अपनी तिकड़मों और पहुंच के ज़रिए हर सरकारी ताले को खोलने की क्षमता और हर लाल फीते की काट रखने वाले असरदार लोगों की सर्वव्यापी मगर अदृश्य दुनिया...शांतनु गुहा रे की रिपोर्ट .
पिछले महीने का एक शांत मंगलवार. मध्य दिल्ली के एक पांच सितारा होटल की सबसे ऊपरी मंज़िल. रेस्टोरेंट की दर्जनों मेजों में से सिर्फ चार पर ही लोग नज़र आ रहे हैं. एक मेज पर एक पूर्व वरिष्ठ संपादक एक बड़े कैबिनेट मंत्री के साथ लंच कर रहे हैं. दूसरी पर दिल्ली सरकार के एक संकटमोचक और धन का जुगाड़ करने वाले व्यापारी जमे हुए हैं. तीसरे पर एक प्रभावशाली व्यक्ति और वरिष्ठ राजनेता के बीच गुपचुप बातचीत चल रही है. सिर्फ चौथी मेज ही भोजन के मकसद से यहां आई महिलाओं से भरी है.
एक ऐसे शहर में, जहां घात और प्रतिघात का खेल चलता ही रहता हो, जहां फाइल पर एक छोटी सी टिप्पणी लाखों-करोड़ों का हेर-फेर करा सकती हो, और जहां सत्ता की कुंजियां कई तरह से घुमाई जा सकती हों, ये एक ऐसा नज़ारा है जो अक्सर कई जगहों पर देखा जा सकता है. दिल्ली जिमखाना क्लब, ओबेरॉय और ताज होटल के निजी क्लबों, दिल्ली गोल्फ क्लब की हरियाली या फिर जाड़ों में इंपीरियल होटल की कॉफीशॉप के बरामदे में ऐसे नज़ारे एक आम सी बात हैं.असरदार लोगों की इस दुनिया में आपका स्वागत है. पुरुषों और महिलाओं की एक ऐसी छोटी सी प्रजाति जिसे अच्छी तरह से पता है कि सत्ता को साधे बिना पैसे से पैसा नहीं बन सकता और सत्ता साधने के कई तरीके हैं. बातें बनाने से लेकर, जितना ज़रूरी उतना दबाव, मीडिया का इस्तेमाल, जनहित की झूठी-सच्ची कहानियां, करीबियों के ज़रिये सेंध और इस सबके ऊपर ब्रह्मास्त्र यानी कि निजी लाभ का प्रलोभन तक सब कुछ इसमें शामिल है.
अमेरिका या फिर दुनिया के कई और दूसरे हिस्सों में सत्ता के ऐसे साधकों को वैधता मिली हुई है. वहां इसे लॉबीइंग कहा जाता है. घात-प्रतिघात की बजाय वहां सरकार के निर्णय तंत्र पर लॉबीइंग और इसकी काट का प्रभाव साफ देखा जा सकता सकता है. मगर भारत में स्थितियां ऐसी नहीं हैं. ऊपरी मंज़िल पर मौजूद लंच कर रहे लोग खुद को सुने जाना तो चाहते हैं मगर हर किसी के द्वारा नहीं.
हाल के दिनों तक भारत में लॉबीइंग सिर्फ संदिग्ध ही नहीं थी बल्कि इसकी सामाजिक स्वीकार्यता भी नहीं थी. इसे हर्षद मेहता जैसे बड़े दलालों और उनके नोटों से भरे सूटकेसों के रूप में देखा जाता था मगर अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं. आज सूटकेसों के रंगरूप बदल चुके हैं और केवल ये ही पर्याप्त भी नहीं रहे. आज प्रभावकारी होने के लिए एक योजना का होना भी बेहद बहुत जरूरी है, एक ऐसा व्यावसायिक प्रस्ताव जिसमें देश और उपभोक्ताओं के हितों का पाठ भी शामिल हो. एक झूठा पाठ!
ये खेल अब पूरी तरह से पेशेवर लोगों का बन गया है. तिकड़म के इस खेल के माहिर लोगों को पता है कि असर सबसे बढ़िया तब होता है जब इसकी कोशिशें अप्रत्यक्ष तरीकों से की गई हों और ये कोशिशें महत्वपूर्ण लोगों के साथ खाने, पार्टियों और गोल्फ के खेल के दौरान की जाती हैं. मीडिया को भी इसमें इस्तेमाल किया जाता है, खबरों की आड़ में अपने हितों को सामने रखकर.
