20090130

ख़ूनी हस्ताक्षर

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है!

जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!


उस दिन लोगों ने सही-सही, खूं की कीमत पहचानी थी।

जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा।

तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।


आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।

वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का इतिहास कहीं काली स्याही लिख पाती है

इसको लिखने के लिए खूनकी नदी बहाई जाती है।


ये कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया!

मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना।

इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना।”


हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।

स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे।

रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे।


बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।

लो, यह कागज़, कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण करना है।

अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है।


पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।

इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।

वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो!


वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो!

मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो!”

सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं!

माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं!


साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे!

चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे!

फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे!

आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे!


उस दिन तारों ने देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।

जब लिखा था रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया।
(अज्ञात)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090129

कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं

1958 में पुणे में जन्मे संजय काक मूलत कश्मीरी पंडित हैं. अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के छात्र रहे संजय ने 2003 में नर्मदा घाटी परियोजना के विरुद्ध एक बहुप्रशंसित फिल्म 'वर्ड्‌स ऑन वाटर' बनायी. उन्होंने इसके अलावा 'इन द फॉरेस्ट हैंग्स अ ब्रिज', भारतीय लोकतंत्र पर 'वन वेपन' तथा 'हार्वेस्ट ऑफ रेन' जैसी फिल्में बनायी हैं.

हाल ही में उन्होंने कश्मीर समस्या पर 'जश्ने आजादी' नामक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनायी है, जिसका प्रदर्शन देश और दुनिया भर में हो रहा है. इसके लिए संजय को जितनी प्रशंसाएं मिली हैं, उसी पैमाने पर आलोचना भी. ऐसा उनकी फिल्म के नजरिये को लेकर है, जिसमें वे सरकारी दृष्टि के बजाय कश्मीर समस्या को लेकर एक अलग सोच के साथ पेश आते हैं, जो कश्मीर के लोगों के ज्यादा करीब है. फिल्म में दिखाये गये दृश्य अविस्मरणीय हैं-आजादी के नारे, दूर तक फैला सन्नाटा भरा कब्रिस्तान, हत्याएं और फौजी गतिविधियां. कुल मिला कर 'जश्ने आजादी' हमारे सामने कश्मीर की त्रासदी का एक महाआख्यान प्रस्तुत करती है, ऐसा आख्यान जो इससे पहले इस तरह कभी नहीं लिखा-कहा गया.

यहां पेश है संजय काक से रेयाज-उल-हक की बातचीत.
आप खुद कश्मीरी हैं, मगर आपने कश्मीर पर एक फिल्म बनाने के बारे में इतनी देर से कैसे सोचा और इसके लिए यह वक्त क्यों चुना? कोई खास वजह?


पहले इतने कामों में व्यस्त था कि इस पर सोचने का वक्त ही नहीं मिला. लेकिन हिंदुस्तान में क्या हो रहा है, इस पर सोचने का मौका मिला. 'वर्डस ऑन वाटर' जो पहली फिल्म है, उसे बनाने के दौरान बारीकी से देखने का मौका मिला कि जो हमारे इंस्टीट्युशंस हैं, जिनके बल पर यह डेमोक्रेसी चलती है, उनमें क्या हो रहा है. और जो भी देखने को मिला, उससे बहुत हताशा हुई. भारतीय लोकतंत्र खोखला-सा दिखने लगा. संसद पर 2001 में जो हमला हुआ था, उसमें जो प्रो एसएआर गिलानी का मामला चल रहा था. उनके बचाव पक्ष के वकीलों ने मुझसे संपर्क किया कि उनका जो टेलीफोन टेप हुआ था,वह कश्मीरी में है, उसका अनुवाद करना है. वह चाहते थे कि यह अनुवाद कोई कश्मीरी पंडित करे.

मैं नहीं समझा कि डिफेंस क्यों चाहता था कि यह काम कोई कश्मीरी पंडित करे. मैंने कहा कि दिल्ली में बहुत सारे कश्मीरी पंडित हैं, किसी से भी करा लीजिए. वे हंसने लगे. उन्होंने कहा कि कोई तैयार नहीं. मुझे इससे गहरा धक्का लगा. इस पूरे मामले में देखने को मिला कि उग्र राष्ट्रवाद किस तरह पूरे देश को जकड़ लेता है. हर जगह यह था- पुलिस हो या मीडिया. तब मैंने समझा कि कितना कुछ हो रहा है कश्मीर में. फिर हम कश्मीर गये. यह सोच कर नहीं कि फिल्म बनानी है,बल्कि यह सोच कर कि बाहर बहुत दिनों तक रहे, अब कुछ दिन वहां रह कर देखेंगे कि वहां क्या हो रहा है.

वहां जो कुछ देखने को मिला, उससे बहुत धक्का लगा. हालांकि आजकल उतना तनाव नहीं है, जितना 2003 में था. एयरपोर्ट से हमारे घर जाने में आधा-पौन घंटा लगता है. जितनी फौज, जितने सैनिक, जितनी बंदूकें, जितने बंकर देखे-वह सब देख कर हतप्रभ रह गया. ये भी जाहिर हुआ कि कश्मीर में बहुत कम लोग बोलने को तैयार हैं. वे कहते हैं कि क्यों बात की जाये, खास कर हिंदुस्तान के लोग आते हैं तो. क्या फायदा है कहने का. धीरे-धीरे लगने लगा कि यहां फिल्म बनाना मुश्किल तो है, लेकिन जरूरी भी.


एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाना और वह भी ऐसे क्षेत्र को लेकर, सरकार के और सेना के नजरिये के लगभग विरुद्ध जाकर, आपने जिसे दुनिया का सबसे सैन्यीकृत जोन कहा है, आसान तो कतई नहीं था. तो दिक्कतें नहीं आयीं, किस तरह की परेशानियां रहीं?


कोई भी क्रिएटिव काम दिक्कत के बगैर नहीं होता है. खास कर ऐसी फिल्में बनाने में दिक्कतें तो आती ही हैं. ये आपकी समझ पर है कि आप कितनी दिक्कतें पार कर लेते हैं. डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का रॉ मेटेरियल आम तौर पर यह होता है कि आप लोगों से बात करेंगे और वे आपको बतायेंगे. चाहे आप उसे फिल्म में इस्तेमाल करें या न करें. लेकिन जहां कि स्थिति इतनी टेंस हो, कोई यह नहीं जानता कि किससे क्या बात करे. अमूमन यह भी होता है कि लोग वही बोलते हैं जो आप सुनना चाहते हैं. क्यों पंगा ले कोई, चाहे गांव का बंदा हो या पत्रकार. लोग सिर्फ उतना ही कहेंगे जितना न्यूनतम जरूरी है.


तो मैंने मान लिया कि उस तरीके से फिल्म नहीं बनेगी कि गये और फील्ड में इंटरव्यू लिये और रॉ मटेरियल शूट किया और फिल्म बना ली. इसमें लोग क्या कहते हैं और वास्तव में क्या है, यह आपको गहरे तक देखना होगा. यह बडी दिक्कत है. दूसरी दिक्कत है आवागमन की. मान लीजिए कि हमें कहीं जाना है, कुपवाड़ा जाना है या दूसरी किसी जगह तो कश्मीर में यह भी एक समस्या है. बडी मुश्किल है, कहीं जाया नहीं जा सकता.


हम कॉलेज के लडको से मिले. उनमें से कुछ हमें अपने गांव ले गये. इस तरह शुरु किया. बाहर निकला तब जाना कि इतना मुश्किल भी नहीं है. मतलब बाहर से आने वाले लोगों के भीतर खौफ बना दिया जाता है. इससे होता ये है कि कश्मीर के बारे में लोगों की जो समझ है, वह अच्छी नहीं बनती. जो भी कश्मीर के बारे में लिखता है, अक्सर वह श्रीनगर के बारे में लिखता है. गांव-कस्बे में क्या हुआ, इसके बारे में नहीं. मैं यहां मीडिया को दोषी मानता हूं कि वे लोग सीमित हो जाते हैं. बीच-बीच में कोई बडा एनकाउंटर हुआ, कोई कांड हुआ तो वे जाते हैं, लेकिन वह रूटीन नहीं है.

एक बार हमने बाधा पार कर ली तो उसमें काफी सहूलियत हो गयी. तीसरी बात कि वहां सब कुछ नियंत्रण में है. आपसे कह दिया जाता है शूट करने की परमिशन लेने की जरूरत नहीं. लेकिन अगर कहीं आप रुक कर शूट करना चाहते हैं तो वहां मौजूद आर्मी का आदमी आपको शूट करने नहीं देगा. आप कहेंगे कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है तो वह आपको कहेगा कि वह ऊपर से पूछ कर ही शूट करने देगा. इसमें कई घंटे या फिर दिन भी लग सकते हैं. आप छह घंटे तो इंतजार नहीं कर सकते. आप गांव जाना चाहते हैं तो आपको नहीं जाने दिया जाता है कि वहां मिलेटेंट हैं. एक तरफ तो आपको कहा जाता है कि आप फ्री हैं, लेकिन दूसरी ओर आप कहीं नहीं जा सकते हैं. इसको भी आपको बाइपास करना है, किसी भी तरीके से.

