स्वदेश प्रेम
पूज्यपाद श्रीस्वामी सोमदेव का देहान्त हो जाने के पश्चात् जब से अंग्रेजी के नवें दर्जे में आया, कुछ स्वदेश संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन प्रारंभ हुआ । शाहजहाँपुर में सेवा-समिति की नींव पं. श्रीराम वाजपेयी जी ने डाली, उसमें भी बड़े उत्साह से कार्य किया । दूसरों की सेवा का भाव हृदय में उदय हुआ । कुछ समझ में आने लगा कि वास्तव में देशवासी बड़े दुःखी हैं । उसी वर्ष मेरे पड़ौसी तथा मित्र जिनसे मेरा स्नेह अधिक था, एण्ट्रेंस की परीक्षा पास करके कालिज में शिक्षा पाने चले गये । कालिज की स्वतंत्र वायु में हृदय में भी स्वदेश के भाव उत्पन्न हुए । उसी साल लखनऊ में अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का उत्सव हुआ । मैं भी उसमें सम्मिलित हुआ । कतिपय सज्जनों से भेंट हुई । देश-दशा का कुछ अनुमान हुआ, और निश्चय हुआ कि देश के लिए कोई विशेष कार्य किया जाए । देश में जो कुछ हो रहा है उसकी उत्तरदायी सरकार ही है । भारतवासियों के दुःख तथा दुर्दशा की जिम्मेदारी गवर्नमेंट पर ही है, अतःएव सरकार को पलटने का प्रयत्न करना चाहिए । मैंने भी इसी प्रकार के विचारों में योग दिया । कांग्रेस में महात्मा तिलक के पधारने की खबर थी, इस कारण से गरम दल के अधिक व्यक्ति आए हुए थे । कांग्रेस के सभापति का स्वागत बड़ी धूमधाम से हुआ था । उसके दूसरे दिन लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की स्पेशल गाड़ी आने का समाचार मिला । लखनऊ स्टेशन पर बड़ा जमाव था । स्वागत कारिणी समिति के सदस्यों से मालूम हुआ कि लोकमान्य का स्वागत केवल स्टेशन पर ही किया जायेगा और शहर में सवारी न निकाली जाएगी । जिसका कारण यह था कि स्वागत कारिणी समिति के प्रधान पं. जगतनारायण जी थे । अन्य गणमान्य सदस्यों में पं. गोकरणनाथजी तथा अन्य उदार दल वालों (माडरेटों) की संख्या अधिक थी । माडरेटों को भय था कि यदि लोकमान्य की सवारी शहर में निकाली गई तो कांग्रेस के प्रधान से भी अधिक सम्मान होगा, जिसे वे उचित न समझते थे । अतः उन सबने प्रबन्ध किया कि जैसे ही लोकमान्य तिलक पधारें, उन्हें मोटर में बिठाकर शहर के बाहर बाहर निकाल ले जाऐं । इन सब बातों को सुनकर नवयुवकों को बड़ा खेद हुआ । कालिज के एक एम. ए. के विद्यार्थी ने इस प्रबन्ध का विरोध करते हुए कहा कि लोकमान्य का स्वागत अवश्य होना चाहिए । मैंने भी इस विद्यार्थी के कथन में सहयोग दिया । इसी प्रकार कई नवयुवकों ने निश्चय किया कि जैसे ही लोकमान्य स्पेशल से उतरें, उन्हें घेरकर गाड़ी में बिठा लिया जाए और सवारी निकाली जाए । स्पेशल आने पर लोकमान्य सबसे पहले उतरे । स्वागतकारिणी के सदस्यों ने कांग्रेस के स्वयंसेवकों का घेरा बनाकर लोकमान्य को मोटर में जा बिठाया । मैं तथा एक एम.