और ऐसा किसी के लिए फ्री में नहीं किया जाता. इसके लिए डेढ़ लाख डॉलर सालाना से लेकर उपयोगिता के हिसाब से कुछ भी रकम वसूली जा सकती है. तिकड़मबाजी अब भारत में अपयश की वजह नहीं रही...परफेक्ट रिलेशन के कंसल्टिंग पार्टनर दिलिप चेरियन कहते हैं, “अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले बहुत से लोग लॉबीइंग को बेहतरीन तरीके से अंजाम देते हैं. आज लॉबीइंग के लिए चैंबर ऑफ कामर्स मौजूद हैं, वकील हैं, चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, सेवानिवृत्त नौकरशाह हैं जो नीति निर्धारकों को पटाने के काम में लगे रहते हैं.”
ये बात चेरियन से अच्छी तरह कौन समझ सकता है. वो इस काम को देश में स्थापित करने वाले शुरुआती लोगों में से एक हैं. उन्होंने शिबू सोरेन के लिए इस काम की शुरुआत की थी जो उस समय संसद सदस्य थे. शुरुआत में चेरियन उद्योग मंत्रालय से जुड़े ब्यूरो ऑफ इंडस्ट्रियल कॉस्ट में परामर्श सेवाएं दिया करते थे जिससे उन्हें भारतीय नौकरशाही को गहराई से समझने और लंबे चौड़े स्तर पर लोगों से संपर्क बनाने का मौका मिला. बाद में वे ‘बिजनेस इंडिया’ और ‘बिज़नेस एंड पॉलिटिकल ऑब्ज़र्वर’ के संपादक रहे जिसने उनके रसूख को और भी मजबूत बना दिया.
एक लॉबीइस्ट और मीडिया मैनेजर के रूप में चेरियन की सबसे बड़ी सफलता रही ब्रिटिश अमेरिकन टुबैको (बीएटी) द्वारा आईटीसी के अधिग्रहण को नाकाम करना. लोगों की सोच को प्रभावित करने की मीडिया में चली लड़ाई में उनकी कंपनी परफेक्ट रिलेशन ने अपनी विरोधी और बीएटी द्वारा अनुबंधित एजेंसी गुड रिलेशन के हर दांव को लगातार मात दी. जैसा कि बिज़नेस स्टैंडर्ड ने साफ शब्दों में लिखा कि सिर्फ “गुड” होना ही पर्याप्त नहीं है आपको “परफेक्ट” होना पड़ेगा.चेरियन भले ही इस बारे में कुछ न बोलें कि किस तरह से उनकी टीम ने फाइलों को सत्ता के गलियारों में सफलता से आगे बढ़ाया लेकिन दिग्गज यूरोपियन पैकेजिंग कंपनी टेट्रा पैक (जो कच्चे सामान के आयात करों में कटौती चाहती थी) के लिए की गई उनकी कोशिशें अख़बारों की ख़बरों में अच्छी तरह से क़ैद हैं. एक तरफ उनके आदमी करों में कटौती के लिए लॉबीइंग कर रहे थे तो दूसरी तरफ चेरियन दूध विक्रेताओं को उकसा रहे थे कि वो अपने सांसदों के जरिये सरकार पर गत्ते के डब्बों के दामों में कटौती का दबाव बनाएं. वित्त मंत्रालय के पास पिघलने के अलावा कोई चारा नहीं था.
इस बारे में पूछने पर चेरियन मुस्करा कर सिर्फ ये कहते हैं, “इस तरह के काम के प्रभाव को सबसे बढ़िया तरीके से उड्डयन क्षेत्र में देखा जा सकता है. कई साल पहले एक विदेशी एयरलाइन को भारत में आने से रोकने के लिए की गई लॉबीइंग ने भारत सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव करने के लिए मजबूर कर दिया था.” साफ तौर पर उनका इशारा टाटा-सिंगापुर एयरलाइंस गठजोड़ की ओर था जो 90 के दशक की शुरुआत में सिर्फ इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि ये एक निजी ऑपरेटर के हितों के खिलाफ था.