कुल मिल कर ऐसी सिचुएशन है, जिसे समझना है आपको. समझ कर आपको बात कहनी है. हमारी यह जो फिल्म है, यह उन सबसे निपट कर बनी है. तजुरबा और तकनीक जो किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म मेकर का होता है कि आप किसी सिचुएशन में हैं और आपको फिल्म बनानी है तो कैसे बनायें. दरवाजा बंद है तो देखना है कि कौन सी खिडकी खुली है, कौन-सा पिछला दरवाजा खुला है, कहां से भीतर जाया जा सकता है.

ऐसा नहीं कि कोई गोपनीय फिल्म बना रहे हैं. हम तो साधारण-सी फिल्म, लोगों की फिल्म बना रहे हैं. ऐसा नहीं है कि लोग वहां फिल्में नहीं बनाते हैं, मगर एनजीओ टाइप एप्रोच के कारण उन्हें दिक्कत नहीं होती. किसी कॉलेज में जाकर लड़कों से बात करके कुछ बना देना आसान है. मगर सतह के नीचे जाने में दिक्कत तो होगी.
फिल्म बनाने के दौरान एनजीओ को लेकर आपके जो अनुभव रहे, वह जानना दिलचस्प होगा. कश्मीर में एनजीओ की क्या भूमिका है ?


आज की तारीख में कश्मीर में 14 हजार एनजीओ हैं. मैं समझता हूं कि जिस तरह पूरे देश में आज एनजीओ की आफत फैली हुई है, उससे एक नयी श्रेणी तैयार हो रही है. कश्मीर में बहुत ज्यादा पैसा आता है. बहुत से लोग इन्वॉल्व हो जाते हैं उनमें. और मैं समझता हूं कि कश्मीर में एनजीओ का डिपोलिटिसाइजिंग में बडा रोल है. तीन-चार साल में मैं जो जान पाया हूं, वह यह है कि कई युवा, जो कॉलेज में पढते थे, अच्छी पढाई कर रहे थे, जो बातें बडी अच्छी करते थे-किताबों की बातें और बहुत कुछ, वे अब धीरे-धीरे एनजीओ में नौकरी करने लगे हैं. उन्होंने किसी से उधार लेकर टेलीफोन और मोटरसाइकिल खरीदी है.

कुल मिला कर एनजीओ का किसी भी सोसाइटी में प्रभाव यही होता है कि वे बडे पैमाने पर राजनीति को डाइल्यूट कर देते हैं. हालांकि कुछ अच्छा काम करने वाले एनजीओ भी हैं और कुछ काम अच्छा भी होता है.

आपने अपनी फिल्म में कश्मीर के लोगों की जो इच्छाओं को सामने लाने की कोशिश की है. क्या है वह इच्छा, क्या आप उसे पूरे तौर पर सामने ला पाये हैं?


लोगों की इच्छा क्या है, यह जानना मुश्किल है. हालात वहां इतने बुरे हैं कि मुझे ही नहीं, लोग आपस में भी उनके बारे में बिल्कुल बात नहीं करते हैं. पब्लिक सिमट कर बैठी हुई है. जो लीडर हैं वहां, वे सब भावनाओं की ही राजनीति करते हैं.

भावना के स्तर पर वहां के लोग अव्वल तो भारत की फौज को दूर देखना चाहते हैं. नंबर दो, वे आजादी चाहते हैं. अब आजादी का मतलब उनका क्या है, इस पर हम पाते हैं कि कोई कंसेंसस नहीं है. लेकिन हमें यह कंसेंसस नहीं दिखता, इसका मतलब यह नहीं है कि वह है ही नहीं. बल्कि असल में हम यह नहीं जानते कि वह क्या है. क्योंकि आपको जहां पर किसी भी तरह की आजादी नहीं है, जहां पर कोई सार्वजनिक सभा नहीं कर सकते, जहां आप फिल्म नहीं बना सकते, जहां आप लिख नहीं सकते आजादी के साथ, वहां हम कैसे जान पायेंगे कि लोग वास्तव में क्या चाहते हैं. लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि जब कोई वारदात होती है, और आप यह इस फिल्म में भी देखेंगे कि कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है, तब जो माहौल होता है, उससे आपको कुछ आइडिया हो जायेगा. जिस तरह वहां हजारों की तादाद में लोग आते हैं, जिस तरह नारे लगाये जाते हैं, जिस तरह उस दिन सुरक्षा बल गायब हो जाते हैं, यह सब कुछ आपको बहुत कुछ कह देता है. यह एक अजीब परंपरा है कश्मीर में.


वहां चप्पे-चप्पे पर फौजी हैं. वहां आर्मी को सलाम किये बिना आप आगे नहीं बढ सकते. लेकिन जिस दिन कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है और उसका जनाजा उठता है, तो तीन-चार किमी तक कोई फौजी नहीं दिखेगा आपको. क्योंकि उन्हें मालूम होता कि उस दिन उन्होंने

जश्न-ए-आज़ादी

कश्मीर में एक तरफ तो आपको कहा जाता है कि आप फ्री हैं लेकिन दूसरी ओर आप कहीं नहीं जा सकते हैं.

कुछ किया तो फिर उन्हें एक-दो आदमियों को नहीं, हजार-दो हजार लोगों को मारना पडेगा. तो ऐसे अननेचुरल सिचुएशन में आपको पता लगता है कि कश्मीर में लोगों की भावनाएं क्या हैं. आप जब फिल्म देखेंगे तो यह समझ जायेंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं.
आप संसद पर हमले के सिलसिले में कश्मीर समस्या से रू-ब-रू हुए. इस संदर्भ में बाद में आये फैसलों को आप अब इस समस्या के परिप्रेक्ष्य में किस तरह देखते हैं?


जब संसद पर हमला हुआ तो कश्मीरियों की दिलचस्पी इसमें थी. पर जिस तरह अफजल और गिलानी को इसमें लपेटा गया, वह कश्मीरियों के लिए कोई नयी बात नहीं थी. कम से कम सात-आठ सौ लड़के पडे हुए हैं अलग-अलग जेलों में और सड़ रहे हैं. जब गिलानी के बचाव की बातें हो रही थीं तो कश्मीर में लोगों का कहना था कि हां ठीक है, मानते हैं कि गिलानी के साथ नाइंसाफी हुई है, मगर यहां कश्मीर में तो हजारों के साथ नाइंसाफी हो रही है. आपके यहां डीयू का प्रोफेसर है तो उत्तेजित हो रहे हैं, हमारे तो बहुत सारे लड़के फंसे हुए हैं.


अफजल का मामला मुझे लगता है कि वह थोड़ा और इमोशनल हो गया फांसी की सजा की वजह से. कश्मीर में कोई न्यूट्रल इश्यू नहीं है. हजार लड़के फंसे हुए हैं, बेगुनाह हैं या गुनाहगार यह किसी को नहीं मालूम और न होगा. फिर भी उन्हें सात से लेकर चौदह साल हो गये, जेल में. तो उनको तो लगता है कि सिस्टम यही तो करेगा और क्या करेगा ! इसे आप एक किस्म का सिनिसिज्म कह सकते हैं.

भारत में नक्सलवाद है, पूर्वोत्तर के विद्रोह हैं और कश्मीर है. इनसे जो भारत सरकार का व्यवहार है, क्या हम इससे सरकार के चरित्र को समझ सकते हैं ?


ये सब अलग-अलग विद्रोह हैं मगर आप इनसे सरकारों के चरित्र समझ सकते हैं. आपका सवाल सही है. मणिपुर और कश्मीर में तो कमोबेश 60 सालों से यह हो रहा है. इधर आकर अब नक्सलवाद पर बडी बात हो रही है. हालांकि इन तीनो में फर्क है. कश्मीर में जो चल रहा है, उसे देश विरोधी साबित करना भारत सरकार के लिए आसान रहा कि भई पाकिस्तानी इसमें सपोर्ट करते हैं. वही इसे चलाते हैं.

मणिपुर में अलग तरह की जटिलता आ जाती है क्योंकि वे न तो मुसलमान हैं न पाकिस्तान का फैक्टर काम करता है वहां. इसके अलावा मणिपुर दूर है, वहां जो भी हो रहा है, चुपचाप से ही हो रहा है. इधर चार-पांच सालों से बातें आने लगी हैं.

