20090205

निशाने पर गाँव

अब तमाम निगाहें ग्रामीण भारत पर टिकी हैं. ट्रकों में लदा माल भी पास के किसी गांव में ही ले जाया जा रहा है. तात्पर्य यह है कि अब ग्रामीण भारत के साथ लूट-खसोट शुरू हो गई है. अधिक समय नहीं बीता है जब गांव की धूलभरी दुकान में सिर्फ तेल-साबुन, और मंजन जैसी चीजें ही मिलती थीं.
उद्योग जगत को लगता है कि ऋण माफी, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और जबरदस्त फसल से ग्रामीण समुदाय के हाथ में अतिरिक्त नगदी आ गई है. इसलिए यह सही समय है कि ग्रामीण क्षेत्र के नवधनाढ्यों से नगदी झटक ली जाए. सवाल यह है कि क्या ग्रामीण भारत वास्तव में समृद्ध हो रहा है? या फिर यह औद्योगिक जगत का लालच है जो इसे देश के पृष्ठभाग की ओर खींच रहा है?
जमीनी धरातल की ओर देखने से पहले हमें यह देखना चाहिए कि बाजार की चाल बदल रही है. मोबाइल फोन ने पहले ही सीधा धावा बोल दिया है. सरकार प्रायोजित ई-गवर्नेस कार्यक्रम के माध्यम से कंयूटर की बिक्री में उछाल आ गया है. कार, स्कूटर-मोटरसाइकिल और उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माता भी गांव के बाजार पर टकटकी लगाए हैं. कई नामी-गिरामी कंपनियों ने गांवों में अपना विशिष्ट विपणन अभियान छेड़ दिया है. वैवाहिक समारोहों से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां भी छोटे कस्बों तक में पांव पसार चुकी हैं.
बड़ी कंपनियों के साथ-साथ अनेक छोटी कंपनियां भी दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों में मार्केटिंग अभियान छेड़ चुकी हैं. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ग्रामीण भारत में कोई आर्थिक क्रांति हो रही है? इसका जवाब है-नहीं. शीर्ष उद्योगपति इस उम्मीद में ग्रामीण बाजार में उतर रहे हैं कि भारत के गरीबों की जेब में अगर कुछ बचा रह गया है तो उसे भी निकाल लिया जाए. अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं कि उनकी कृषि अनुसंधान में कोई रुचि नहीं है. ये तो बस अपना माल बेचना चाहती हैं.
अनुबंध के तहत बाजार के अवसरों से असंतुष्ट दो अमेरिकी सीनेटरों ने मांग की है कि भारतीय कृषि बाजार की संभाव्यता को लेकर एक विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए. उनकी दलील है कि भारतीय कृषि क्षेत्र को अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए खोल देना चाहिए. वर्तमान में केवल पांच प्रतिशत अमेरिकी उत्पादों की ही भारतीय कृषि क्षेत्र तक पहुंच है
पूरा दृश्य ऐसा है जैसे बाज नीचे उतरने लगे हैं-और वह भी चारों ओर से. गांव के चूहों को इस हमले से बचने के लिए सुरक्षित जगह मिलने में बड़ी दिक्कत हो रही है. कारण स्पष्ट है. अब तक शराब, चाहे अंग्रेजी हो या देशी, गांव को तबाह कर करती रही है. कृषि आय का बड़ा हिस्सा शराब की दुकानों पर नशे में उड़ जाता है.
क्या यह हैरत की बात नहीं कि अधिक खर्च करने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज की खपत बराबर गिर रही है? एक रिपोर्ट के अनुसार 1993-94 से 2006-07 में अनाज पर प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च की जाने वाली राशि 101 रुपये से बढ़कर 115 रुपये हो गई है, जबकि इस बीच अनाज की खपत में गिरावट आई है.
यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब असंगठित क्षेत्रों से संबंधित उद्यमों का राष्ट्रीय आयोग बहुत स्पष्ट तौर पर कह रहा है कि भारत की 77 फीसदी आबादी यानी 83.6 करोड़ लोग रोजाना बीस रुपये से कम पर गुजर-बसर कर रहे हैं. यह तय है कि 20 रुपये प्रतिदिन से दो जून की रोटी तक नहीं खाई जा सकती. इन करोड़ों भूखे लोगों को उपभोक्ता वस्तुओं के जरिए विकास के स्वप्न बेचने की बात निश्चित तौर पर हजम नहीं होती.
अभी तक आईसीआईसीआई के चेयरमैन द्वारा कुछ समय पहले की गई टिप्पणी की थाह नहीं ले पाया हूं. उन्होंने कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र में बहुत सा रुपया है. अगर यह सच है तो मुझे कोई कारण समझ में नहीं आता कि वैश्विक भूख सूचकांक में 88 देशों में से भारत का 66वां स्थान कैसे रहा? जिन 18 राज्यों का संज्ञान लिया गया उनमें से 13 राज्यों में हालात 'खतरनाक' हैं. इनमें चमकता हुआ गुजरात, प्रौद्योगिक रूप से उन्नत कर्नाटक, खुदकुशी संभाव्य महाराष्ट्र और चावल का कटोरा तमिलनाडु शामिल हैं.
वास्तव में भूख सूचकांक में भारत अफ्रीकन सहारा के सीमांत राष्ट्रों से भी निचले दर्जे पर खड़ा है. यहां तक कि भारत का अन्नदाता पंजाब भी वियतनाम जैसे देशों से गया गुजरा है. भारत के गांव परंपरागत व्यापार चक्र उलट जाने का शिकार हुए हैं. काफी लंबे समय से गांवों में जितना धन निवेश किया जा रहा उससे अधिक बाहर निकाला जा रहा है.
कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि गांवों में एक हजार एकड़ भूभाग से कृषि आधारित कंपनियां प्रतिवर्ष 30 करोड़ रुपये से 70 करोड़ रुपये तक खींच लेती हैं. यह रकम खाद, कीटनाशक, बीज और उपकरण आदि पर खर्च होती है. अगर केवल यह धनराशि ही गांवों से बाहर न जाने दी जाए तो भारतीय गांवों का चेहरा निश्चित तौर पर चमकदार और लालिमायुक्त हो जाएगा. इसके उपरांत गरीब और भोले-भाले ग्रामीणों का शोषण करने के लिए संगठित ऋणदाताओं की कुशलता की इस क्षेत्र को आवश्यकता नहीं रह जाएगी. यद्यपि पांच करोड़ गरीब परिवारों को वित्तीय सहायता दी जा चुकी है, लेकिन इसके बाद इनकी हालत और भी खराब हो गई है. इन्हें औसतन 20 से 24 प्रतिशत की भारी ब्याज दर से ऋण चुकाना पड़ता है.
अगर स्वयं सहायता समूह में गरीब से गरीब महिला को भी बकरी खरीदने के लिए ऋण लेना पड़ता है तो उस पर 24 प्रतिशत ब्याज वसूला जाता है. बताने की आवश्यकता नहीं कि इस धनराशि से वह आजीविका का साधन जुटाना चाहती है, जबकि एक टीवी, फ्रिज या स्कूटर खरीदने के लिए उसे ब्याजमुक्त ऋण आसानी से मिल सकता है. कुल मिलाकर अर्थशास्त्री हमें बताते हैं कि वह जितने अधिक उपभोक्ता उत्पाद खरीदेगी उतना ही सकल घरेलू उत्पाद बढ़ेगा.
इसके लिए अगर उसे भूखे सोना पड़ता है तो यह कोई बड़ा बलिदान नहीं है. देश की प्रगति के लिए इतना बलिदान तो किया ही जाना चाहिए. कौन कहता है कि सपने बेचना का ठेका केवल बालीवुड ने उठा रखा है!
(www.raviwar.com से देवेन्द्र शर्मा)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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