असरकारी लोगों और उनके ग्राहकों का मकसद अक्सर नियामक कानूनों में परिवर्तन करवाना होता है लेकिन इसके लिए सबसे अहम है मीडिया और उससे मिले जनसमर्थन के जरिये माहौल को अपने पक्ष में बनाना. संकर बीजों को लेकर भारतीय बाज़ार में प्रवेश करते वक्त मॉनसैन्टो को इस बात की पूरी जानकारी थी. इसलिए शुरुआती चरण में ही उन्होंने एक जनसंपर्क संस्था की सेवाएं लीं. उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए एक ज़ोरदार अभियान छेड़ा. इटालियन फैशन कंपनी ‘एरमैनगिल्डो ज़ेग्ना’ को लॉबीइंग की अहमियत तब समझ आयी जब पहली बार वाणिज्य मंत्रालय ने भारत में बुटीक खोलने की उनकी अर्जी ठुकरा दी थी. हालांकि बाद में भूलसुधार करने पर उन्हें इसकी अनुमति दे दी गई.
माहौल तैयार करने के इस खेल में चेरियन माहिर हैं. आदर्श संबंध बनाने की गूढ़ कला की समझ में उनका कोई सानी नहीं है. राजधानी में लगे हर सरकारी ताले की मास्टरचाबी उनके पास है. राजस्थान के सांसद अपने राजनीतिक विरोधियों को मात देने के लिए उनके पास आते हैं, होटल मालिक अपनी परियोजनाओं की सफलता के लिए उनकी मदद मांगते हैं और रक्षा उपकरण, निर्माण, हाइड्रोकार्बन व शराब क्षेत्र से जुड़े दिग्गज नीतियों को अपने हित में मोड़ने के लिए उनकी मदद की आस लगाते हैं.हाल ही में बीआरटी कॉरीडोर की असफलता के बाद पिटी भद्द से परेशान दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अपनी छवि चमकाने के लिए इसी संकटमोचक की सेवाएं ली हैं.
चेरियन को इस बात की भी अच्छी समझ है कि अक्सर लोगों को सिर्फ एक दूसरे से मिलाने भर से काम हो जाता है. अगर कोई किसी से मिलना चाहता है या फिर दिल्ली की ऊंची सोसाइटी में प्रवेश करना चाहता है तो ऐसा करने की जादुई छड़ी चेरियन के पास है. उनकी पहचान ऐसे व्यक्ति के रूप में है जो घर का बना एक सैंडविच खाकर सोने से पहले शहर की पांच अलग अलग पार्टियों में शामिल होता है.फिर भी चेरियन या उन जैसे लोगों का एक पूरा झुंड रिलांयस के वी बालासुब्रमण्यम, शंकर अडवाल और एएन सेतुरामन की तिकड़ी के आगे अपनी चमक खो देता है.
वी बालासुब्रमण्यम उर्फ बालू एक समय अविभाजित रिलांयस के लिए इस तिकड़ी का नेतृत्व कर चुके हैं. 70 के दशक में बालू करोलबाग स्थित अपने घर से धारांगंधा चीनी मिल तक-- जहां वो एक छोटे से मैनेजर थे-- साइकल से आते-जाते थे. धीरूभाई अंबानी की पारखी नजर ने उनकी प्रतिभा को पहचान उन्हें साउथ और नॉर्थ ब्लॉक के नौकरशाहों के साथ तालमेल बिठाने की जिम्मेदारी सौंप दी. इनमें तमिल ब्राह्मणों की बहुलता थी और इसी वजह से बालू इस काम के लिए बिल्कुल मुफीद थे. वो अलफांसो आम के बक्से और गुलाब के गुलदस्तों के साथ नियमित रूप से मंत्रियों से मिला करते थे. उनकी इस कार्यकुशलता ने उन्हें रिलायंस इंडस्ट्रीज़ का ग्रुप प्रेसीडेंट बना दिया.
बाकी सब इतिहास का हिस्सा है. वो धीरूभाई के सबसे वफादार लोगों में शुमार थे. एक ऐसा आदमी जो धड़ल्ले से तमिल, कामचलाऊ अंग्रेज़ी और द्विअर्थी हिंदी बोलता था. अक्सर यूएनआई की कैंटीन में दो रूपए वाला दोसा खाने वाले इस शख्स के सटीक व्यवहारकौशल ने नुस्ली वाडिया, टाटा और दूसरे विरोधियों से आगे निकलने में अंबानी परिवार की सहायता की. सत्ता की कुंजियों पर उनकी मजबूत पकड़ की कहानियां मिसाल बन चुकी हैं.