मुख्य चुनौती तो यह नक्सलवाद और माओवाद ही है, क्योंकि ये लोग तो देश के हार्ट लैंड में हैं. मणिपुर और कश्मीर तो अलग होने की बात करते हैं, मगर माओवादी तो वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. आप इन्हें देशद्रोही कैसे दिखायेंगे, ये एक बड़ा नया चैलेंज है स्टेट के सामने. वह मणिपुर और कश्मीर के बारे में दिखा सकता है कि वे देश को तोडना चाहते हैं. इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक आम सहमति बनती है कि ये तो विभाजन चाहते हैं. मगर माओवाद तो बडी दिलचस्प चुनौती है कि इसे देश विरोधी दिखायेंगे कैसे ? इधर अब आप देखेंगे कि अखबारों में माओवादी आंदोलन के बारे में ठीक उसी तरह लिखा जाने लगा है, जिस तरह कश्मीर के बारे में लिखा जाता है. भारत जो आज कश्मीर में करता रहा है, उन सबका इस्तेमाल अब माओवादियों के खिलाफ कर रहा है.


उड़ीसा और नंदीग्राम में जो हो रहा है, वहां सबको माओवादी बता दिया जा रहा है. सरकार के पास समस्या तो है. अब कलिंगनगर के अहिंसक आंदोलन को देखें. वहां के बारे में क्या कहेंगे? यह दिलचस्प है कि वे वहां कहते हैं कि कलिंगनगर के लोग विकास के रास्ते में आ रहे थे. अभी तक जो कोई भी आवाज़ उठा रहा था, उसके बारे में कहा जाता था कि वह देश के खिलाफ़ आवाज उठा रहा है. अब यह कहा जा रहा है कि आप विकास के रास्ते में आ रहे हैं. अगर आप विकास के खिलाफ़ हैं तो आप देश के भी खिलाफ़ हैं. लेकिन क्या देश की आबादी इतनी आसानी से इसे मान लेगी? मीडिया तो मान चुका है, क्योंकि वह तो इसी का हिस्सा है. लेकिन पब्लिक क्या इतनी आसानी से मान लेगी?

आपकी फिल्म के बारे में कहा गया है कि इसमें कश्मीरी पंडितों के बारे में बहुत अधिक नहीं दिखाया गया है. क्या आप उनकी समस्या को कम करके देखते हैं, खास कर पलायन?


ऐसा नहीं था कि उनका पलायन पहले नहीं हुआ था. हम जिस पलायन की बात कर रहे हैं वह हुआ 1991-92 में. लेकिन उस मुद्दे का इस्तेमाल 1993-94 में होना शुरू हुआ. तो मुश्किल हो गया लोगों के लिए कहना कि वहां आजादी की तहरीक जायज है, क्योंकि सरकार ने इसे सांप्रदायिक साबित कर दिया. कहा जाने लगा कि इन्होंने पंडितों को निकाल दिया वहां से.

आज हालत यह हो गयी है कि आप कश्मीर पर बात करें तो पहला सवाल आता है कि कश्मीरी पंडितों पर क्या कहेंगे? फिल्म बनी तब से यही सवाल उठता रहा है कि आपने कश्मीरी पंडितों को क्यों नहीं और समय दिया. मेरा कहना है कि कश्मीर के मुद्दे को हिंदुस्तान में समझने के लिए कश्मीरी पंडितों को इस तरह इस्तेमाल किया गया है जैसे वे ही कवच हों और सबसे बडा सवाल हों.


आपने कश्मीर का नाम लिया ही कि आ गया सवाल कि- बोलिए पंडितों के साथ क्या हुआ?

मेरा कहना है कि पहले आप सबसे बड़े और पहले सवाल को देखें कि कश्मीर में क्या हुआ. इसके बाद ही तो कश्मीरी पंडित निकले न. कश्मीरी पंडितों का मामला कश्मीर समस्या के साथ जुड़ा हुआ है. आप पहले उसका हल करें. फिर इसके बाद ही बात होनी चाहिए. कश्मीरी पंडितों का इस्तेमाल किया गया. जो निकले-भागे बरबाद हुए, वे तो हुए ही, मगर जो जम्मू में कैंपों में रह रहे हैं, उनकी समस्या को कोई भी सरकार चुटकी में सुलझा सकती थी. लेकिन उन्हें बनाये रखना था सरकार को ताकि वे उनका इस्तेमाल कर सकें. जो पढे-लिखे पंडित थे, वे तो दिल्ली आ गये, पर जो छोटे और अनपढ किसान थे, वे बेचारे जम्मू और दूसरे कैंपों में रह रहे हैं. कश्मीरी पंडितों को अहम रोल दिया गया है, ताकि उनका इस्तेमाल हो सके और कश्मीर समस्या पर बात को अटकाया जा सके.

पंजाब में मैंने एक फ़िल्म बनायी थी दूरदर्शन के लिए, 1986 में. पंजाब में एक अच्छा खासा आंतरिक पलायन हुआ था पंजाबी हिंदुओं का, लेकिन पंजाब सरकार में उन्हें सीमा से बाहर नहीं जाने दिया. उन्हें पठानकोट, अमृतसर में शिविरों में रखा गया. मैंने उन्हें शूट किया है फ़िल्म में. वे वहां छह महीने साल भर रहे और वापस चले गये. कश्मीर सरकार ने ऐसी कोशिश कभी नहीं की. दूसरी तरफ़ कश्मीर में अभी भी 5-6 हज़ार कश्मीरी पंडित हैं. वे कश्मीर छोड़ कर कभी नहीं गये. वे भी जी रहे हैं. कैसे जी रहे हैं, यह कोई नहीं जानता. सरकार की ओर से तो उन्हें थप्पड़ ही मिलते हैं कि तुम यहां क्या कर रहे हो, निकलो यहां से.

कश्मीर पर लेफ़्ट के रवैये को आप कैसे देखते हैं?


लेफ़्ट, उदारवादी, प्रगतिशील-इन सबका कश्मीर के मामले में ज़्यादा से ज़्यादा रोल यही रहा है कि यह एक मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है और यह नहीं होना चहिए. वे राष्ट्रवाद के उस फ़्रेमवर्क से बाहर नहीं निकल पाये हैं. हर सरकार ने शुरू से ही कश्मीर के मुद्दे को इस तरह सफलता पूर्वक पेश किया है कि सबको यही लगता है यह भारत-पाकिस्तान के बीच ज़मीन का कोई झगड़ा है. भारत के राष्ट्रीय नेताओं में अकेले जयप्रकाश नारायण ही ऐसे नेता थे, जिन्होंने कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात की. थोडा़ बहुत संघर्ष वाहिनी ने भी यह बात रखी थी.


1994 तक आंध्रप्रदेश पीयूसीएल वालों ने कश्मीर के लिए टीम भेजी और सेल्फ डिटरमिनेशन की बात की. लेकिन बाद में वे भी चुप हो गये. यह देखने वाली बात है कि शुरू के उन भयंकर दिनों में तो वे बोल रहे थे, लेकिन बाद में वे चुप हो गये. इसकी कई वजहें हो सकती हैं. एक वज़ह तो यह भी हो सकती है-और इस पर शोध होना चाहिए- कि शुरू में स्ट्रगल जेकेएलएफ़ के हाथ में था और वह सेकुलर था तो लोगों को उसे स्वीकार करने में दिक्कत नहीं हुई. 1994 तक जेकेएलएफ़ को खदेड़ दिया गया और हिज्बुल जैसे संगठन आ गये. ये लोग इस्लामिक व पाक समर्थक छवि वाले थे. तब पीयूसीएल जैसे संगठनों के लिए अजीब स्थिति रही होगी.

कश्मीर में हालात किस तरफ़ जा रहे हैं?


हालात वहां बदल तो रहे हैं. पाकिस्तान सरकार का रवैया ही बहुत बदला है. लेकिन सिर्फ़ इन तक ही मुद्दे को सीमित कर के देखने से हम वही गलती दोहरायेंगे कि यह सिर्फ़ हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मसला है. इसमें कश्मीर के लोगों को शामिल नहीं किया गया है. यह तो वही पुराना और गलत नज़रिया है. आप बेशक समझौते कर लीजिए, अखबारों में छा जाइये, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी पब्लिसिटी हो जायेगी, लेकिन इससे मुद्दा तो सुलझने वाला नहीं है. हां, यह भले हो सकता है इससे कुछ चीज़ो पर असर पडे़.


एक अजीब सी स्थिति है वहां, कि वहां एक चुना हुआ लोकतांत्रिक ढांचा है, लेकिन जो बातचीत चलती है, वह हुर्रियत के लोगों के साथ होती है. हुर्रियत के लीडर कहते हैं कि हम तो सिर्फ़ सेंटीमेंट्स को रीप्रेजेंट करते हैं. जो आपके लोकतांत्रिक उपकरण हैं, उन से तो आप बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे तो आपके ही ढांचे का हिस्सा हैं.तो इससे अपने लोकतांत्रिक ढांचे के बारे में हिंदुस्तान का क्या नज़रिया है, यह पता चलता है. पीडीपी, नेशनल कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के बारे में हिंदुस्तान सोचता है कि वे तो अपने ही कर्मचारी हैं.