ए. का विद्यार्थी मोटर के आगे लेट गए । सब कुछ समझाया गया, मगर किसी की एक न सुनी । हम लोगों की देखादेखी और कई नवयुवक भी मोटर के सामने आकर बैठ गए । उस समय मेरे उत्साह का यह हाल था कि मुँह से बात न निकलती थी, केवल रोता था और कहता था, मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ । स्वागतकारिणी के सदस्यों ने कांग्रेस के प्रधान को ले जाने वाली गाड़ी मांगी, उन्होंने स्वीकार न किया । एक नवयुवक ने मोटर का टायर काट दिया । लोकमान्यजी बहुत कुछ समझाते किन्तु वहाँ सुनता कौन ? एक किराये की गाड़ी से घोड़े खोलकर लोकमान्य के पैरों पर सिर रख उन्हें उसमें बिठाया और सबने मिलकर हाथों से गाड़ी खींचनी शुरू की । इस प्रकार लोकमान्य का इस धूमधाम से स्वागत हुआ कि किसी नेता की उतने जोरों से सवारी न निकाली गई । लोगों के उत्साह का यह हाल था कि कहते थे कि एक बार गाड़ी में हाथ लगा लेने दो, जीवन सफल हो जाए । लोकमान्य पर फूलों की जो वर्षा की जाती थी, उसमें से जो फूल नीचे गिर जाते थे उन्हें उठाकर लोग पल्ले में बाँध लेते थे । जिस स्थान पर लोकमान्य के पैर पड़ते, वहां की धूल सबके माथे पर दिखाई देती । कुछ उस धूल को भी अपने रूमाल में बांध लेते थे । इस स्वागत से माडरेटों की बड़ी भद्द हुई.
क्रांतिकारी आन्दोलन
कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ से ही मालूम हुआ कि एक गुप्त समिति है, जिसका मुख्य उद्देश्य क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेना है । यहीं से क्रांतिकारी समिति की चर्चा सुनकर कुछ समय बाद मैं भी क्रांतिकारी समिति के कार्य में योग देने लगा । अपने एक मित्र द्वारा भी क्रांतिकारी समिति का सदस्य हो गया । थोड़े ही दिन में मैं कार्यकारिणी का सदस्य बना लिया गया । समिति में धन की बहुत कमी थी, उधर हथियारों की भी जरूरत थी । जब घर वापस आया, तब विचार हुआ कि एक पुस्तक प्रकाशित की जाये और उसमें जो लाभ हो उससे हथियार खरीदे जायें । पुस्तक प्रकाशित करने के लिए धन कहाँ से आये ? विचार करते-करते मुझे एक चाल सूझी । मैंने अपनी माता जी से कहा कि मैं कुछ रोजगार करना चाहता हूँ, उसमें अच्छा लाभ होगा । यदि रुपये दे सकें तो बड़ा अच्छा हो । उन्होंने 200 रुपये दिये । ’अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ नामक पुस्तक लिखी जा चुकी थी । प्रकाशित होने का प्रबंध हो गया । थोड़े रुपये की जरूरत और पड़ी, मैंने माता जी से 200 रुपये और ले लिये । पुस्तक की बिक्री हो जाने पर माता जी के रुपये पहले चुका दिये । लगभग 200 रुपये और भी बचे । पुस्तकें अभी बिकने के लिए बहुत बाकी थी । उसी समय 'देशवासियों के नाम संदेश' नामक एक पर्चा छपवाया गया, क्योंकि पं. गेंदालाल जी, ब्रह्मचारी जी के दल सहित ग्वालियर में गिरफ्तार हो गये थे । अब सब विद्यार्थियों ने अधिक उत्साह के साथ काम करने की प्रतिज्ञा की । पर्चे कई जिलों में लगाये गये और बांटे गए । पर्चे तथा 'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' पुस्तक दोनों संयुक्त प्रान्त की सरकार ने जब्त कर लिये ।
हथियारों की खरीद