उस जमाने की एक मशहूर पत्रिका संडे ने एक बार एक सनसनीखेज स्टोरी प्रकाशित की थी. इसमें कहा गया था कि वित्त मंत्रालय ने बालू के बजट पूर्व सुझावों को जस का तस वित्तमंत्री के संसद में दिए गए भाषण में लगा दिया. दबी जुबान में चर्चा होती थी कि मेरीडियन टॉवर की पांचवीं मंज़िल पर स्थित उनके ऑफिस में बेहतर विभाग पाने के लिए तमाम मंत्री शीष नवाने जाते हैं. साथ ही ये भी कि वे किसी भी वक्त किसी भी मुद्दे पर पार्टियों से परे जाकर कम से कम 150 सांसदों का समर्थन जुटा सकते हैं. धीरूभाई अंबानी, बालू और रिलांयस के तेज़तर्रार वित्तीय प्रमुख डीएन चतुर्वेदी को अक्सर भारतीय अर्थव्यवस्था की “एबीसी” कहा जाता था. आज तक कोई भी पेट्रोलियम मंत्रालय पर उनकी पकड़ का मुकाबला नहीं कर सका है. बालू की असाधारण सफलता को 1998 में उस वक्त तगड़ा झटका लगा जब वो रोमेश शर्मा के साथ रियल इस्टेट के धंधे में शामिल पाए गए जो कि बाद में दाउद का आदमी निकला. बालू पर गोपनीयता कानून के उल्लंघन का भी आरोप लगा क्योंकि उनके कुछ नासमझ सहायकों ने सरकारी फाइलों में ही कुछ निर्देश लिख दिए थे. सीबीआई जांच के दौरान बालू ने काफी परेशानियों का सामना किया. बाद में रिलायंस के ही एक अन्य संकटमोचक ने उनकी मदद की.बालू के पतन से शंकर अडवाल के उत्थान का रास्ता तैयार हुआ. इन्हें मुकेश अंबानी अपने टेलीकॉम उपक्रम में मदद के लिए आगे लाए थे. एक समय बालू के नायब रहे अडवाल ने रिलांयस द्वारा 70,000 किलोमीटर ऑप्टिकल फाइबर लाइन बिछाने के रास्ते में विरोधियों द्वारा डाली गई तमाम अड़चनों को सफलतापूर्वक हटा डाला. यद्यपि अडवाल गोपनीयता कानून के मामले में जेल की हवा खा चुके हैं लेकिन सत्ता के गलियारों में उनकी जबर्दस्त धाक अब भी कायम है. अक्सर किसी चलते-फिरते दरबार के साथ (पांच लोग अडवाल के आगे और पांच लोग पीछे) नज़र आने वाले अडवाल फिलहाल ल्यूटेन की दिल्ली में मुकेश अंबानी के सबसे प्रिय योद्धा के रूप में तैनात हैं जो नौकरशाही के ऐसे किसी भी लाल फीते को काटने की कुव्वत रखता है जो उनकी कंपनी की राह का रोड़ा बन रहा हो.
तिकड़ी के तीसरे सदस्य हैं मृदुभाषी ए एन सेतुरमन. बालू के भांजे सेतुरमन अंबानी भाइयों में बंटवारे के बाद चमके. कद के हिसाब से देखा जाए तो आज वो अपने मामा को काफी पीछे छोड़ चुके हैं. रिलायंस की परंपरागत शैली से हटकर सेतुरमन अपना काम साधने के लिए तर्क, पामटॉप और पॉवर प्वॉइंट प्रेजेंटेशन के मेल को उपयोग में लाते हैं. कभी तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय में बढ़िया पैठ रखने वाले इस शख्स ने रिलायंस के बंटवारे के बाद अब दूरसंचार मंत्रालय पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. अनिल अंबानी के जीएसएम एजेंडे को विभागीय फाइलों की भुलभुलैया में रास्ता दिखाने का श्रेय सेतुरमन को ही जाता है.
