केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैगन के व्यावसायिक इस्तेमाल पर फैसला टाल दिया है।
इस पर काफी बहस हो रही है। तो मैं भी इस पर अपनी राय जाहिर कर दूं। मुझे जीन संवर्द्धित फसलों से कोई परहेज नहीं है। उत्पादन बढ़ाने के लिए जीन संवर्द्धित फसलों का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। हां, लेकिन मैं बीटी बैगन विरोधी हूं और इसकी वजहें ये हैं-
पहली बात तो यह है कि हम बैगन की बात कर रहे हैं, वह भी जीन संवर्द्धित। देश में पहली बार किसी सब्जी के जीन संवर्द्धित संस्करण का इस्तेमाल किया जाना था, जिसे आम आदमी भोजन में लगभग रोजाना इस्तेमाल करता है और कई बार तो इसे कच्चा भी इस्तेमाल किया जाता है।
इसीलिए हम इस संवर्द्धित तकनीक की तुलना बीटी कॉटन से नहीं कर सकते हैं, जिसका इस्तेमाल मवेशियों के चारे और खली के रूप में किया जाता है। दुनिया भर में इस्तेमाल की जाने वाली जीन संवर्द्धित फसलें प्रसंस्कृत रूप में इस्तेमाल की जाती हैं, चाहे वह सोया हो या मक्का।
इन दोनों फसलों के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए इनके आधार पर आप यह नहीं कह सकते कि जीन संवर्द्धित फसलों के इस्तेमाल से नुकसान नहीं होगा क्योंकि बीटी बैगन का इस्तेमाल प्रसंस्कृत रूप में नहीं किया जाएगा।
दूसरी वजह यह है कि निर्णायक मंडल अभी तक बीटी बैगन पर किए गए शोध के नतीजों और लोगों के स्वास्थ्य पर इस फसल के असर को लेकर सहमति नहीं बना पाया है। यह बहस दो बातों के इर्दगिर्द चल रही है- पहली, क्या लंबी अवधि तक इस फसल के इस्तेमाल के असर पर पर्याप्त शोध किए गए हैं और दूसरी यह कि ये शोध किसने किए हैं?
मोनसैंटो-माहिको की ओर से न्यूनतम विषाक्तता पर अध्ययन किया गया है और इसमें पाया गया कि 50 से अधिक बार इसका सेवन करना जानलेवा हो सकता है। इतनी बार सेवन करने पर जान जाने की संभावना 50 फीसदी से अधिक है। कंपनी ने एलर्जी और त्वचा पर इसके प्रभाव के बारे में भी अध्ययन किए हैं.
जबकि थोड़े समय तक इसके सेवन के असर के बारे में कम ही अध्ययन किए गए हैं- 90 दिनों के लिए खरगोश, चूहों और बकरियों पर ही इस तरह के अध्ययन किए गए हैं। इससे एक प्रश्न जो सामने आता है वह है, क्या इस तरह के अध्ययन बीटी बैगन के लंबी अवधि के इस्तेमाल का असर बताने के लिए पर्याप्त हैं?
इस सवाल पर कंपनियों का जवाब है हां, उनका कहना है कि चूहे की जिंदगी के 90 दिन इंसान की जिंदगी के 20-21 साल के बराबर हैं। जबकि इसके उलट वैज्ञानिक कह रहे हैं नहीं, उनका कहना है कि लंबी अवधि तक इस्तेमाल के बाद इसके असर को जानने के लिए अलग अध्ययन की जरूरत होगी।
इससे भी जरूरी है यह जानना कि क्राई1एसी टॉक्सिन किस तरह हमारे भोजन में शामिल होकर हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है। कंपनी का कहना है कि उसके पास पके हुए भोजन और मानव शरीर में इस प्रोटीन के टूटने के आंकड़े मौजूद हैं। हालांकि वह इस बात को स्वीकार करती है कि यह टॉक्सिन क्षारीय माध्यम में ही सक्रिय होता है।
इसके विरोध में तर्क यह है कि अक्सर बैगन को कच्चा खाया जाता है और हमारे पाचन तंत्र पर हल्का क्षारीय होता है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा निर्णायक मंडल इस पर पशोपेश में है। इसके बाद बड़ा मसला है कि क्या आप और मैं बीटी बैगन पर किए गए शोध के नतीजों पर भरोसा कर इसका सेवन कर सकते हैं?
