचे करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी. २६ नवंबर की काली रात को अपनी जान की बाजी लगाते हुए सदानंद दाते और उनके साथी एक घंटे (रात १२ बजे) तक control room से reinforcement भेजे जाने की भीख माँगते रहे थे, पर वहाँ कोई नहीं गया. समय रहते अगर सदानंद को सहायता मिली होती तो इस भयावहता को कम किया जा सकता था. इस हमले ने दिखा दिया कि पुलिस की विभिन्न सुरक्षा विभागों से कोई तालमेल ही नहीं है. पुलिस की इन अक्षमताओं का फ़ल मिला उन बहादुर सिपाहियों के परिवारों को उनकी जान गँवाकर.
और इन सब पर परदा डालने के लिये ही विनीता कामते को अभी भी पुलिस के call records की जानकारी नहीं दी गयी है.
पूरा पढ़ें: Slaughter House Files.
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
ये जो अपना INDIA है ना, बड़ी ही अज़ीब जगह है. जो कोई विदेशी यहाँ आता है तो नतमस्तक हो जाता है और हम सब, हम सब यानी यहाँ के निवासी, इसके मस्तक को नत करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते.
20090612
मुम्बई हमले के समय पुलिस की निष्क्रियता
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20090609
गरीबी मिटाने का नया नारा
विश्व बैंक की ओर से जारी की गई ताजी रिपोर्ट मनमोहन सिंह सरकार के दावों के विपरीत गरीबी की भयावहता को उजागर करती है. पहले भी यह दावा किया जाता रहा कि कांग्रेस की सरकार के दौरान गरीबी घटी है और व्यापक आर्थिक विकास हुआ है और अब एक बार फिर संप्रग सरकार के एजेंडे के रूप में गरीबी के उन्मूलन का संकल्प व्यक्त किया जा रहा है. इसमें संदेह नहीं कि देश का विकास हुआ है, लेकिन विकास की दर जब नौ फीसदी से ज्यादा थी तब भी देश के ८४ करोड़ लोगों को बीस रुपए रोज भी नहीं मिल रहे थे. यह कोई विपक्षी दलों का आरोप नहीं है, बल्कि सरकार के बनाए अर्जुन सेन गुप्त आयोग की रिपोर्ट है. अब खुद विश्व बैंक ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि उदारवादी विकास के इन वर्षो में बेरोजगारी और कुल गरीबी बढ़ती गई है.
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट 'ग्लोबल इकोनामिक प्रास्पेक्ट्स फार 2009' में यह चेतावनी दी गई है कि 2015 में भारत की एक चौथाई आबादी चरम निर्धनता की शिकार हो जाएगी. इस रिपोर्ट के अनुसार 1990 से 2005 के बीच भारत में घोर गरीबी के शिकार लोगों में लगभग दो करोड़ की वृद्धि हुई. इस अवधि के दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री, आर्थिक सलाहकार और फिर प्रधानमंत्री रहे. कांग्रेस ने उन्हें दोबारा प्रधानमंत्री बनाया है. राहुल गांधी कहते हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों में बहुत सी समानताएं हैं. मतभेद सिर्फ विचारधारा के हैं. वे विकास में विश्वास नहीं रखते, हम उसे जरूरी मानते हैं. वह राजीव गांधी की उस बात को भी दोहराते हैं कि दिल्ली से भेजे गए एक रुपए में से गरीब तक सिर्फ दस पैसे पहुंच पाते हैं. राजीव गांधी ने 15 पैसे बताए थे. इस दौरान पांच पैसे और कम हो गए. राहुल गांधी के अनुसार यह हमारी वितरण प्रणाली के कारण है. हमारे विशालकाय प्रशासनिक ढांचे को जब तक ठीक नहीं किया जाएगा यह गड़बड़ी चलती रहेगी। पर यह ठीक कैसे होगा?
संप्रग ने सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर 55 समितियां बनाईं, जिनमें कुछ के अध्यक्ष तो प्रधानमंत्री थे, लेकिन फिर भी कुछ नहीं बदला. कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग ने 12 रपट पेश कीं, लेकिन कोई नहीं जानता कि उनमें से कोई लागू की गई या नहीं?
असली समस्या यह है कि व्यवस्था ने खुद को जवाबदेही से बचा रखा है. विशेषज्ञों की भी राय है कि मुद्दा पैसे का नहीं, बल्कि सुझावों पर अमल का है. सुधारों का अभाव हर क्षेत्र में महसूस किया जा रहा है-सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के मामले में ही नहीं, बल्कि सुरक्षा के संदर्भ में भी. इससे अधिक निराशाजनक कुछ और नहीं कि सुधारों की बातें तो रह-रहकर विभिन्न मंचों से सुनाई देती रहती हैं, लेकिन वे बस सुझावों और संकल्पों तक सीमित हैं.