विघ्नहर्ता और भी हैं. उदाहरण के लिए टोनी जेसुदासन जिन्हें धीरुबाई अंबानी ने खोजा था और जो लंबे समय से अंबानी परिवार के साथ जुड़े हुए हैं. जेसुदासन दिल्ली में अनिल अंबानी के संकटमोचक और देश के मीडिया समूहों में काम कर रहे ज्यादातर शीर्ष संपादकों के दोस्त हैं. इनके साथ वो लंच या डिनर करते हुए व्यापार के अलावा रॉक संगीत, सिगार, डाइट बीअर की भी चर्चा करते हैं. वो इस बात को बखूबी समझते हैं कि सिर्फ खुशामद से काम नहीं चलता. आपके पास एक सोच भी होनी चाहिए. जेसुदासन कहते हैं, “लॉबीइंग में मीडिया एक अहम भूमिका निभाता है.”
तिकड़म के इस खेल के एक और बड़े खिलाड़ी हैं दीपक तलवार. पूर्व कार्गो एजेंट दीपक तलवार की सवारी एक जमाने में लूना मोपेड हुआ करती थी मगर आज उनकी जिंदगी हवाई यात्राओं और पांचसितारा होटलों के इर्दगिर्द घूमती है. कई अहम मंत्रालयों के साथ हॉटलाइन रखने वाले तलवार को भारतीय नौकरशाही में सर्वव्यापी होकर भी अदृश्य रहने की कला के लिए जाना जाता है.सत्ता के गलियारों तक पहुंचने में तलवार की मदद की पीवी नरसिम्हा राव के मुख्य सचिव ए एन वर्मा ने जो उस समय फॉरेन इनवेस्टमेंट प्रोमोशन बोर्ड के भी अध्यक्ष थे. तलवार और वर्मा की निकटता की उस समय खूब चर्चा हुआ करती थी. तलवार को पहली सफलता तब मिली जब उन्होंने ब्रिटश कंपनी यूनाइटेड डिस्टलर्स (यूडी) के लिए एक सौदा पटाया. यूडी को अन्न तकनीक के लिए एक संयंत्र आयात करना था जो कि उस समय के सरकारी नियमों के हिसाब से एक महंगा सौदा होता. तलवार की लॉबीइंग के चलते नियमों में फेरबदल किया गया और यूडी को मुंबई में स्थित बंद पड़े एक संयंत्र के आधुनिकीकरण की इजाजत दे दी गई. इससे कंपनी का काफी पैसा बच गया.
इसके बाद तलवार कोकाकोला के काम आए. दरअसल भारत में कोक के प्रवेश को सुगम बनाने के लिए बिस्किट किंग राजन पिल्लई कोकाकोला के साथ एक संयुक्त उपक्रम स्थापित करने की सोच रहे थे. कई लोग याद करते हैं कि किस तरह तलवार, कोका कोला के शीर्ष अधिकारियों को बड़ी आरामदायी कारों की बजाय एंबेसडर में बिठाकर मंत्रालयों तक ले जाया करते थे. बाद में अज्ञात कारणों से पिल्लई को दरकिनार कर दिया गया और तलवार ने अटलांटा की इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के अकेले ही भारत आने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. पिल्लई ने इस पर कानूनी कार्रवाई की धमकी दी और अपने काम के लिए एक दूसरी जनसंपर्क कंपनी का सहारा लिया मगर उनकी दाल गली नहीं.