कश्मीर में फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी फिल्मों की क्या स्थिति है?


वहां फिल्में नहीं बनती. घटिया किस्म का पॉपुलर ड्रामा बनता है. दूरदर्शन के जरिये निर्बाध पैसा जाता है, कल्चर को बरबाद करने के लिए, घटिया कार्यक्रमों के लिए. सबसे अधिक जो भ्रम था वह यही था कि मान लिया कि यह बंदा (संजय काक) दिल्ली में रहता है, मगर यदि ये फिल्म बना सकता है तो हमलोग क्यों नहीं. उसकी वजह यह नहीं कि हमने कोई बहादुरी दिखा कर फिल्म बनायी है, ऐसा कुछ नहीं. बात यही है कि हमने ईमानदारी से फिल्म बनायी. कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं. वहां चहारदीवारी के भीतर बढिया बातें मिलती हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं. अगर मैं दिल्ली का हूं, संजय काक हूं, पकडा भी जाऊं तो भाग सकता हूं. मगर कोई स्थानीय है तो उसके लिए संभव नहीं.

भारत में क्या आपको लगता है कि इन सबके संदर्भ में कोई वैकल्पिक माध्यम और साधन खड़े करने चाहिए?


यह तो हो रहा है. 10 वर्षों में काफी बदलाव आया है. 10 साल पहले ऐसी फिल्म बनाने की मैं सोच भी नहीं सकता था. शूट पर जाना होता था तो छह लोग, ताम-झाम, बडा-सा कैमरा. शूट करके लाए तो एडिटिंग का भी प्रति घंटा किराया देना होता था. इसलिए अधिक से अधिक 20 से 40 मिनट की फिल्म बना सकते थे.

जब से नयी तकनीक आयी है तब से कैमरे से ही काम चल चल जाता है. एडिटिंग आप अपने कंप्यूटर पर कर सकते हैं. आसान हो जाने के कारण लोग हर जगह फिल्म बना रहे हैं. अच्छी हो या बुरी, पर वैकल्पिक फिल्में बन रही हैं.

अब वितरक की बात है. आनंद पटवर्धन के पास पहले दो प्रिंट होते थे, जिन्हें प्रोजेक्टर लेकर वे दिखाते थे. अब डीवीडी-वीसीडी से बिलकुल कायाकल्प हो गया है. प्रोजेक्टर सस्ते और हल्के हो गये हैं. कह सकते हैं कि तकनीक हमारे साथ है. और इसी की बदौलत हम नैरोकास्टिंग कर रहे हैं. एक चुनींदा ग्रुप को इकट्ठा किया और दिखाया. वे फिर बहुत लोगों को बतायेंगे, फिल्म पर चर्चा करेंगे. यह उत्साहजनक है. इस तरह हम भयंकर मास मीडिया को चुनौती दे रहे हैं. हम अपने हाशिये पर खड़े बहुत खुश हैं.

हालांकि वह मास मीडिया तो और भयंकर होता जायेगा, लेकिन अगर हम उसकी तरफ देख कर डरने लगे तो फिर कुछ नहीं कर पायेंगे. दूसरी बात कि मास मीडिया जितना बेवकूफी भरा होता जा रहा है, उतना ही लोग उससे कट रहे हैं, हमारी ओर आ रहे हैं. अगर उनको कुछ समझ नहीं आ रहा है तो कहते हैं कि चलो तुम बता दो. हम उसे चुनौती कितनी दे पाते हैं, यह अलग बात है. इतना बडा कैपिटल स्ट्रक्चर है. लोग फिल्में पहले खरीदते नहीं थे, अब जहां भी हम जाते हैं, वे हमसे सीडी की मांग करते हैं.

आप इसे इस तरह देख सकते हैं कि हम लोगों की समझ का निर्माण कर सकते हैं, मास मीडिया को चुनौती देते हुए. किसी घटना के बारे में हमारी समझ अखबारों से नहीं बनती, बल्कि यह इमेल या दूसरे ऐसे ही माध्यमों से बनती है. असली बात का पता इसी तरह लगता है. अंगरेजी में यह सब शुरू हो चुका है, हिंदी में भी हो रहा होगा. अखबार आप इसलिए पढते हैं ताकि सिस्टम क्या समझता है, यह जान पायें. अभी तो ब्लॉग भी एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है.
(www.raviwar.com से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090128

धान के कटोरे में बीड़ी

पंद्रह साल पहले जब मैं पहली बार शादी के बाद कांकेर जिले में मेरी पत्‍नी सुभद्रा के गाँव जेपरा गया था तो मेरा स्‍वागत बीड़ी, तेंदु पत्‍ते और तम्‍बाकू से भरे एक सूपड़े से हुआ था. यह इसलिए कि सुभद्रा के पुश्‍तैनी घर में घुसते ही बरामदे में उसकी बीड़ी बनाती हुई भाभी हमें देखकर उस सूपड़े को हाथ में लेकर स्‍वागत के लिए उठी थी.

वह वर्षा ऋतु थी जो कि धान की खेती करने वालों के लिए बहुत व्‍यस्‍त समय है. इसलिए मुझे आश्‍चर्य हुआ था कि सुभद्रा की भाभी खेत में काम करने के बजाय घर में बैठ कर चंचल उंगलियों से बीड़ी बना रही थी. उस समय बरसात के दिनों में जेपरा तक कोई मोटर वाहन नहीं चलता था क्‍योंकि बीच में महानदी पड़ती थी एवं उस पर कोई पुल नहीं था. इसलिए हम दोनों हमारे बैगों को सर पर रखकर पैदल ही १२ किलोमीटर चलकर एवं महानदी को नाव से पार कर जेपरा पंहुचे थे. फलस्‍वरूप मैंने तुरंत, मेरे हिसाब से बेमौसम, बीड़ी बनाने के इस कवायद के पीछे के रहस्‍य को जानने की कोशिश नहीं की थी.

पर कुछ दिन बीतने के बाद मैंने भाभी को पूछ ही डाला कि खुद के खेत होते हुए भी वह उस में काम क्‍यों नहीं कर रही है. जो जवाब हमें मिला उसने छत्‍तीसगढ़ के छोटे एवं सीमांत किसानों की दर्दनाक हकीकत को उज़ागर कर दिया. एक हेक्‍टेयर खेत के मालिक मेरे साले ने उस खेत को सालाना मुनाफे पर किसी और किसान को दे दिया था. इतने छोटे एक फसली खेत के लिए बैल की जोड़ी एवं अन्‍य कृषि उपकरण रखने का कोई अर्थ नहीं होता है. और किराये पर बैल जोड़ी लेकर मजदूरों से काम करवाने से जो उत्‍पादन होता है, उससे ज्‍यादा खेत को मुनाफे में देकर मिल जाता है. इसके अलावा घर में ही बैठकर बीड़ी बनाकर अतिरिक्‍त कमाई भी हो जाती है जिसके लिए खेत के कीचड़ में गंदा नहीं होना पड़ता है.


छत्‍तीसगढ़ के करीब ६० प्रतशित कृषक परिवार दो हेक्‍टेयर से कम जमीन के मालिक हैं एवं यह भी ज्‍यादातर एक फसली हैं. फलस्‍वरूप इन सभी के सामने सुभद्रा के भाई के जैसे ही संकट है कि कृषि कार्य से पर्याप्‍त आमदनी नहीं हो पाती है. ऐसे में बड़ी संख्‍या में कृषक खेती बारी छोड़कर अन्‍य कृषकों को अपनी जमीन मुनाफे या भाग से दे देते हैं एवं खुद या तो पलायन कर जाते हैं और नहीं तो बीड़ी बनाकर जीवन यापन करते हैं. परंतु बीड़ी बनाने का काम ही क्‍यों और कुछ क्‍यों नहीं?

बीड़ी का एक प्रमुख कच्‍चा माल है तेंदु पत्ता. यह छत्‍तीसगढ़ के जंगलों में प्रभूत परिमाण में उपलब्‍ध है एवं ज्‍यादातर गरीब आदिवासियों के सस्‍ते श्रम से यह एकत्रित होता है. इन आदिवासियों के पास भी गर्मी के मौसम में तेंदु पत्‍ता एकत्रित करने के अलावा कोई दूसरा रोजगार नहीं होता है. इसलिए भूखे मरने के बजाए यह लोग बेहद सस्‍ती दरों पर यह काम करते हैं. यानी छत्‍तीसगढ़ के बीड़ी निर्माता कम्‍पनियों को तेंदु पत्‍ता संग्राहक एवं घर में बैठकर बीड़ी बनाने वाले दोनों ही बहुत कम कीमत में उपलब्‍ध हो जाते हैं एवं वह बीड़ी भी इसलिए भारत के अन्‍य बीड़ी निर्माता कम्‍पनियों की तुलना में कम कीमत में बेच सकते हैं. ऐसे में आश्‍चर्य नहीं कि छत्‍तीसगढ़ में बीड़ी उद्योग फलफूल रहा है एवं परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि नए दामादों का स्‍वागत धान से नहीं बल्कि बीड़ी के अवयवों से भरे सूपड़ों से होता है.

