शब्दों के मायाजाल को बुन कर कईयों ने समाज के
सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्यों का बड़ा ही भव्य और जीवंत विश्रेल्षण
किया है। ऐसे ही शब्दों का सहारा लेकर दलित पादरी फादर विलियम प्रेमदास
चौधरी की आत्मकथा आडंबरपूर्ण कैथोलिक चर्च व्यवस्था में फैले भेदभाव और
अस्पृश्यता के अंधियारे का खुलासा करती है। साथ ही यह चर्च के मिथक को
तोड़कर उसकी असली कहानी बयां करती है।
चर्च की ऊंची दीवारों से घिरे और काफी अंदर तक फैले जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, आसमानता का जिक्र करते हुए फादर विलियम आर्चबिशप विन्सेंट एम कैनसासियों के एक पत्र का उतर देते हुए कहते है ‘मैं एक दलित पादरी हूँ न कि भिखारी। मैं अपने लिए किसी चर्च का प्रमुख बनने की भीख नही मांग रहा हूँ। मैं कोई दक्षिण भारतीय पादरी नहीं जिसकी आप को चिंता हो। मुझे धर्म की शिक्षा देने के लिए आपके निर्देशों की जरुरत नहीं, जीजस हमारे स्वामी है न कि आप। मैं जीजस का भक्त हूँ न कि आपका। चर्च प्रमुख बनने के बिना भी मैंने जो पाया है उससे मैं संतुष्ट हूँ।
''मैं दलित वर्ग से आया हूँ इसलिए ये मेरी जिम्मेदारी है कि मैं कैथोलिक चर्च के अंदर दलित ईसाइयों के सम्मान की रक्षा करुं।'' चर्च में गहरे तक फैले भेदभाव का जिक्र करते हुए वह कहते है कि 'स्थानीय दलित पादरी होने के कारण चर्च नेतृत्व ने मेरा मनोबल तोड़ने के लिए पिछले चार वर्षो से मुझे ‘कलर्जी होम’ (एक तरह से अवकाश प्राप्त पादरियों का आवास) में रखा हुआ है। आज तक किसी कार्यरत युवा पादरी को इतने समय तक यहा नहीं रखा गया है।' कैथोलिक बिशप से वह पूछते है कि आप कहते है कि मुझे किसी चर्च का प्रमुख नही बनाया जा सकता क्योंकि मुझ में कमियां है जबकि आप अभी तक मेरे किसी दोष को सिद्ध नहीं कर सकें है केवल इसके कि मैं हिन्दू दलित से धर्मांतरण करके ग्यारह वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद पादरी बना हूँ।
यह किताब चर्च के अंदर पादरियों के बीच पनपने वाले अहम,अंहकार और टकरावों और इस विशाल संस्थान के कामकाज के तरीके पर कई सवाल खड़े करती है और साथ ही धर्मांतरित दलितों और दलित पादरियों पर हुए जुल्म पर भी जोर देती हैं। इस किताब ने कई चीजों का खुलासा किया है और कई मिथकों को तोड़ा है। फादर विलियम ने चर्च संस्थानों में फैले भ्रष्टाचार और चर्च के कुछ खास पदाधिकारियों द्वारा आर्थिक बदइंतजामी फैलाने पर भी कई सवाल खड़े किये है। वो एक अन्य पादरी डोमिनिक इमानुएल जो दिल्ली कैथोलिक आर्च डायसिस के प्रवक्ता है के बारे में लिखते है कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के लिए बनाई गई फिल्मों का आय-व्याय का सही ब्योरा नहीं दिया। उसके विदेशों से पैसा पाने के तरीकों पर भी यह किताब कई प्रश्न खड़े करती है और इस बात पर जोर देती है कि चर्च के आमदनी और खर्चे का सही सही हिसाब रखा जाना चाहिए।
एक रोचक प्रंसग का जिक्र करते हुए फादर विलियम कहते है कि इस तरह के प्रश्न उठाने पर कई बार उनकी अपने साथी पादरियों से लम्बी बहस हो जाती है एक बार इन्हीं मुद्दों पर लम्बी खिंची बहस के बाद आर्चबिशप ने मुझे अन्वान्टिड प्रीस्ट कह डाला।