तब से तलवार अमेरिकन इंश्योरेंस ग्रुप, ब्रिटिश अमेरिकन टोबैको (बैट), ड्यू पांट, ग्लैक्सो-स्मिथक्लाइन और जनरल मोटर्स जैसे बड़ी कंपनियों के मामले संभाल चुके हैं. चेरियन की तरह तलवार भी माहौल बनाने की अहमियत को समझते हैं. 90 के दशक में इंटीग्रल पीआर के नाम से एक जनसंपर्क कंपनी खोलने के बाद से वे अक्सर अपने प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ मीडिया में खबरें उड़ाते रहते हैं और उनकी ये रणनीति कई बार सफल रहती है. एयरटेल के सुनील मित्तल के व्यापार के शुरुआती दिनों में तलवार उनके काफी काम आए. इसके अलावा बीमाक्षेत्र को खोलने की प्रक्रिया में भी तलवार ने अहम भूमिका निभाई. स्टोन ट्रैवेल्स नामक कंपनी के मालिक तलवार कई एयरलाइंस के जनरल सेल्स एजेंट और मध्य-पूर्व के निवेशकों के लिए भारत में सबसे बड़ी कड़ी भी हैं. इसके अलावा वे एयर इंडिया और जेट एयरवेज के लिए ड्यूटी फ्री उत्पादों के सप्लायर हैं. इन दिनों तलवार एक अग्रणी एयरपोर्ट रेस्टोरेंट कंपनी को भारत में लाना चाहते हैं.आज शायद ही कोई ऐसा व्यापारिक घराना होगा जो इस तरह के तिकड़मी कलाकारों के बिना काम करता हो. टाटा के लिए ये भूमिका नीरा राडिया निभाती हैं. अंतरराष्ट्रीय उड्डयन उद्योग की अच्छी समझ रखने वाली राडिया कई दिवालिया कंपनियों से मुक्ति पाकर इंग्लैंड से भारत आईं थीं. यहां उनका इरादा एक विमान कंपनी स्थापित करने का था. राडिया बंद पड़ी मोदीलुफ्त को खरीदकर उसे मैजिक एयर के नाम से शुरू करना चाहती थीं. मगर वो इसके लिए जरूरी शर्तें पूरी करने में नाकामयाब रहीं. हालांकि इससे उनका उत्साह ठंड़ा नहीं पड़ा. तत्कालीन उड्डयन मंत्री अनंत कुमार की करीबी राडिया ने भारत में उड्डयन उद्योग की बारीकियां सीखी. सिंगापुर एयरलाइंस द्वारा ग्राउंड हैडलिंग का कांट्रेक्ट एयर इंडिया को दिए जाने और टाटा द्वारा वीएसएनएल की खरीद में राडिया की अहम भूमिका थी.
अब राडिया ने नियोसिस के नाम से एक कंपनी खोली है जिसमें वो पूर्व वित्त सचिव सी एम वासुदेव, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के पूर्व चेयरमैन प्रदीप बैजल और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के पूर्व चेयरमैन एस के नरूला के साथ मिलकर काम कर रही हैं. नौकरशाही में काम कैसे होता है इसे पूर्व नौकरशाहों से ज्यादा कौन जान सकता है. नियोसिस ने एक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन बनाई है जिसमें शीर्ष पदों पर रहे पूर्व नौकरशाहों और अधिकारियों को रखा गया है. इनमें अर्जुन सेन गुप्ता, ब्रजेश मिश्र, जनरल वीपी मलिक शामिल हैं.
सत्ता के गलियारों तक पहुंच रखने वाली ऐसी कई चाबियां हैं जो इस तरह की कंपनियों को अपनी सेवाएं दे रही हैं. दिल्ली स्थित लेक्सिकन पीआर में कृषि मंत्री शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले काम कर रही हैं जबकि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव प्रेम कुमार गुड़गांव स्थित जेनेसिस पीआर से जुड़े हुए हैं.
लॉबीइंग की दुनिया में एक चर्चित नाम सुहेल सेठ का भी है. विज्ञापन जगत के जाने-माने नाम सेठ को भारत में लॉबीइंग की दुनिया का चेहरा कहा जा सकता है. हालांकि अपने समकालीनों की तुलना में सुहेल का ट्रैक रिकॉर्ड उतना प्रभावशाली नहीं है फिर भी आप उनकी सेवाएं लेकर निराश नहीं होंगे. वाकपटु सेठ एक शाम किसी टीवीशो में कोका-कोला की पैरोकारी करते हुए सुनीता नारायण से लोहा लेते दिखते हैं और अगली ही सुबह नाश्ते पर मुकेश अंबानी की तरफ से तेल नीति के बारे में मुरली देवड़ा से बात कर रहे होते हैं. उन्हें महंगी कारों और भव्य पार्टियों का शौक है. दावोस में आयोजित वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम में मुकेश और नीता अंबानी को प्रमोट करने का जिम्मा उनके कंधों पर है. सेठ उन चुनिंदा लोगों में से हैं जो देश के दो सबसे बडे उद्योगपतियों रतन टाटा और मुकेश अंबानी दोनों के साथ भोजन पर आमंत्रित होते हैं. आजकल उनका जुमला है, “देरी के लिए माफी चाहता हूं. दरअसल मुकेश के साथ बातचीत जरा लंबी हो गई.”