छत्‍तीसगढ़ में किसानी की इस दुर्दशा के पीछे एक बहुत बड़ी अंतर्राष्‍ट्रीय साजिश है. अमरीकी बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के इशारों पर अंतर्राष्‍ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों ने रासायनिक खाद से पैदा होने वाले संकरित किस्‍म के चावलों को पूरे छत्‍तीसगढ़ में फैला दिया जिससे छत्‍तीसगढ़ की पारम्‍परिक कृषि ठप्‍प हो गई. इस पारम्‍परिक कृषि में कमी तकनीक की नहीं बल्कि पूंजी निवेश की थी क्‍योंकि साहूकारों के चंगुल में फंसे होने के कारण छोटे किसानों के पास अपनी खेतों को विकास कर उन्‍हें दो फसली बनाने हेतु संसाधन नहीं थे. परंतु भारत सरकार ने साहूकारों पर लगाम कसने और पारम्‍परिक कृषि को बढ़ावा देने के बजाय बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के व्‍यापारिक हितों को ज्‍यादा तौल दिया क्‍योंकि इन हितों के साथ छत्‍तीसगढ़ के चावल और बीड़ी बेचने वाले व्‍यापारियों के हित भी जुड़े हुए थे. आम किसान अगर आर्थिक रूप से कमजोर एवं भूखा रहता है तो श्रम का मूल्‍य भी कम रहता है जिससे देशी से लेकर विदेशी सभी प्रकार के व्‍यापारियों को फायदा होता है.

छत्‍तीसगढ़ में कृषि केवल एक जीविकोपार्जन का माध्‍यम नहीं बल्कि एक सम्‍पूर्ण जीवनशैली थी जिसमें जमीन एवं पानी का संरक्षण भी शामिल था. इसीलिए ग्रामीण समुदाय एक दूसरे से हाथ मिलाकर तालाबों और खेतों की इतनी हिफाज़त से देखभाल करते थे. परंतु जब कृषि को व्‍यापार में बदल दिया गया एवं कृषक को श्रमिक में तो यह जीवनशैली भी ध्वस्‍त हो गई एवं ग्रामीण छत्‍तीसगढ़ में बीड़ी निर्माण का बोलबाला हो गया. वर्तमान में परिस्थितियां विकराल हैं एवं ग्रामीण छत्‍तीसगढि़यों का औसत आय देश में सबसे कम है एवं वे विश्‍व में सब से ज्‍यादा कुपोषितों में शुमार होते हैं.

छत्‍तीसगढ़ सरकार द्वारा इस संकट से जूझने के लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को तीन रुपए प्रति किलो के हिसाब से 35 किलो चावल प्रति माह मुहैया कराया जा रहा है. परंतु यह एक अस्‍थायी एवं अपर्याप्‍त समाधान है. असली जरूरत यह है कि कृषि की बुनियाद को ही पुख्‍ता किया जाए ताकि छोटे किसान एक बार फिर खुशी के साथ खेती करने लगे और उसी से अपना गुजारा अच्‍छे ढंग से कर पाए.

इसके लिए अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही व्‍यापारिक दुराग्रह से ग्रसित शासन एवं नियोजन प्रणालियों को बदलकर आम जनता को स्‍वावलम्‍बी जीवन यापन करने के पूर्वाग्रह से सुशोभित शासन एवं नियोजन प्रणालियों को अपनाना होगा. बीड़ी के बदले चावल के चीले का सेवन ज्‍यादा हो इस ओर ध्‍यान देना होगा. एक हेक्टेअर भूमि वाला किसान भी उसका परिवार अच्‍छे ढंग से चला पाए इसके लिए जो कदम जरूरी है उसे अपनाना होगा. यह कदम सभी को मालूम है– इमानदारी से ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का भरपूर इस्‍तेमाल कर पारम्‍परिक कृषि एवं उससे जुड़ी विकेंद्रीकृत भू एवं जल प्रबंधन योजनाओं का क्रियान्‍वयन करना. परंतु इसे क्रियान्वित करने की इच्‍छाशक्ति लगता है जनता और शासकों में किसी में भी नहीं है और इसीलिए बीड़ी के कश लेकर ही लोग अपने दु:खों को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं.
(रविवार.कॉम से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

कर्नाटक के दंगे के पीछे क्षुद्र ईसाइयत

वहां चर्च की ओर से आयोजित प्रार्थना सभाओं में एक पुस्तिका सार्वजनिक रूप से वितरित की गयी जिसका नाम है- सत्यदर्शिनी. इम पुस्तक के पेज नंबर ४८ से ५० पर ऐसे कुछ पैराग्राफ हैं जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं के लिए अत्यंत अनादरपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. इन प्रार्थना सभाओं में ईसाईयों के अलावा हिन्दू लोग भी भारी संख्या में आये थे. उन्होंने पढ़ा तो प्रतिक्रिया तो होनी ही थी. इसका समाज और गांव के लोगों ने विरोध किया.

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एक अनूठा विवाह समारोह

वे एक शादी में शामिल होने आए थे. वर-वधू को आशीर्वाद देने के बाद बड़े इत्मीनान से कुर्सियों पर जम गए. यहां तक कि पंडाल में लगी खाने की मेज की तरफ देखना भी उन्होंने गवारा नहीं किया. कृषि संकट पर अपने विचार प्रकट कर रहे विद्वजनों की बातों को वे बड़े ध्यान से सुन रहे थे. क्या आप कभी इस तरह की अनोखी शादी में शामिल हुए हैं या फिर इसके बारे में सुना तक है? अगर नहीं तो कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले के होसदुर्ग गांव में आपका स्वागत है. निश्चित तौर पर इस गांव ने एक नई मिसाल कायम की है.


यह विवाहोत्सव शहरों में होने वाली शादियों में शानो-शौकत का भद्दा प्रदर्शन करने वाले नवधनाढ्य वर्ग को शर्मसार करने वाला है. इस असाधारण शादी में हुए नवीन प्रयोग ने उत्प्रेरक का काम किया. चित्रदुर्ग और पास के अन्य जिलों के हजारों किसान रविशंकर और शकुंतला की शादी में शामिल होने होसदुर्ग गांव पहुंचे. लोगों द्वारा विवाह में धूमधाम न करने का कारण मुंबई हमलों से विषादग्रस्त मन:स्थिति नहीं थी, बल्कि कर्नाटक में भयावह कृषि संकट के कारण उनकी बदहाली ने उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया.

कोई दो हजार मेहमान तब हैरान रह गए जब मेजबान ने उन्हें बताया कि कृषक समुदाय के ज्वलंत मुद्दों पर प्रकाश डालने के लिए उन्होंने चार विशेषज्ञों को आमंत्रित किया है. इस अभियान के संयोजक कर्नाटक राज्य रैयत संघ के महासचिव सिद्दवीरप्पा के अनुसार, ''मैं जानता था कि लोग चौंक जाएंगे, लेकिन मैं उन्हें शानदार दावत के साथ-साथ दिमागी खुराक भी देना चाहता था. और इससे अच्छा क्या हो सकता था कि लोग अपनी दु:ख-तकलीफों और संघर्र्षो के बारे में बताएं.''

लोगों ने भी उन्हें निराश नहीं किया. वे बड़े धैर्य और रुचि के साथ रात दो बजे तक वक्ताओं के विचार सुनते रहे. इस बातचीत में वे इतने खो गए थे कि खाना खाने का कार्यक्रम बार-बार टालना पड़ा. आखिर रात के दो बजे लोगों ने भोजन किया. सुबह 11 बजे से रात तीन बजे तक चले इस कार्यक्रम में मेहमानों के साथ-साथ वर-वधू भी डटे रहे. इसमें तभी व्यवधान पड़ता था जब कोई वर-वधू को आशीर्वाद देने के लिए वहां पहुंचता था.

लोगों ने हरित क्रांति के कारण पर्यावरण के विनाश, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण बंजर हो रही धरती को बचाने और निरंतर जलदोहन के कारण भूमिगत जलस्तर में आ रही गिरावट के बारे में सवाल किए. उन्होंने आर्गेनिक खेती के फायदों के बारे में बात की. प्राकृतिक कृषि पद्धति के विविध पहलुओं पर सवाल किए. वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या इस पद्धति से खेती करने पर पैदावार गिर जाएगी और उनकी आमदनी घट जाएगी?

