16 मई को अभी चुनाव परिणाम आने शुरू भी नहीं हुए थे. सिर्फ रूझान आ रहे थे जो यह बता रहे थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए बड़ा उलटफेर करने जा रही है. सुबह के ग्यारह बजे तक जो रुझान आ रहे थे वे बता रहे थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है. लेकिन रुझान आते ही कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि कांग्रेस ने जो सफलता अर्जित की है वह राहुल गांधी जी की कड़ी मेहनत का परिणाम है. इसके थोड़ी देर बार अंबिका सोनी का बयान आया कि राहुल गांधी जी को इस भारी जीत का सारा श्रेय देना चाहिए और पुरस्कार भी.
फिर तो जैसे राहुलगान गाने का तांता लग गया. कांग्रेस के नेताओं को छोड़िए. मीडिया ने यह काम अपने हाथ में ले लिया. इस गान में सबसे पहले कोरस मिलाया राजदीप सरदेसाई के चैनल ने फिर उसके बाद टाईम्स नाऊ भी इसी में शामिल हो गया. फिर देखा-देखी हिन्दी के चैनलों ने भी राहुल गान की तान छेड़ दी. पूरे दिन राहुल गांधी को कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जाता रहा. अगले दिन देश के हर अखबार ने यही काम किया. पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव परिणामों में कांग्रेस की सफलता राहुल गांधी को समर्पित हो गयी. पिछले दो-तीन महीने से राहुल गांधी के लिए जो मीडिया मैनेजमेन्ट चल रहा था उसका क्लाईमेक्स बहुत शानदार तरीके से हुआ. राहुल गांधी को मनमोहन सिंह ने भी मंत्री बनने के लिए आफर किया जिसे राहुल गांधी ने बड़ी शालीनता से अस्वीकार कर संगठन के काम में ही रमने का इरादा जताया. फिर भी प्रयास जारी है कि वे बिना विभाग के ही मंत्री बन जाएं. आगे वे क्या करेंगे मालूम नहीं लेकिन राहुल इफेक्ट को परिभाषित करते हुए कांग्रेस और मीडिया दोनों ही तीन राज्यों में कांग्रेस के उत्थान का तर्क दे रहे हैं.
उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान ऐसे तीन राज्य हैं जिसके बारे में कहा जा रहा है कि सिर्फ राहुल जी की "दूरदर्शी नीतियों" के कारण इन राज्यों में कांग्रेस को सफलता मिली है. फिलहाल हम यह सवाल नहीं करते हैं कि अगर ऐसा है तो फिर देश के शेष राज्यों में राहुल जी की दूरदर्शी नीतियां क्यों नहीं अपनाई गयी? लेकिन इतना जरूर पूछते हैं कि महाराष्ट्र के जिस कलावती का जिक्र उन्होंने संसद के अपने भाषण में किया था उस कलावती के गांव जालका ने शिवसेना के आनंदराव अडसुल कों क्यों जितवा दिया? अगर राहुल गांधी का करिश्मा ही है तो कम से कम अमरावती सीट जरूर कांग्रेस के खाते में जानी चाहिए थी क्योंकि अमरावती की कलावती को राहुल गांधी ने रातों-रात देशभर में चर्चित कर दिया था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राहुल गांधी के प्रशिक्षण में लगे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने बहुत सोच समझकर राहुल गांधी को वहां-वहां पहुंचाया जहां दुख और तकलीफ है. इसी कड़ी में वे विदर्भ भी गये थे. बार-बार गये थे. लेकिन विदर्भ ने उनका साथ क्यों नहीं दिया? इस सवाल को यहीं छोड़ आगे बढ़ते हैं.
उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में राहुल गांधी ने ऐसा क्या कमाल किया है? राहुल गांधी के प्रशिक्षक विदर्भ के अलावा उनको उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड इलाके में भी लेकर गये थे. अगर कांग्रेस की जीत में राहुल की जनवादी और मर्मस्पर्शी नीतियां होती तो कम से कम हमीरपुर और बांदा की सीट कांग्रेस को जीतनी चाहिए थी. लेकिन इन दोनों सीटों में एक बसपा के खाते में गयी है और दूसरी सपा के खाते में. यहां राहुल गांधी का जादू क्यों नहीं चला? जबकि दलित के घर जाने से लेकर कड़ी धूप में विचरण करने तक सारे काम उन्होंने यहां किये थे. उत्तर प्रदेश में जहां-जहां कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए हैं उन सीटों को ही देख लीजिए. मोरादाबाद की सीट अजहरूद्दीन ने जीती है. खीरी जफर अली नकवी ने जीती है. इसी तरह धौरहरा से जतिन प्रसाद, उन्नाव से अन्नू टंडन, कानपुर से श्रीप्रकाश जायसवाल, अकबरपुर से राजाराम पाल, झांसी से प्रदीप कुमार जैन, बाराबंकी से पीएल पुनिया, फैजाबाद से निर्मल खत्री बहराईच से कमल किशोर, गोण्डा से बेनी प्रसाद वर्मा, डुमरियागंज से जगदम्बिका पाल चुनाव जीते हैं. इन सीटों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि कांग्रेस ने ये सीटें समीकरण और उम्मीदवारों के कारण जीती हैं न कि राहुल गांधी के प्रभाव के कारण. इनमें अधिकांश सीटें मुस्लिम मतदाता बहुल हैं और इस बार सपा से छिटकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट किया है. रायबरेली, अमेठी, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर सीटों का जिक्र इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योकि ये चार सीटें तो कांग्रेस को जीतनी ही थी. इनमें से एक पर सोनिया गांधी चुनाव लड़ रही थी, दूसरे पर खुद राहुल गांधी, तीसरे पर दिनेश सिंह की बेटी राजकुमारी रत्ना सिंह और चौथे पर डॉ संजय सिंह. इन सीटों पर प्रियंका का सीधा प्रभाव था, और ये चारों सीटे आस-पास हैं. इसलिए यहां की जीत का श्रेय भी राहुल गांधी के खाते में नहीं जाता है.