यदि अगले कुछ दशकों में हमारे श्रमिक बल में शामिल होने वाले 27 करोड़ नए लोग आजीविका, रोजगार, कार्यकौशल और शिक्षा से वंचित रहेंगे तो हमें भारी सामाजिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ सकता है. हमारे पास दस लाख से अधिक आबादी वाले फिलहाल 27 शहर हैं. असंगठित क्षेत्र में 93 प्रतिशत श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है. 50 प्रतिशत श्रमिक स्वरोजगार में लगे हैं लेकिन यह ऐसी उद्यमिता नही है जो रोजगार और दौलत पैदा कर सके. हमारे 1400 रोजगार दफ्तरों ने चार करोड़ पंजीकृत लोगों में से केवल दो लाख को रोजगार दिया. यह आवश्यक है कि सर्व शिक्षा अभियान में धन को छात्रों की शिक्षा के बजाय नतीजे से और नरेगा में कौशल, प्रशिक्षण से जोड़ा जाए. आज 30 करोड़ लोग न पढ़ सकते हैं, न उनमें कार्यकौशल है, लेकिन अपनी व्यवस्था बदलकर हम सोलह करोड़ लोगों को अगले 20 साल में गरीबी से बचा सकते हैं. सुधार की इस प्रक्रिया की पहल के लिए सरकार को अपने एजेंडे को केंद्रीकृत बनाना होगा ताकि स्कूली, व्यावसायिक और उच्चतर शिक्षा में खामियों को दूर किया जा सके. संप्रग सरकार को दीर्घकालीन परिवर्तनों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रणाली में सुधार की पहल करनी होगी. तभी हम ज्ञान की वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्पर्धा कर सकते हैं.
यह कम चिंता की बात नहीं है कि आजादी के 62 सालों के बाद भी हम अपने बुनियादी ढांचे का सही तरह विकास नहीं कर पाए हैं. दरअसल समस्या यह है कि हमने फैसले लेने के कई स्तर और कई एजेंसियां स्थापित कर दी हैं. कोई भी काम करने के लिए हमें कई मंजूरियां लेनी पड़ती हैं. होता यह है कि सरकार कुछ करने के लिए कोई फैसला लेती है और मामला मंजूरी के लिए जाता है. हर विभाग संभवत: अपने अहं के चलते पूरी परियोजना पर ही सवाल उठा देता है और सरकार का फैसला उलट जाता है. हमारे पास विचार हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि उन पर अमल कैसे किया जाए? इस गड़बड़झाले से मुक्ति पानी चाहिए. असल में हमें नेतृत्व की जरूरत है -सिर्फ राजनीति में नहीं, बल्कि प्रशासन में भी जिम्मेदार और जवाबदेह व्यवस्था बनाए जाने की आवश्यकता है. ग्रामीणों को रोजगार का प्रशिक्षण और सहायता देकर हम गरीबी और भुखमरी को मिटा सकते हैं.
नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने बांग्लादेश के गांवों में बैंक खोलकर जरूरतमंदों को जरूरी सहायता माइक्रो फाइनेसिंग के जरिए देकर कई गांवों की तस्वीर बदल दी है. भारत में भी नीड जैसी कुछ संस्थाएं यह काम कर सकती हैं. इसका विस्तार किया जाना चाहिए-खासकर उन क्षेत्रों में जहां ज्यादा गरीबी है और रोजगार के अवसर नहीं हैं. हुनर सिखाकर और आवश्यक मदद देकर जब किसी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाया जाता है तो उसमें अलग किस्म का आत्मविश्वास पैदा होता है और वह देश के लिए बोझ नहीं, बल्कि उत्पादन में भागीदार बन जाता है. क्या मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया का योजना आयोग यह काम कर पाएगा? यह कांग्रेस और उसकी गठबंधन सरकार को तय करना है कि वह देश में गरीबी और भुखमरी कैसे मिटाएगी?
(निरंकार सिंह)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट 'ग्लोबल इकोनामिक प्रास्पेक्ट्स फार 2009' में यह चेतावनी दी गई है कि 2015 में भारत की एक चौथाई आबादी चरम निर्धनता की शिकार हो जाएगी. इस रिपोर्ट के अनुसार 1990 से 2005 के बीच भारत में घोर गरीबी के शिकार लोगों में लगभग दो करोड़ की वृद्धि हुई. इस अवधि के दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री, आर्थिक सलाहकार और फिर प्रधानमंत्री रहे. कांग्रेस ने उन्हें दोबारा प्रधानमंत्री बनाया है. राहुल गांधी कहते हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों में बहुत सी समानताएं हैं. मतभेद सिर्फ विचारधारा के हैं. वे विकास में विश्वास नहीं रखते, हम उसे जरूरी मानते हैं. वह राजीव गांधी की उस बात को भी दोहराते हैं कि दिल्ली से भेजे गए एक रुपए में से गरीब तक सिर्फ दस पैसे पहुंच पाते हैं. राजीव गांधी ने 15 पैसे बताए थे. इस दौरान पांच पैसे और कम हो गए. राहुल गांधी के अनुसार यह हमारी वितरण प्रणाली के कारण है. हमारे विशालकाय प्रशासनिक ढांचे को जब तक ठीक नहीं किया जाएगा यह गड़बड़ी चलती रहेगी। पर यह ठीक कैसे होगा?