आर्गेनिक कृषि व्यवस्था के संबंध में बेंगलूर से आए चंद्रशेखर ने ग्रामीणों की जिज्ञासा शांत की. तिप्तुरु के ग्रामीण कालेज में प्राध्यापक कृष्णमूर्ति ने किसानों को उन चुनौतियों से निपटने के उपाय बताए जिनसे वे जूझ रहे हैं. उन्होंने कर्नाटक के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में किसानों द्वारा आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं और इन्हें रोक पाने में सरकार की विफलताओं पर भी प्रकाश डाला.

सिद्दवीरप्पा ने बताया कि उनका उद्देश्य किसानों को यह अहसास कराना था कि वे कृषि के नाम पर व्यवसाय के शिकार हैं. कृषि और संस्कृति में बड़ा विभेद पैदा हो गया है. किसान भूल गए हैं कि कृषि एक व्यवसाय न होकर संस्कृति है. हम गलत तरीके से व्यापार करने की कीमत चुका रहे हैं. इसीलिए किसान मर रहे हैं.

तिप्तुरु से ही एक पत्रकार उज्जाजी राजन्ना ने विशेष आर्थिक क्षेत्र की प्रकृति पर प्रकाश डाला. उन्होंने बताया कि विकास के नाम पर जमीन हड़पी जा रही है. इस त्रुटिपूर्ण नीति के सामाजिक, राजनीतिक और राजनीतिक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं. बड़े पैमाने पर किसान जमीन से बेदखल हो रहे हैं और उनके पुनर्वास की सरकार को चिंता नहीं है.

बेंगलूर स्थित यूनिवर्सिटी आफ एग्रीकल्चर साइंस में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर ने सूखाग्रस्त इलाकों में जैव-विविधता के संदर्भ में भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रखने में बाजरे की खेती के महत्व पर प्रकाश डाला. डा. प्रकाश ने कहा कि कभी चित्रदुर्ग जिले में ज्वार-बाजरे की खेती बहुतायत से होती थी. बाजरे की सोरगुम, रागी, कोडू आदि किस्मों की पैदावार होती थी. अब किसानों ने न केवल बाजरा, बल्कि सब्जियों की खेती करना भी बंद कर दिया है. टिकाऊ कृषि व्यवस्था के लिए सब्जियों की खेती बहुत जरूरी है. बातचीत के दौरान महिलाओं ने फिर से सब्जियों की खेती करने की रुचि दिखाई.

भूमि की उर्वरता बढ़ाने पर लोगों की रुचि देख एक प्रस्ताव पारित किया गया कि जिले के प्रत्येक घर में किचेन गार्डन तैयार किया जाएगा. इस पर भी सहमति बनी कि प्रत्येक किचन गार्डन में मोटे अनाज की कम से कम एक फसल जरूर बोई जाएगी. डा. प्रकाश ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि क्या विवाहोत्सव में इस तरह के प्रस्ताव की बात सुनी है? आल्हादित होकर वह बोले, ''मैं सपने में भी ऐसा नहीं सोच सकता था.''

उत्साहित सिद्दवीरप्पा ने कहा कि अगर हम सब्जियां और मोटे अनाज की पैदावार करें तो प्राथमिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में निश्चित तौर पर आत्मनिर्भरता हासिल कर सकते हैं. यह निर्णय लिया गया कि केआरआरएस, महिला संगठन और गैर-सरकारी संगठन मिलकर प्रयास करें कि एक साल में प्रत्येक घर में एक किचेन गार्डन हो.

उक्त अवसर पर यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि भविष्य में होने वाली शादियों में परोसी जाने वाली सब्जियों में से कम से कम आधी सब्जियां परंपरागत होनी चाहिए. यह एक ऐसा सबक है जो न केवल कर्नाटक, बल्कि पूरे देश के किसानों के लिए महत्वपूर्ण है. अगर किसान शहरी संभ्रांत वर्ग का अनुसरण करने के बजाय अपने अस्तित्व की चिंता करें तो उन्हें सही राह आसानी से मिल जाएगी.

(www.raviwar.com से साभार)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

पाकिस्तान से लंबी लड़ाई की योजना बनाईये

अजय साहनी Institute of Conflict Management के फेलो हैं. उनका मानना है कि पाकिस्तान के साथ ये लड़ाई आप एक महीने में नहीं जीत सकते. क्योंकि हम ये लड़ाई एक महीने में जीतने की कोशिश कर रहे हैं इसीलिए ये बीस साल से चल रही है, आप एक बीस साल की योजना बना लीजिये तो पाँच साल में ये लड़ाई खत्म हो जायेगी. यह रक्षात्मक युद्ध है, एक लंबा युद्ध है, इसको छोटे युद्ध की तरह लड़ने का मतलब है अपनी क्षमता जाया करना.

प्रश्न- अमेरिकी दबाव के बाद पाकिस्तान ने जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोएबा के खिलाफ कार्रवाई भी की है और उसके नेताओं को गिरफ्तार भी किया है. पाकिस्तान की ये कार्रवाई आतंकवादियों के खिलाफ कितना कारगर है?
अजय साहनी- दरअसल कार्रवाही करने का कोई इरादा होता तो खुद की होती. रुके ना होते कि इतना दबाव दुनिया का बढ़े तब वो हल्की सी हरकत करे. सदर से लेकर वजीरेआज़म तक जितने भी सरकार के लोग हैं, एक ही रवैया था इनका, इन्कार का. यहाँ पर लश्कर-ए-तैयबा नाम की कोई चीज ही नहीं है, कोई आतंकवादी शिविर नहीं हैं. किसी किस्म की आतंकवादी गतिविधि यहाँ से नहीं चल रही है। अगर सच्चाई मन में होती, तो वो कहते हाँ भई पता कर रहे हैं, देखते हैं. और पता क्या करते हैं, सबको मालूम है कि लश्करे-ए–तैयबा क्या है.

प्रश्न- पाक ने एक तरह से मान लिया कि है कि मुंबई पर जो आतंकी हमला हुआ वे पाकिस्तानी हैं लेकिन अब जानबूझकर झूठ बोल रहा है.
अजय साहनी- मैं पूछता हूँ कि जब इतने उच्च स्तर से खारिज़ किया जा रहा था तो चौबीस घण्टे के अन्दर- अन्दर इन्होने कैम्प भी ढ़ूँढ़ निकाले, जिन लोगो का जिक्र हम कर रहे थे, उनको भी ढ़ूँढ़ निकाला तो ज़ाहिर हैं ये सब लोग इनकी जानकारी में थे और जानकर झूठ बोला जा रहा था. वज़ीरे आज़म, सदर के स्तर पर झूठ बोला जा रहा था. असल में यही मुद्दा है. ये नहीं कि उन्होंने मना किया और फिर अब वो कार्रवाही कर रहे हैं. उन्होने मना नहीं किया, और अभी भी जानबूझकर झूठ बोल रहे हैं. ये जानते हुऐ कि लश्कर यहाँ हैं, लश्कर भारत के खिलाफ अभियान चला रहा है और इस कार्रवाई में लश्कर भी शामिल है. लश्कर के लोग इस षणयंत्र में शामिल हैं, अगर इस षण्यंत्र में शामिल नहीं होते तो क्यों इस बात से इंकार करते कि हमारा कोई हाथ नही है.

प्रश्न- लेकिन अब जब अमेरिका के दबाव में ही सही पाक ने कुछ कार्रवाई शुरू की है तो क्या आपको लगता हैं कि आतंकवादियों पर वाकई कोई रोक लग पायेगी?
अजय साहनी
- देखिये ये दबाव पहले भी आया हैं और ये जो कार्रवाईयां जो आप देख रहे हैं ये तो पहले भी हुई हैं. २००२ के बाद ये होती रही हैं, जब भी दवाव बढ़ता हैं वो किसी को नजरबंद कर लेते हैं किसी को किसी गेस्ट हाउस में पकड़ के रखते हैं, सौ पचास को जेलों में डाल देते हैं. लेकिन उसके बाद पूछिये कि इनमें से भी एक को इन्होंने सजा दी है? या इनकी गतिविधियां रुकवाईं? उल्टा आप ये देखेंगे कि लश्करे-ए-तैयबा को तथाकथित रूप से प्रतिबंधित करके उसी संस्था को जमात़–उद-दावा के नाम से सरकार से पता नही कितना करोड़ रुपया मिला था और दुनिया से उन्होंने जितना रुपया लिया था कश्मीर में आये भूकंप के बाद रिलीफ के नाम पर जमात-उद-दावा को दे दिया. जो सबसे खतरनाक संस्था आपके देश में है, उसी से सरकार काम करवा रही है तो कोई तालमेल तो जरूर है उनके बीच में. ये सब दिखाने की चीजें हैं. इसका एक निष्कर्ष निकलता है कि अगर दबाव कम नहीं हुआ तो मजबूरन ये कुछ करते रहेंगे, इनको करना पड़ेगा. लेकिन ये है अंग्रेजी में जिस तरह कहते हैं कि they are minimal satisfier, कम से कम जो कर सकते हैं वो करें, ज्यादा से ज्यादा नही करें. मजबूरन जितना कम से कम उनसे कराया जायेगा, उतना वो कर देंगे. जहाँ उनको जगह मिली, बहाना मिला, वो हट जायेंगे.