अगर कांग्रेस की इस जीत को राहुल गांधी का करिश्मा मान भी लें तो यह करिश्मा बिहार में क्यों नहीं दोहराया गया? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वोट शेयर में 6 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है. उसे कुल 12 प्रतिशत वोट और 21 सीटें हासिल हुई हैं. लेकिन बिहार में भी उसको कम वोट नहीं मिले हैं. बिहार में उसके मत में 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और इस बार उसे बिहार में कुल मतदान का 10 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ है. फिर बिहार में उसे केवल दो सीटें ही क्यों मिली और पिछली बार की तुलना में उसे एक सीट का नुकसान हो गया. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में हुई जीत को आंकड़ों के ही लिहाज से देखेंगे तो जीत के कारण साफ होने लगते हैं. उत्तर प्रदेश में सपा के वोट शेयर में कमी दर्ज की गयी है. 2004 में 26.74 प्रतिशत वोटों की तुलना में इस बार उसे 23.26 फीसदी वोट मिले हैं. इसी तरह भाजपा के मत प्रतिशत में भी कमी आयी है. पिछले चुनाव में 22.17 प्रतिशत की तुलना में उसे 17.50 प्रतिशत वोट मिले हैं. हालांकि बसपा को पिछले चुनाव की तुलना में अधिक वोट मिले हैं. राज्य में उसे पिछली बार 24.67 फीसदी वोट मिला था जबकि इस बार 27.42 फीसदी वोट मिला है. अन्य के मत प्रतिशत में एक प्रतिशत का उतार है. साफ है कांग्रेस को सपा और भाजपा के परंपरागत वोटबैंक का हिस्सा मिला है. सपा का परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम कल्याण सिंह के साथ आने से सपा से अलग हुआ है और भाजपा का परंपरागत वोटर जो कांग्रेस से छिटकर भाजपा के साथ आया उसने दोबारा कांग्रेस का साथ दिया है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मत प्रतिशत में बढ़ोत्तरी और जीत के यही दो कारण हैं.
अगर मायावती के मत प्रतिशत में कमी आती तो समझा जा सकता था कि यह राहुल गांधी का कमाल है क्योंकि मायावती भी आरोप लगाती रही हैं कि दलित के घर खाना खाने से कोई दलित का दुख-दर्द नहीं बांट लेता. साफ है, उन्हें इस बात का खतरा था कि राहुल गांधी उनके परंपरागत वोट में सेंधमारी कर सकते हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मायावती के वोट शेयर में बढ़ोत्तरी हुई है. नुकसान सिर्फ सपा और भाजपा को हुआ है. सपा को नुकसान के पीछे का एकमात्र कारण कल्याण सिंह हैं. कल्याण सिंह के ही कारण मुसलमान वोटर सपा से दूर हुआ जबकि उम्मीदों पर खरा न उतर पाने के कारण इस बार कांग्रेस के पुराने वोटर भाजपा को छोड़ कांग्रेस के साथ चले गये. फिर भी इस मत प्रतिशत से ज्यादा सीटों का समीकरण कांग्रेस की जीत के लिए ज्यादा जिम्मेदार है. मसलन उन्नाव से चुनाव लड़ रही अन्नू टंडन के पति रिलांयस के बड़े ओहदेदार हैं और खुद मुकेश अंबानी की नजर इस सीट पर लगी हुई थी. सलमान खान सबसे पहले इसी सीट पर अन्नू टंडन का प्रचार करने आये थे तो उनका यहां आना अनायास नहीं था. इसी तरह राजस्थान में सारा कमाल जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत का है. लेकिन कांग्रेस को मिली सफलता का एक और बड़ा कारण यहां 6 विधायकों का ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल होना भी है. बसपा जो कांग्रेस का वोट काट सकती थी उसका भी वोट कांग्रेस के खाते में आ गया.
यही तीन राज्य हैं जिसमें जीत को राहुल गांधी की "कड़ी मेहनत" का नतीजा बताया जा रहा हैं और उनकी कड़ी मेहनत को पलकों से बुहार लगायी जा रही है. अब आप ही बताइये, कांग्रेस की इस जीत में राहुल गांधी का योगदान कहां है, जिसे हमारा मीडिया बार-बार कांग्रेस के प्रवक्ता की तरह बखान कर रहा है?
(संजय तिवारी)
----------------------------------------------------------------------------------------------------
कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
No comments:
Post a Comment