उड़ीसा के बोलांगीर संसदीय क्षेत्र से युवा सांसद कालीकेश नारायण सिंह देव स्टूडियो में साथ में थे. मुद्दा बोलांगीर में भूख से होने वाली मौतों का था. बोलांगीर में मौत अतिथि नहीं हैं और दस्तक दे कर नहीं आती. अनाज से और खास तौर पर निर्यात होने वाले चावल से भारतीय खाद्य निगम के गोदाम भरे पड़े हैं. बाजारों में महंगी से महंगी शराबे मिलती हैं. छतों पर डिश एंटिना लगे हुए हैं. होटलों में शाही पनीर और मुर्गे की टांग मिलती है. फिर भी बोलांगीर में भूख है.
बोलांगीर पश्चिमी उड़ीसा के कुख्यात कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट नाम की केबीके के तौर पर मशहूर उस पट्टी का एक हरा भरा जिला है, जहां से इथियोपिया के बाद सबसे ज्यादा मौत की खबरे आती हैं. वह भी भूख से मौत की खबरें. बोलांगीर में कुछ पत्रकार गए थे और उन्होंने सिर्फ चार ब्लॉक में पचास मौतों और तीन सौ बच्चों के अनाथ हो जाने की हृदय विदारक खबर दी थी.
दिलचस्प बात यह है कि पूरे कालाहांडी इलाके में छोटे बड़े राजघराने हैं और इन्हीं में से सांसद चुने जाते रहे हैं. पिछली बार भाजपा के सबसे ज्यादा राजसी सांसद यही से चुने गए थे और इस बार उन्हीं परिवारों से बीजू जनता दल के सांसद चुने गए हैं. कालिकेश नारायण सिंह भी उन्हीं में से एक हैं. दून और सेंट स्टीफंस में पढ़े हैं और उनके परदादा 1971 तक उड़ीसा के मुख्यमंत्री थे. पिता जी उड़ीसा में मंत्री रहे है. इसीलिए अचरज हुआ कि यह पढ़ा लिखा युवा सांसद भी सरकारी भाषा बोल रहा है और कह रहा है कि लोग तो मरते ही रहते हैं और ये मौतें पचास नहीं हैं और यह भी है कि ये लोग मलेरिया से मरे है.
अतुल्य भारत में अतुल्य भूख से होने वाली मौतों पर इस तरह की आपराधिक सादगी भी अतुल्य ही कही जाएगी. कालाहांडी का सच दूसरा है. हालांकि खबरें तो पूरे देश से सूखे और अकाल की आ रही है लेकिन इन खबरों में कालाहांडी का नाम नहीं है. कालाहांडी भूख और अकाल से होने वाली मौतों का एक ऐसा मुहावरा बन गया है कि वहां भूख और अकाल अब खबर नहीं बनते.
वैसे भारत में अकाल और आपदाओं के उपकारधर्मी पर्यटन का, कालाहांडी एक तीर्थ भी हैं. रायपुर हवाई अड्डे पर अब तो बहुत उड़ाने उतरने लगी है और यह पश्चिमी उड़ीसा के केबीके यानी कालाहांडी-बोलांगिर -कोरापुट इलाके के सबसे करीब का हवाई अड्डा है और यहां आम तौर पर देश, विदेश से चंदा ले कर चलने वाले और अकाल मिटाने का दावा करने वाले तमाम सामाजिक संगठन हैं, जिन्हें बोलचाल की भाषा में एनजीओ कहा जाता है.
इस सूखे के मौसम में भी कालाहांडी हरा-भरा है. धान के खेतों में पानी भरा है. फसल पिछली बार भी अच्छी हुई थी और इस बार भी अच्छी होने की उम्मीद है. सबसे ज्यादा इस इलाके में धान ही होता है और वह भी इस स्तर का कि आम तौर पर निर्यात किया जाता है. ये धान उगाने वाले किसान भूखे रहते हैं या अपने ही खेतों पर मजदूरी करते है.
इस पूरे इलाके में सूदखोरी का धंधा इतनी निर्लज्जता से चलता है कि बड़े से बड़ा बेशर्म शर्मा जाए. एक रुपए पर अस्सी पैसा ब्याज यानी ब्याज का प्रतिशत 80 फीसदी और वह भी प्रति माह. डागोस और जेनेवा में भारतीय निर्यात और विकास दर की घोषणा करने वाले हमारे सत्ता के सूत्रधार जानते हैं कि 13 प्रतिशत से ज्यादा ब्याज लेना अपराध है लेकिन पश्चिमी उड़ीसा के ज्यादातर जिलों में यह अपराध सामाजिक और सामुदायिक आधार पर चलता रहता है और किसी को ऐतराज नहीं होता.
कालाहांडी की ओर सबसे पहले ध्यान दिया था इंदिरा गांधी ने. वे 1980 में कालाहांडी के दौरे पर गई थीं और केबीके विकास बोर्ड की घोषणा कर के आई थीं. इस कोष में सारा पैसा केंद्र सरकार को देना तय हुआ था. मगर सरकारी माल आ रहा है और उसका बंटवारा होना है तो स्थानीय विधायकों और सांसदों में बोर्ड का सदस्य बनने की होड़ मच गई और वोट बैंक की राजनीति में बोर्ड बन ही नहीं पाया. भारतीय जनतंत्र को भूख तंत्र भी कहा जा सकता है.