प्रश्न- पाकिस्तान के इस रवैये के बाद भारत विरोधी आतंकवादी संगठन पर किस तरह लगाम लगाई जा सकती हैं, या ये वैसे ही चलता रहेगा?
अजय साहनी- देखिये जब तक आप कहीं ना कहीं से लग़ाम लेके आयेंगे, तब लगायेंगे ना, आपके हाथ में कोई औजार तो है ही नहीं लग़ाम लगाने का. ये चीखते रहना कि हम उनके ऊपर बमबारी कर देंगे, हम जंग कर देंगे, ये सब तो होने वाला नहीं हैं वो भी परमाणु (nuclear) देश हैं, आप भी परमाणु देश हैं, इतनी तो हिम्मत हमारी है नहीं. हिम्मत तो छोड़िये, क्षमता भी नही है। क्षमता की बात पहले आती हैं, हिम्मत बाद में आती हैं क्योंकि क्षमता के बगैर हिम्मत बेबकूफी़ होती है. अब एक ही रास्ता बचता है COVERT OPERATION (गुप्त राजनीतिक और असैनिक लड़ाई) का. वो इन नेताओं ने दशकों से खत्म करके रखी है, एजेंसियों को बिल्कुल कह दिया है कि आप कुछ नहीं करें, यह आपका काम नहीं हैं, आप यहाँ बैठ कर केवल सूचनाएं इकट्ठा करिए.
प्रश्न- ये जो बताया जाता हैं कि 1977 में रॉ (RAW) के पास इतनी क्षमता थी कि जुल्फिकार अली भुट्टो को जेल से निकालकर भारत तक का पहुचाने का plan उसने दिया था सरकार को. आज वहीं पर दाऊद रह रहा हैं, भारत के खिलाफ सबकुछ कर रहा हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
अजय साहनी- आप जानते हैं कि 1977 से ही रॉ की सारी क्षमतायें खत्म कर दी गई। मोरारजी देसाई के जमाने में RAW की क्षमता को नेस्तनाबूत कर दिया गया. ये तभी से सिलसिला शुरू हुआ था और किसी सरकार ने इस सिलसिले को उल्टा मोड़ने की कोशिश नहीं की. किसी सरकार ने नहीं कहा कि भई बहुत हो गया, अब वापिस अपनी क्षमता बनाइये. बिना राजनीतिक अनुमति के कोई भी एजेंसी कुछ नहीं कर सकती.

प्रश्न- लेकिन राजनीतिक अनुमति क्यों नहीं मिलती जबकि हर आतंकवादी हमले के बाद राजनीतिज्ञ पाकिस्तान को सबक सिखाने की धमकी देते रहे.
अजय साहनी- वो सिर्फ हमारे नेता आपको बता सकते हैं. वो राजनीतिक अनुमति इसलिए नही है क्योंकि हमारे नेताओ में सुरक्षा की कोई समझ ही नही है. कोई दूरगामी सोच ही नही है, जो अपने देश में कार्यवाही करने की क्षमता नहीं रखते वो किसी और देश में कार्यवाही करने का क्या गुमान रखेंगे. उनको समझ ही नहीं है.

प्रश्न- तो आपको क्या लगता हैं क्या वाकई में नेताओ में क्षमता नही हैं, रक्षा संस्थानों में क्षमता हैं लेकिन क्षमता को बनाया नहीं गया?

अजय साहनी- देखिये आप संसाधन नही देंगे और आदेश नही देंगे तो सुरक्षा एजंसियां कुछ नही कर पायेगीं.

प्रश्न- तो आपको क्या लगता हैं ये जो आतंकवाद का हमला जिस ढंग से मुम्बई में हुआ और जो पहले भी होता रहा हैं ये आगे भी लगातार यूँ ही चलता रहेगा?अजय साहनी- जब तक इसका आप कुछ हल नहीं निकालेंगे तब तक चलता रहेगा, मुझे तो हैरत ये होती है कि और ऐसे हमलें क्यों नही होते, साल में दो चार ही क्यों होते हैं. जहाँ तक भारत का सुरक्षा तंत्र है, उसमें इनको रोकने की कोई खास चिन्ता नहीं है. अगर रोज ऐसे ही हादसा हो तब भी कुछ नहीं हो पायेगा। तो ये ही बात रह गई कि वो हम पर हमला नहीं करवा पा रहे हैं. उनमें इतनी क्षमता नही है, वरना यहाँ तो आये दिन हो, आप किस जगह रोक लेंगे, आप बताइये, आप मुम्बई में रोक नहीं सकते, आप दिल्ली में नहीं रोक सकते, हर जगह पर यह हो गया है.

प्रश्न- एक तरफ भारत और अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव बना रहा है और उसी दबाव में पाकिस्तान सरकार कार्रवाही भी कर रही हैं. लेकिन दूसरी तरफ जिस ढंग से पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने ज़रदारी सरकार के खिलाफ हमला शुरू कर दिया, ऐसी स्थिति में क्या लगता है कि पाकिस्तान का वजू़द खतरे में आ गया है और वो एक तरह से बिखरने के कगार पर है?

अजय साहनी- ये कोई नई चीज नही है, १९८०-१९९० के बीच कई रिपोर्ट ऐसी निकलीं थीं. ये २००१ के पहले की बात हैं ०९/११ के पहले की बात है, जो हालात आज पैदा हुऐ हैं उससे पहले की बात हैं. तकरीबन पूरी दुनिया में जितने भी इस चीज के अनुमान लगाये गये हैं, उनमें सबमें ये यही एक ही निष्कर्ष था कि पाकिस्तान जिस हाल में है उस हाल में नहीं रह सकता, वो तरक्की नहीं कर सकता, उसके अन्दरूनी विरोधाभास उसे एक आंतरिक एनार्की में ले जायेंगे और इसके टुकड़े हो जायेंगे. ये असलियत पाकिस्तान की पहले से ज़ाहिर थी और ये जो इसके रूझान हैं वो पिछले दस साल में, बारह साल में बढ़े हैं, घटे नहीं हैं. तो मेरे हिसाब से पाकिस्तान का कोई भविष्य नही है. सवाल ये हैं कि ये कब टूटेगा और किस तरह से टूटेगा और यही मैं बार- बार कहता हूँ कि ये देश तो बर्बाद है ही, दुनिया को अब ये सोचना चाहिये कि इस बर्बादी को किस दिशा में ले जाया जाये. पसंद यह नही है कि इसको आबाद कर दिया जाये. अमेरिका कोई दस-बीस बिलियन डॉलर इनको दे देगा तो ये सब ठीक हो जायेंगे, ये नहीं हो सकता, ये तो बर्बाद होंगे ही होंगे.

अब सवाल ये हैं कि इसकी बर्बादी किस दिशा में ली जायेगी. हमारी, अमेरिका की, या अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जो नीति है उसको देखना चाहिये कि अगर पाकिस्तान टूटता है तो वो किस तरह से टूटे. हमें यह देखना होगा कि वह तालिबान के हाथ में ना जाये. अगर आपको लगता है कि वर्तमान सरकार सही दिशा में नहीं जा रही है पूरा समर्थन हटा दीजिये, पाकिस्तान की आवाम में बाकी जो जमातें हैं, उनमें लोग ढूढिये जो पाकिस्तान को या पाकिस्तान के किसी भी हिस्से को सही दिशा दे सकें, बलूचिस्तान को सही दिशा दे सकें, बिल्कुल सही दिशा दे सकें. नार्थ वेस्ट फ्रण्टियर को नई दिशा दे सके, पंजाब को छोड़ दीजिये.

प्रश्न- यानि की ले देके एक पूरा निष्कर्ष ये निकल रहा है कि भारत के सामने एकमात्र विकल्प है कि हम अपनी agencies को मजबूत करें और पाकिस्तान में Covert Operation शुरू करें?
अजय साहनी- बेशक. और कोवर्ट आपरेशन से मेरा आशय है कि यह आपरेशन हर मायने में हो. ऐसे अभियान हिंसक नहीं होते. ये राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों ही स्तरों पर चलाए जाते हैं. ये लंबे समय के आपरेशन होते हैं और इनका दायरा विस्तृत होता है. लोग समझते हैं कि कोवर्ट आपरेशन का मतलब सिर्फ किसी को गुपचुप तरीके से ठिकाने लगा देना या मार देना. ऐसा बिल्कुल नहीं है.

प्रश्न- एक आखिरी सवाल कि इस पूरी स्थिती में जो दबाब बना रहे हैं पाकिस्तान के ऊपर, अब क्या लगता हैं कि कश्मीर में जो आतकवादी सक्रिय थे उसपे कहीं ना कहीं कुछ समय के लिए विराम लगा है?

