पथराड नर्मदा के तट पर बसा हुआ इतना छोटा सा गांव है कि अगर आप अपनी मेज पर मध्यप्रदेश का नक्शा फैला लेंगे तो उसकी हैसियत सूई की नोक से शायद ही बड़ी हो। जल्द ही नक्शे पर सूई की नोक बराबर हैसियत वाला पथराड अपनी यह हैसियत भी खो देगा. लेकिन आप पथराड के इस अवसान पर मातम मत मनाइये. आप उस चार सौ मेगावाट बिजली से अपने हिस्सेदारी की चिंता करिए जो पथराड को डुबाकर आपके लिए तैयार होनेवाली है.
नर्मदा को लेकर लिखे गए अपने पिछले आलेख में मैनें जिक्र किया था कि मैं पिछले दिनों महेश्वर में था। जहां एस कुमार नामक कंपनी एक हाई डैम का निर्माण करा रही है, जिससे चार सौ मेगावाट बिजली पैदा होगी, मगर परियोजना के कारण तकरीबन 61 गांव डूब जाएगें। डूबने वाले उन्हीं गांवों में से एक है पथराड। जब मैं महेश्वर में था तो इस सेमिनार में उपस्थित तकरीबन 6०-7० पत्रकारों को इस परियोजना से प्रभावित गावों में जाने और वहां के लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। मैं जिस टीम में था वह टीम पथराड गांव गई थी। हम जब उस गांव पहुचे तो शाम ढल चुकी थी और अंधेरा पूरी तरह कायम हो चुका था।
चूंकि हम निर्धारित समय से काफी देर से पहुंचे थे, सो गांव के लोगों ने सबसे पहले खाने का आग्रह किया। तय हुआ कि दो-दो लोग एक घर में खा लेंगे। हमारी टीम में बारह लोग थे, इस तरह हमने छह अलग-अलग घरों का भोजन चखा। मगर मामला सिर्फ भोजन चखने का ही नहीं था, हम लोग हर घर की परंपरा, आर्थिक स्थिति, वातावरण और व्यवहार को भी सलीके से चख रहे थे। मैं जिस घर में गया था, वह चार भाइयों का संयुक्त परिवार था, चार भाइयों की चार बीवियां, उनकी दो-तीन बहुएं और दस बेटियां। इतना भरा पूरा घर तो मैनें अपनी जिंदगी में नहीं देखा था। हमने खाते वक्त भी महसूस किया कि हमारे मेजबान हमारे लिए जिस चीज की फरमाइश करते वह पलक झपकते हाजिर हो जाती। पंद्रह वर्ष से पैंतालिस वर्ष तक की तकरीबन सत्रह-अठारह महिलाएं हमारी खातिर में जुटी थीं.
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भारत गांवों का देश जहां गावों की संख्या पांच लाख से भी अधिक है। अगर एक पथराड न भी रहे तो क्या फर्क पड़ता है? चार सौ मेगावाट बिजली के बदले 50-100 गांव उजड़ ही गए तो क्या होगा? इस विशाल देश में इन गावों के लोग इस तरह एडजस्ट हो जाएगें कि पता भी नहीं चलेगा। कौन जानना चाहेगा कि पथराड के राधेश्यामजी कहां गुम हो गए? यह सब जानते हुए भी मैं पथराड का जिक्र लेकर बैठ गया हूं, क्योंकि न जाने क्यों मुझे लगता है कि पांच लाख गांवों की भीड़ में एक पथराड भी उतना ही जरूरी है जितना चार सौ मेगावाट बिजली के दम पर रोशन होने वाली हमारी दुनिया.
आज के वक्त में जब हम न्यूक्लियर फैमली और स्वतंत्रता की बात करते हैं इतने लोगों का एक साथ अपने-आप में चमत्कार से कम नहीं। हमने अपने दूसरे साथियों से पूछा तो यही जवाब मिला कि वे जिस घर में गए थे वहां भी संयुक्त परिवार ही थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो पहली नजर में समझ आई कि उस गांव में पलायन न के बराबर है। हमने इस बात की पुष्टि लोगों से बातचीत कर भी कर ली। उन्होंने बताया कि चुकि इस गांव की कृषि योग्य जमीन सौ प्रतिशत सिंचित है, इसलिए खेती से इतनी आमदनी हो जाती है कि कहीं जाना नहीं पड़ता है।
नई पीढ़ी के लड़कों ने व्यवसाय की ओर भी कदम बढ़ाए हैं, मगर उनके व्यवसाय का केंद्र भी पथराड ही है। वे वहीं मोबाइल की दुकान, राशन की दुकान, केबल टीवी जैसे धंधे करते हैं। इसलिए नहीं कि खेती से उनका काम नहीं चलता, सिर्फ इसलिए कि ये लोगों की जरूरत हैं और वे भी मोनोटोनी से उबरना चाहते हैं। गांव का हर घर पक्के का था और तकरीबन हर घर में इंवर्टर लगा था। कई घरों के सामने टैक्टर और चार पहिया गाड़ी खड़ी नजर आ रही थी। गांव इतना समृद्ध हो सकता है और इतना आत्मनिर्भर यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं था। खाने के बाद जब महफिल जमी और लोगों ने विस्थापित किए जाने और ठीक से पुनर्वास न किए जाने की व्यथा सुनाई और अपना संकल्प सुनाया कि अगर समुचित पुनर्वास न हुआ तो यहीं डूबेंगे, तो मन सिहर उठा। सिर्फ इसलिए नहीं कि इनके संघर्ष में कितनी दृढ़ता है, इसलिए भी कि इतना सुंदर और समृद्ध गांव मैनें जीवन में नहीं देखा था। इसे भी मिटा दिया जाएगा...
इस इलाके के लोगों ने पुनर्वास की समस्या को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन के बैनर तले जबरदस्त संघर्ष किया है। इस बांध के निर्माण में जुटी तीन विदेशी कंपनियों को वापस लौट जाने के लिए मना लिया है। अब एक देसी कंपनी एस कुमार बांध बनाने में जुटी है। बांध तकरीबन पूरी तरह बन चुका है। बहुत कम काम बचा है, मगर पुनर्वास की दिशा में एक प्रतिशत काम भी नहीं हुआ है। लोग संघर्ष में जुटे हैं, लड़ रहे हैं और डूबने को तैयार हैं। इस बांध से चार सौ मेगावाट बिजली बनेगी, जिससे देश के कई घर रोशन होंगे। मगर मेरे लिए उनमें से कोई रोशन घर उतना आकर्षण पैदा नहीं कर सकेगा जितना पथराड का वह घर था जहां 12 मार्च 2010 की रात मैनें खाना खाया था और लोगों के संघर्ष की दास्तां सुनी थी। वहां से लौट आने के बाद भी मुझे बार बार यह अहसास हो रहा है कि पथराड नाम भले ही पथरीला हो लेकिन वहां के लोग पत्थरदिल नहीं है. आखिर क्यों ऐसे लोगों को डुबोकर हम अपने घरो को रोशन कर लेना चाहते हैं?
कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
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