क्योंकि बीटी बैगन पर शोध उस कंपनी ने कराए हैं जिसे इसे मंजूरी मिलने से सबसे अधिक फायदा होगा। फिलहाल सभी शोध के लिए फंड कंपनियों ने ही दिया है और इसके बाद नतीजों को मंजूरी के लिए नियामक के पास पेश किया गया है। इस कारण बीटी बैगन पर किए गए शोध संदेह के घेरे में आ गए हैं, कंपनी कुछ भी कहे लोग उसकी बात पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।
इससे पहले दवा और खाद्य पदार्थों पर निजी शोध कंपनियों की गलत रिपोर्टों के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए अगर लोग इस शोध रिपोर्ट पर भी संदेह कर रहे हैं तो इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है। यह बात तो बिल्कुल साफ है कि हमें शोध के लिए नया तंत्र चाहिए- शोध के लिए पैसा सरकार को देना चाहिए और इसकी रिपोर्ट की खुलकर जांच होनी चाहिए।
इसके लिए भी पैसा कंपनियों से ही आना चाहिए लेकिन उपकर के जरिए और इसे एक फंड में तब्दील किया जा सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक निष्पक्ष रिपोर्ट पर भी लोग भरोसा नहीं कर पाएंगे। बीटी बैगन का विरोध करने की मेरी वजह बिल्कुल बुनियादी है। दरअसल मुझे बीटी बैगन खाना है या नहीं इसका फैसला करने का अधिकार मुझे ही होना चाहिए.
लेकिन भारत में बीटी बैगन और साधारण बैगन को पहचानने के लिए कोई लेबल सिस्टम ही नहीं है। आपके और मेरे पास इसे नहीं खाने का विकल्प ही नहीं होगा। दरअसल भारत जैसे विशाल देश में लेबल सिस्टम लागू करना बेहद मुश्किल है क्योंकि इसके लिए बीटी बैगन और साधारण बैगन की खेती करने वालों के खेतों में परीक्षण करने पड़ेंगे।
लेबलिंग के लिए देश भर में एक प्रयोगशाला तंत्र और नियामक की जरूरत होगी, ताकि उपभोक्ताओं को फसल में संवर्द्धित जीन की मात्रा का ब्योरा दिया जा सके। फिलहाल देश में जो तंत्र मौजूद है वह इससे बिल्कुल अलग है।
उदाहरण के लिए विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने खाने वाले तेल में संवर्द्धित जीन की मात्रा पता करने के लिए परीक्षण करने की कोशिश की लेकिन देश की अधिकतर प्रयोगशालाओं ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, उनका कहना था कि वह यह परीक्षण नहीं कर सकती या फिर उनके पास सीमित संसाधन हैं; यह परीक्षण बेहद महंगा और इसे करना मुमकिन नहीं है।
बीटी बैगन के साथ भी यही समस्या है कि सुरक्षा और नियामकों को सुनिश्चित करने की आधुनिक सुविधाओं के अभाव में हम आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करना चाहते हैं। दरअसल बैगन सबसे पहले भारत में ही उगाया गया और आज देश में इसकी करीब 2,500 प्रजातियां उगाई जाती हैं। चिंता की बात यह है कि जीन संवर्द्धन का बैगन की जैवविविधता पर क्या असर पड़ेगा?
कंपनी के वैज्ञानिकों का कहना है कि बीटी बैगन से बाकी प्रजातियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा और शोध भी कहते हैं कि इससे संकर किस्में पैदा करना मुमकिन है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम अपने भोजन में से लंबे, छोटे, गोल बैगन को खोने का जोखिम ले सकते हैं? मेरे लिए तो इस बहस का परिणाम यही है कि बीटी बैगन के इस्तेमाल को मंजूरी देकर जोखिम उठाना सही नहीं है।
हालांकि मैं यह फैसला जीन संवर्द्धित फ सलों के बारे में नहीं कर रही हूं। मैं सिर्फ यह मांग कर रही हूं कि मुझे यह खाना है या नहीं इसका फैसला करने का अधिकार मेरा हो। इसीलिए जयराम रमेश के फैसले का समर्थन किया जाना चाहिए.
(सुनीता नारायण)
----------------------------------------------------------------------------------------------------
कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.