संप्रग ने सत्ता में आने के आठ महीने के भीतर 55 समितियां बनाईं, जिनमें कुछ के अध्यक्ष तो प्रधानमंत्री थे, लेकिन फिर भी कुछ नहीं बदला. कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में प्रशासनिक सुधार आयोग ने 12 रपट पेश कीं, लेकिन कोई नहीं जानता कि उनमें से कोई लागू की गई या नहीं?
असली समस्या यह है कि व्यवस्था ने खुद को जवाबदेही से बचा रखा है. विशेषज्ञों की भी राय है कि मुद्दा पैसे का नहीं, बल्कि सुझावों पर अमल का है. सुधारों का अभाव हर क्षेत्र में महसूस किया जा रहा है-सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के मामले में ही नहीं, बल्कि सुरक्षा के संदर्भ में भी. इससे अधिक निराशाजनक कुछ और नहीं कि सुधारों की बातें तो रह-रहकर विभिन्न मंचों से सुनाई देती रहती हैं, लेकिन वे बस सुझावों और संकल्पों तक सीमित हैं.
यदि अगले कुछ दशकों में हमारे श्रमिक बल में शामिल होने वाले 27 करोड़ नए लोग आजीविका, रोजगार, कार्यकौशल और शिक्षा से वंचित रहेंगे तो हमें भारी सामाजिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ सकता है. हमारे पास दस लाख से अधिक आबादी वाले फिलहाल 27 शहर हैं. असंगठित क्षेत्र में 93 प्रतिशत श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है. 50 प्रतिशत श्रमिक स्वरोजगार में लगे हैं लेकिन यह ऐसी उद्यमिता नही है जो रोजगार और दौलत पैदा कर सके. हमारे 1400 रोजगार दफ्तरों ने चार करोड़ पंजीकृत लोगों में से केवल दो लाख को रोजगार दिया. यह आवश्यक है कि सर्व शिक्षा अभियान में धन को छात्रों की शिक्षा के बजाय नतीजे से और नरेगा में कौशल, प्रशिक्षण से जोड़ा जाए. आज 30 करोड़ लोग न पढ़ सकते हैं, न उनमें कार्यकौशल है, लेकिन अपनी व्यवस्था बदलकर हम सोलह करोड़ लोगों को अगले 20 साल में गरीबी से बचा सकते हैं. सुधार की इस प्रक्रिया की पहल के लिए सरकार को अपने एजेंडे को केंद्रीकृत बनाना होगा ताकि स्कूली, व्यावसायिक और उच्चतर शिक्षा में खामियों को दूर किया जा सके. संप्रग सरकार को दीर्घकालीन परिवर्तनों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रणाली में सुधार की पहल करनी होगी. तभी हम ज्ञान की वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्पर्धा कर सकते हैं.
यह कम चिंता की बात नहीं है कि आजादी के 62 सालों के बाद भी हम अपने बुनियादी ढांचे का सही तरह विकास नहीं कर पाए हैं. दरअसल समस्या यह है कि हमने फैसले लेने के कई स्तर और कई एजेंसियां स्थापित कर दी हैं. कोई भी काम करने के लिए हमें कई मंजूरियां लेनी पड़ती हैं. होता यह है कि सरकार कुछ करने के लिए कोई फैसला लेती है और मामला मंजूरी के लिए जाता है. हर विभाग संभवत: अपने अहं के चलते पूरी परियोजना पर ही सवाल उठा देता है और सरकार का फैसला उलट जाता है. हमारे पास विचार हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि उन पर अमल कैसे किया जाए? इस गड़बड़झाले से मुक्ति पानी चाहिए. असल में हमें नेतृत्व की जरूरत है -सिर्फ राजनीति में नहीं, बल्कि प्रशासन में भी जिम्मेदार और जवाबदेह व्यवस्था बनाए जाने की आवश्यकता है. ग्रामीणों को रोजगार का प्रशिक्षण और सहायता देकर हम गरीबी और भुखमरी को मिटा सकते हैं.
नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने बांग्लादेश के गांवों में बैंक खोलकर जरूरतमंदों को जरूरी सहायता माइक्रो फाइनेसिंग के जरिए देकर कई गांवों की तस्वीर बदल दी है. भारत में भी नीड जैसी कुछ संस्थाएं यह काम कर सकती हैं. इसका विस्तार किया जाना चाहिए-खासकर उन क्षेत्रों में जहां ज्यादा गरीबी है और रोजगार के अवसर नहीं हैं. हुनर सिखाकर और आवश्यक मदद देकर जब किसी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाया जाता है तो उसमें अलग किस्म का आत्मविश्वास पैदा होता है और वह देश के लिए बोझ नहीं, बल्कि उत्पादन में भागीदार बन जाता है. क्या मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया का योजना आयोग यह काम कर पाएगा? यह कांग्रेस और उसकी गठबंधन सरकार को तय करना है कि वह देश में गरीबी और भुखमरी कैसे मिटाएगी?
(निरंकार सिंह)
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