1984 में राजीव गांधी यहां आए. उन्होंने काफी फिल्मी अंदाज में एक खेत की जमीन से मिट्टी उठा कर कहा कि वे अपनी मां के वायदे को पूरा करेंगे. मगर जल्दी ही अरुण नेहरू, अरुण सिंह और रोमी छाबड़ा जैसे उनके चमचों ने, जो क्लब और कॉरपोरेट संस्कृति के अलावा कुछ नहीं जानते थे; राजीव गांधी को कंप्यूटरों की दुनिया में फंसा दिया और फिर बोफोर्स का बवाल आया और राजीव गांधी कालाहांडी भूल गए. सोनिया गांधी 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद यहां आई और विकास का वायदा कर के चली गईं. राहुल गांधी तो अभी 2008 में वहां गए और कहा कि वे सरकार को विकास के लिए मजबूर करेंगे.
भारतीय जनता पार्टी का रिकॉर्ड भी कालाहांडी की भूख के मामले में बहुत उज्जवल नहीं हैं. अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो मैं खुद कालाहांडी के कई निवासियों को अपनी पहल पर उनसे मिलवाने ले कर गया था. मेरी गोद में नुआपाड़ा जिले के खरियार ब्लॉक के एक गांव की चार साल की लड़की कुंजबनी भी थी. कुंजबनी जब पैदा हुई थी तो उसके पिता ने अस्पताल के खर्चे के लिए 1600 रुपए का कर्ज लिया था और उन चार सालों में वह अभागा पिता 12 हजार रुपए अदा कर चुका था मगर सूद के आठ हजार रुपए बाकी थे और मूलधन अलग से. श्री वाजपेयी ने धीरज से सुना था और कुंजबनी के माथे पर हाथ रख कर कहा था कि कालाहांडी के लोगों के साथ न्याय किया जाएगा. कुंजबनी अब 15 साल की हो चुकी है. उसके जन्म के लिए जो कर्ज लिया गया था, वह अभी तक चुका नहीं हैं और वह भोली बच्ची अब बंधक मजदूर के तौर पर काम कर रही है. अटल बिहारी वाजपेयी को पोखरण और पाकिस्तान से ही फुरसत नहीं मिली.
कालाहांडी हमारे अति विशिष्ट महानुभावों की राजनैतिक रासभूमि हैं और इसीलिए नुआपाड़ा में एक हवाई अड्डा बनाया गया है. कालाहांडी का इतना ही विकास हुआ है. उड़ीसा के लिए भारत सरकार ने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान किया है. 1988 से यह मांग चल रही है कि केबीके जिलों में से किसी में यह विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए. लिख कर ले लीजिए कि नवीन पटनायक ऐसा नहीं होने देंगे. उन्हें अपने समुद्र तटीय इलाके से प्रेम है.
कई वर्ष पहले जब गुजरात के कच्छ इलाके में भयानक चक्रवात आया था तो संयोग से मैं वहीं था. इसे आप मेरी नियति कहें या कोई विधि का विधान कि कई महासंकटों में मैं उसी क्षण, उसी जगह मौजूद रहा हूं. एक दिन देर हो जाती तो कांधार ले जाए गए विमान में भी मैं होता. एक दिन पहले काठमांडू से लौटा था. कच्छ और गांधीधाम इलाके में मैं गया था नमक पैदा करने के व्यापार और आयोडाइज्ड नमक के मिथक को ठीक से समझने मगर चक्रवात के बाद वहीं रह गया. जब लाशे गिनी गई तो उनमें से 200 से ज्यादा कालाहांडी और आसपास के जिलों के लोगों की थी. वे बेचारे अपने खेत, घर और खलिहान छोड़ कर गुजरात के समुद्र तट पर मजदूरी करने गए थे और उनमें से ज्यादातर के नाम ठेकेदारों ने रजिस्टरों मे लिखे ही नहीं थे इसलिए उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला.
ये उस कालाहांडी के वासी थे, जहां भारतीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न पैदा होता है. लेकिन उनके लिए नही. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ज्यादातर रिक्शा चलाने वाले उड़ीसा के इसी इलाके के हैं. उनकी जमीन पर सूदखोरों ने कब्जा कर लिया हैं. कानून के अनुसार दलितों और आदिवासियों की जमीन पर कोई गैरआदिवासी या गैर दलित स्वामित्व नहीं दिखा सकता इसलिए सूदखोरों के बहुत सारे आदिवासी और दलित नौकर हैं, जो कालाहांडी, बोलांगिर और कोरापुट में साइकिलो पर घूमते रहते हैं और उन्हें पता भी नहीं हैं कि वे हजारों एकड़ जमीन के मालिक हैं. दस्तावेज उनके मालिकों के पास रखे हैं. उन्होंने तो सिर्फ अंगूठा लगाया है.
कालाहांडी की जमीन अब खनिज उत्पादन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लीज पर दे दी गई है और उससे इन किसानों का कोई लाभ नहीं होने वाला. एक सरकारी हवाई जहाज बनाने वाली कंपनी और एक हथियार बनाने वाली कंपनी कोरापुट और बोलांगिर जिलों में खोली गई है मगर उनमें स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिला. उन्हें चौकीदार तक नहीं बनाया गया. सरकार की इस कुटिल जटिलता से लोग परेशान है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह इलाका आंध्र प्रदेश के पड़ोस में होने के कारण भी माओवादियो का आखेट स्थल बनता जा रहा है.
(आलोक तोमर)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
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