ये किताब हिन्दु समाज पर भी दबाव डालती है कि वो उन दलित भाईयों के बारे में सोंचे जो समाज में बराबरी और आदर के लिए ईसाइयत को अपना लेते है। धर्मांतरण करने वाले दलित सोचते है कि अब वो आजाद है लेकिन उन्हें यहा भी मुक्ति नहीं मिलती। चर्च ढांचे में भेदभाव बड़ी चलाकी से होता है इसलिए फादर विलियम जैसे किसी दलित पादरी की स्थिति काफी खराब हो जाती है और उनके लिए सम्मान -जनक रुप में पादरी बने रहना असंभव जैसे हो जाता है।
फादर विलियम ने वो लिखने की हिम्मत की है जिसे कई कहने और सपने में भी कबूल करने की हिम्मत नहीं करेंगे। वो धर्मांतरण के कड़वें सच को और एक दलित की दुविधा को स्वीकार करते है। वो लिखते है कि करीब करीब सभी दलित हिन्दु इसलिए गरीब थे क्योंकि उनका उच्च जातियों ने शोषण किया वो या तो मजदूरी कर रहे है या फिर कोई बहुत ही तुच्छ कार्य। धर्मांतरण के बाद शोषण करने का जिम्मा कैथोलिक चर्च के पदाधिकारियों ने उठा लिया है इसलिए धर्मांतरित दलितों की स्थिति पहले जैसी ही बनी हुई है। कैथोलिक चर्च पर दक्षिण भारतीय बिशपों एवं पादरियों के एकाधिकार जैसे कई अहम मसले उन्होंने अपनी आत्मकथा में उठायें है।
कैथोलिक चर्च में दलितो और आदिवासियों की विशाल जनसंख्या की तरफ इशारा करते हुए यह पुस्तक कहती है कि उच्च जातीय चर्च नेतृत्व कदम कदम पर उनका शोषण कर रहा है, जीसस पर उनके अटूट विश्वास ने ही उन्हें चर्च के साथ बांध रखा है जबकि चर्च का सिस्टम हमेशा उच्च वर्गो और उच्च जातियों को ही फायदा पहुंचाने वाला रहा है। फादर विलियम इसे बदलने पर जोर देते है और कहते है कि इसी की वजह से कई जगह आपस में टकराव भी देखने को मिल रहे है। ये किताब पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का भी उल्लेख करती है जो दलित ईसाइयों के अधिकारों की पुरजोर वकालत कर रहा है। फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने एक बड़े ही आर्दश मंच का इस्तेमाल कर अपने चारों तरफ उपजे कई स्वालों का जवाब दे दिया है।
किताब ‘ऐन अनवान्टेड प्रीस्ट’ फादर विलियम प्रेमदास चौधरी की आत्मकथा है ये धर्म में आस्था रखने वाले धार्मिक संस्थाओं, सरकार, नौकरशाह, न्यायपालिका, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग अनुसंधान कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों को ये समझने में मदद पहुंचाएगी कि दलित और आदिवासियों की तमाम समास्याएं क्या है और सफेद पोशाक (पवित्र चोगा) के पीछे कितना अंधियारा छाया हुआ है। यह धर्मांतरण की राजनीति को समझने में मदद पहंचाएगी। ये किताब यह समझाने में भी कारगर साबित होगी कि दलितों के आर्थिक विकास से न कि धर्मांतरण से समाज में बड़ा बदलाव आएगा।
(www.visfot.com)
------------------------------------------------------ कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
कल 30/05/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' एक समय जो गुज़र जाने को है ''
धन्यवाद.
Deleteachhi post
ReplyDeleteThanks, dar asal ye kaala sach ab dheere dheere bahar aa raha hai. Asha hai ki janta kuchh to dekhegi-seekhegi.
Deleteहर धर्म के धर्म मार्तंड भेद भाव कर के ही अपने राज पाट चलाते हैं । बडे बडे पादरियों के चरित्रहीनता के किस्से हाल के कुछ वर्षों में ही सामने आये थे पर उस पर क्या कोई एक्सन लिया गया ।
ReplyDeleteफादर विलियम (प्रेमदास चौधरी की कहानी की तरफ ध्यान खींच कर आपने एक अच्छा मुद्दा उठाया है ।