गोदान
इस
बहुचर्चित
उपन्यास
के
माध्यम
से
प्रेमचंद
जी
ने
समकालीन
समाज
में
प्रचलित
आडम्बरों, कुप्रथाओं
एवं
निर्धन
के
शोषण
का
चित्रण
किया
है. उन्होंने
दिखलाया
है
कि
कैसे
अंगरेजों
के
बनाये
कानूनों
की
वजह
से
धीरे-धीरे
सामाजिक
मूल्यों
का
पतन
हो
रहा
है. धनी
व्यक्ति
एक
निर्धन
का
शोषण
कर
लेने
में, ऋण
के
तले
दबा
लेने
में
ही
प्रसन्न
है. दूसरी
ओर
निर्धन
भी
अपनी
रोजी-रोटी
कमाने
और
परिवार
को
पालने
में
की
गई
बेईमानी
को
सही
मान
कर
चल
रहा
है.
शहर
में
रहने
वाले
स्वयं
को
पश्चिमी
संस्कृति
के
बढ़ते
चलन
के
सामने
खुद
को
छोटा
अनुभव
कर
रहे
हैं
और
किसी
भी
भाँति
उस
संस्कृति
के
चोले
में
ढलकर
अपने
को
उच्च
वर्ग
के
लोगों
के
समक्ष, अधिकारियों
के
सामने
बड़ा
करके
दिखाना
चाहते
हैं. युवा
वर्ग
अपनी
संस्कृति
से
अनजान
है
और
उच्च
वर्ग
के
लोगों
को
आदर्श
मानकर
बड़ा
हो
रहा
है.
प्रेमचंद
ने
ग्रामीण
क्षेत्र
के
कृषक
वर्ग
की
जिजीविषा
का
बड़ा
ही
मार्मिक
वर्णन
किया
है. इसी
जिजीविषा
के
चलते
प्राकृतिक
आपदाएं, पड़ोसियों
की
धूर्तता
के
बावजूद
भी
अपनी
समृद्धि
की
सद-इच्छा
को
एक
अभिशाप
की
भाँति
जीते
हुए
भी
अपने
कर्म
में
रमा
हुआ
है. किन्तु
इस
सबका
का
लाभ
अंततः
जमींदार
एवं
महाजन
उठाते
हैं.
इन
सब
के
बीच
अन्तर्जातीय
विवाह
एक
अवधारणा
के
रूप
में
परिलक्षित
हुई
है.
उन्होंने
दिखाया
है
कि
कैसे
अपने
कर्तव्यों
से
विमुख
जमींदार
इत्यादि
उच्च
वर्ग
के
लोग
समय
आने
पर
काल
की
गति
का
ग्रास
बनाते
हैं
किन्तु
अपनी
प्रजा
की
ओर
तनिक
भी
उनकी
दृष्टि
नहीं
जाती. दूसरी
ओर
कुत्सित
व्यवस्थाओं
के
जाल
में
फंस
कर
निर्धन
अपना
दम
तोड़
रहा
है.
'उच्च
वर्ग
का
ह्रास
एवं
निर्धन
का
नाश' - यही
गोदान
की
चेतावनी
है.
------------------------------------------------------ कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
No comments:
Post a Comment