अजय साहनी- हां, लेकिन अब आतंकवाद कश्मीर से निकलकर पूरे देश में फैल चुका है. यह सही है कि दबाव में पाकिस्तान ने कश्मीर में अपनी योजनाओं को थोड़ा ढीला किया और कश्मीरी भी आतंकवाद से तंग आ चुके थे जिसका नतीजा इस चुनाव में दिखाई दे रहा है. लेकिन यह भी सच है कि अब वे कश्मीर से निकलकर पूरे देश में फैल चुके हैं.

(अजय साहनी से बात पर आधारित)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090127

IIT Heads Call for Alternative to Entrance Test

Three years ago, a JEE review committee had suggested a cutoff of 85% marks in standard XII for students to become eligible to appear for the JEE. “But the CBSE and other boards turned it down and wanted to have 60% as the cutoff . Now, that’s an easy score to get.

The coaching classes only help students in mastering (question paper) pattern recognising skills. With this, you cannot get students with raw intelligence. By attending the coaching classes, the students are learning a wrong lesson that the ends justify the means. They think there is nothing wrong in cutting classes to attend coaching. But the student does not realise his real loss.

While acknowledging that the JEE has led to proliferation of coaching classes and has put students under stress, IIT-Bombay director Ashok Misra is a bit cautious. “If we can develop another system that is not over-hyped, I am for it. But doing away with the JEE does not seem appropriate at present. We have been constantly working on tweaking the JEE as per the students’ needs and also to cut down on pressure,” he says.

Prof. V. G. Idichandy, Dean (students), IIT Madras, is even more vocal in his demand to abolish the JEE. “One of the reasons for the poor intake of girls in the flagship B.Tech. programme is because parents don’t send daughters for coaching classes. The best way to increase the intake of girls is to have direct admissions. It is sad that 12 years of schooling has no bearing on the admission to IITs. The overall capability of a student cannot be merely assessed by their performance in physics, mathematics and chemistry. The student must have good communication skills also,” he says.


Source: Times of India
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

Signs don’t match - Discrepancy in letters on IIT-M Director

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Right to Information has an important economic dimension, as it embraces not only political freedom but also the freedom to lead a life with dignity, unfettered by domination and discrimination.
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The presidential approval for M.S. Ananth’s reappointment as IIT Madras director appears to have been tampered with before being released under the Right to Information Act, casting fresh doubts on an appointment already under legal scrutiny.

Copies of the approval letters, provided by the human resource development (HRD) ministry and the President’s secretariat, carry different signatures, indicating that only one of the two can be authentic (see graphic).

Ananth’s reappointment for a second term as IIT director last year was set aside by Madras High Court last week on the ground that the appointment process violated the IIT Act. This was the first time a court had set aside the appointment of an IIT director.

A review petition against the order is expected to be filed this week on behalf of the ministry.

But discrepancies between the approval letters provided by the ministry and the President’s secretariat suggest foul play, said the appellant before the court, E. Muralidharan.

“This suggests foul play and needs to be investigated,” Muralidharan said. “It is a victory of the RTI Act that today citizens can contribute to bringing transparency in top appointments. But if this can happen in matters involving the highest office of the land (the President’s), it raises questions about what may be happening elsewhere. The discrepancy suggests bureaucratic corruption.”

Both approval letters carry the same text and are signed over the name of Barun Mitra, joint secretary in the secretariat. But the signatures differ.

Mitra, asked which was the original document, refused to explain the discrepancy. “I do not need to explain anything to you. These are official documents and I will only respond if I am asked officially,” he said.

Once official documents are released under the RTI Act, however, they become public documents.

In both letters, the presidential approval is dated June 28, 2007, when A.P.J. Abdul Kalam was President. The President’s approval to all director appointments in the IITs is mandatory since, as Visitor to the institutes, he is their highest authority.

“The question is not merely about identifying the original document. The larger question is: who tampered with a presidential approval and why,” Muralidharan said.

Public authorities approached under the RTI Act – in this instance the HRD ministry and the President’s secretariat -- are required to provide copies of the originals of the documents sought.

Ananth’s reappointment was made by the ministry and not the IIT Council, mandated by the IIT Act to appoint directors, the judge had said while setting aside the reappointment. Not involving the IIT Council, the institutes’ highest decision-making body, was a choice made consciously by the ministry, as reported in this newspaper on Saturday.

Ministry officials proposed calling meetings of the IIT Council on more than one occasion but the proposals were struck down each time.

Source: Telegraph (Kolkata)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

IIT-M Director Case

The Madras High Court (HC) on Tuesday set aside the reappointment of M.S. Ananth, Director, Indian Institute of Technology (IIT) Madras, for a second term. The Union Ministry of Human Resource Development reappointed Ananth to the post in June 2007.

This judgment, delivered by Justice K. Chandru, is unprecedented in the history of the IITs. The HC observed that the President’s Secretariat in New Delhi had communicated his reappointment to Ananth on June 28, 2007. However, the agreement signed between A.E. Muthunayagam, chairman of the IIT-M Board of Governors, and Ananth “was typed on a stamp paper purchased on June 25, 2007,” the judgment pointed out.

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Professor Ananth, whose stint at the IIT M began in 1972 as Assistant Professor, was appointed Head of the Department of Chemical Engineering in 1991. He later became the Dean of Academic Courses in 1995. He also held additional charge as Dean of Academic Research from 1997 to 1998. He was made Director in 2001. He is an alumnus of the A.C College of Technology and holds a Ph.D from the University of Florida.

Mr. M. S. Ananth was appointed on January 25, 2002 as IIT director with retrospective effect from December 24 2001 for a period of five years ending on December 23, 2006. A letter was issued by the Registrar of the IIT, stating that Ananth would continue in office till June 30, 2007.
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This, it said, raised “considerable suspicion” in the conduct of both Ananth and the chairman of the IIT-M Board of Governors. This also showed that Ananth, who has been a part of IIT-M’s faculty since 1972, seemed to have prior intimation that his tenure was being extended, the Court observed, while quashing his reappointment.

Further, the judgment noted, Ananth, who was first appointed director in December 2001, went out of office on the completion of his tenure in December 2006. He, however, continued to function as director till his formal reappointment on the basis of an internal arrangement with IIT-M. This, the court ruled, was illegal. Hence, the principle of superannuation would not apply in his case.

The judgment came in response to a petition filed by E. Muralidharan, an IIT alumnus, who had alleged “irregularities”.

Another Bench of the Madras HC had earlier dismissed Muralidharan’s petition as non-maintainable, but hearing an appeal against this order, a Division Bench of the High Court directed Justice Chandru to hear the case afresh.

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According to a quo warranto petition filed by an alumnus of IIT-M, E Muralidharan, Ananth was reappointed as director of the prestigious institute in 2007, even though his tenure was over in December 2006. As per the Statutes of the Information Technology Act,1962, the post of IIT Director came with a fixed tenure of five years or till the person attains the age of 65 years.

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However, contended the petitioner, a search-cum-selection committee “re-appointed” Ananth as a director, though such power rests only with the council that comprises the HRD Minister as the ex-officio chairman, and chairmen and directors of the institutes, UGC chairman, D-G, CSIR, chairman and director of IISc, among others, which cannot be entrusted to a delegate.

Upholding this argument, the court said Ananth’s continuation in the present post had to be seriously considered, as the term of office as specified under a statute “cannot be extended beyond a period”.

“When the Council had not appointed and even till date the Council was not even aware of (his) appointment as the director, IIT-M, it is unthinkable as to how he can continue in the office,” the court noted.

Though the circular sent by the joint secretary, MHRD, Department of Higher Education, had specifically stated that candidates should preferably be below 57 years of age, Ananth, who turned 63 last month, was nominated by the director of IIT-Bombay.

“Either he had not seen the circular or there was a determined effort to push the name of the second respondent (Ananth) for the said (director’s) post,” Justice Chandru noted, adding many persons found in the address list of those who were nominated “were either dead or had gone away from the addresses found in the list”.

The Act mandates that the approval from the Visitor of Institutes (President of India) was necessary to make appointments. “It is important to note that even though the approval of the Visitor was communicated by the President’s Secretariat only by a communication dated 28.6.2007, the agreement signed between the Chairman of IIT-M and the director was typed in a stamp paper purchased on 25.6.2007. It throws a considerable suspicion on their conduct,” observed the court.

“Though the IITs are founded by the Government and governed by an Act of Parliament, it is rather shocking that for the post of director of the institute, no public notice is given inviting applications. In today’s world, the Indian academics have spread all over the world. There should be a wider publicity for filling up the prestigious post like the director of IITs,” noted the court.

Ananth’s tenure as the director of IIT-M had ended on December 23, 2006, after which he was appointed to the post a second time with a tenure that would last till he turned 65.

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