लॉबीइंग का स्वरूप वक्त के साथ बदल गया है मगर इसके विरोधी अब भी इसे भ्रष्टाचार का ही एक स्वरूप करार देते हैं. कोला कंपनियों के खिलाफ अभियान चलाने वाली और दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट की मुखिया सुनीता नारायणन कहती हैं, “मैं इसे वैध भ्रष्टाचार कहूंगी. इन एजेंट्स के पास मुख्य मुद्दे को उलझाने की एक खास कला होती है. इससे आखिरकार लोग दुविधा में पड़ जाते हैं और मुद्दा पीछे छूट जाता है.” इस बात में सच्चाई है. नारायणन के वैज्ञानिक साक्ष्यों पर कोला कंपनियों द्वारा की गई लॉबीइंग भारी पड़ गई थी.मगर कुछ लोगों का मत है कि लॉबीइंग को व्यापार की दुनिया के एक जरूरी हिस्से के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. सीआईआई के तरुण दास का मानना है कि भारत में निवेश की इच्छा रखने वाली अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां को यहां का माहौल जटिल लगता है और इसलिए लॉबीइंग का पेशा फल-फूल रहा है. वो कहते हैं, “रियोडेजिनेरो, बीजिंग या सियोल में जो चीज काम करती है वो जरूरी नहीं कि यहां भी काम करे. भारत की अपनी नियामक नीतियां और बुनियादी ढांचा है.” दास का मानना है कि ऐसे में एक लॉबीइस्ट सबसे अच्छा जवाब है क्योंकि उसे स्थानीय और अंतराष्ट्रीय दोनों परिस्थितियों की अच्छी समझ होती है और वो भारत नाम की भुलभुलैया में अपने मुवक्किल को रास्ता दिखा सकता है.
तो अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने की खातिर आप के लिए किसकी सेवाएं लेना सबसे अच्छा होगा? हाल ही में रिटायर हुए किसी राष्ट्रीयकृत बैंक के चेयरमैन की, जल्द ही रिटायर होने वाले पेट्रोलियम सचिव की या फिर शिक्षाविदों और नौकरशाहों के मेल से बने एक थिंक टैंक की? आप सभी की सेवाएं एक साथ ले सकते हैं या फिर किसी एक की. ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपका मकसद क्या है और ये कितना बड़ा है.
वरिष्ठ नौकरशाहों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद इतने आकर्षक विकल्प पहले कभी देखने को नहीं मिले. यूपीए सरकार ने जब शिवशंकर मेनन को विदेश सचिव बनाया तो राजीव सीकरी को इस्तीफा देना पड़ा. मगर कुछ समय बाद ही सीकरी जामनगर और मुंबई में रिलायंस के मैनजर्स को लेक्चर दे रहे थे. राडिया की कंपनी नियोसिस से जुड़े ट्राई के पूर्व चेयरमैन प्रदीप बैजल कहते हैं, “मैं जो कर रहा हूं वो लॉबीइंग नहीं है. ये भारतीय परिदृश्य को समझने के लिए दी जा रही परामर्श सेवा है.” बैजल के ये शब्द उस असहजता और अस्पष्टता की झलक देते हैं जो अब भी इस पेशे के साथ जुड़ी हुई है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ ही लॉबीइस्ट्स की संख्या भी बढ़ रही है. वक्त के साथ इसमें नए आयाम भी जुड़ते जा रहे हैं. मसलन अब ये सिर्फ खुशामद और पैसे के बल पर ही नहीं होती. जैसे कि वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस के सीईओ विशाल मेहता कहते हैं, “आज लॉबीइंग में तर्क और बहस की अहम भूमिका होती है. आपके तर्क इतने मजबूत होने चाहिए कि नौकरशाही उनसे सहमत हो जाए.
इसका मतलब ये है कि आप याचना नहीं कर रहे और न ही आप किसी को खरीद रहे हैं. आप बस अपनी बात को तर्क से साबित कर रहे हैं
मगर तरीका चाहे जो भी हो एक बात याद रखना अहम है. क्रिकेट की तरह लॉबीइंग में सफल होने के लिए भी आपको मैचजिताऊ खिलाड़ी होना चाहिए. यानी बिना सौदे को मुकाम तक पहुंचाए आप किसी काम के नहीं.
----------------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.