अधिकतर लोगों का विचार है कि देशी राज्यों में हथियार (रिवाल्वर, पिस्तौल तथा राइफलें इत्यादि) सब कोई रखता है, और बन्दूक इत्यादि पर लाइसेंस नहीं होता । अतएव इस प्रकार के अस्त्र बड़ी सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं । देशी राज्यों में हथियारों पर कोई लाइसेंस नहीं, यह बात बिल्कुल ठीक है, और हर एक को बंदूक इत्यादि रखने की आजादी भी है । किन्तु कारतूसी हथियार बहुत कम लोगों के पास रहते हैं, जिसका करण यह है कि कारतूस या विलायती बारूद खरीदने पर पुलिस में सूचना देनी होती है । राज्य में तो कोई ऐसी दुकान नहीं होती, जिस पर कारतूस या कारतूसी हथियार मिल सकें । यहाँ तक कि विलायती बारूद और बंदूक की टोपी भी नहीं मिलती, क्योंकि ये सब चीजें बाहर से मंगानी पड़ती हैं । जितनी चीजें इस प्रकार की बाहर से मंगायी जाती हैं, उनके लिए रेजिडेंट (गवर्नमेंट का प्रतिनिधि, जो रियासतों में रहता है) की आज्ञा लेनी पड़ती है । बिना रेजिडेण्ट की मंजूरी के हथियारों संबंधी कोई चीज बाहर से रियासत में नहीं आ सकती । इस कारण इस खटखट से बचने के लिए रियासत में ही टोपीदार बंदूकें बनती हैं, और देशी बारूद भी वहीं के लोग शोरा, गन्धक तथा कोयला मिलाकर बना लेते हैं । बन्दूक की टोपी चुरा-छिपाकर मँगा लेते हैं । नहीं तो टोपी के स्थान पर भी मनसल और पुटाश अलग-अलग पीसकर दोनों को मिलाकर उसी से काम चलाते हैं । हथियार रखने की आजादी होने पर भी ग्रामों में किसी एक-दो धनी या जमींदार के यहाँ टोपीदार बंदूक या टोपीदार छोटी पिस्तौल होते हैं, जिनमें ये लोग रियासत की बनी हुई बारूद काम में लाते हैं । यह बारूद बरसात में सील खा जाती है और काम नहीं देती । एक बार मैं अकेला रिवाल्वर खरीदने गया । उस समय समझता था कि हथियारों की दुकान होगी, सीधे जाकर दाम देंगे और रिवाल्वर लेकर चले आयेंगे । प्रत्येक दुकान देखी, कहीं किसी पर बन्दूक इत्यादि का विज्ञापन या कोई दूसरा निशान न पाया । फिर एक ताँगे पर सवार होकर सब शहर घूमा । ताँगे वाले ने पूछा कि क्या चाहिए । मैंने उससे डरते-डरते अपना उद्देश्य कहा । उसी ने दो-तीन दिन घूम-घूमकर एक टोपीदार रिवाल्वर खरीदवा दिया और देशी बनी हुई बारूद एक दुकान से दिला दी । मैं कुछ जानता तो था नहीं, एकदम दो सेर बारूद खरीदी, जो घर पर सन्दूक में रखे-रखे बरसात में सील खाकर पानी पानी हो गई । मुझे बड़ा दुःख हुआ । दूसरी बार जब मैं क्रान्तिकारी समिति का सदस्य हो चुका था, तब दूसरे सहयोगियों की सम्मति से दो सौ रुपये लेकर हथियार खरीदने गया । इस बार मैंने बहुत प्रयत्न किया तो एक कबाड़ी की-सी दुकान पर कुछ तलवारें, खंजर, कटार तथा दो-चार टोपीदार बन्दूकें रखी देखीं । दाम पूछे । इसी प्रकार वार्तालाप करके पूछा कि क्या आप कारतूसी हथियार नहीं बेचते या और कहीं नहीं बिकते? तब उसने सब विवरण सुनाया । उस समय उसके पास टोपीदार एक नली के छोटे-छोटे दो पिस्तौल थे । मैंने वे दोनों खरीद लिये । एक कटार भी खरीदी । उसने वादा किया कि यदि आप फिर आयें तो कुछ कारतूसी हथियार जुटाने का प्रयत्न किया जाये । लालच बुरी बला है, इस कहावत के अनुसार तथा इसलिए भी कि हम लोगों को कोई दूसरा ऐसा जरिया भी न था, जहाँ से हथियार मिल सकते, मैं कुछ दिनों बाद फिर गया । इस समय उसी ने एक बड़ा सुन्दर कारतूसी रिवाल्वर दिया । कुछ पुराने कारतूस दिये । रिवाल्वर था तो पुराना, किन्तु बड़ा ही उत्तम था । दाम उसके नये के बराबर देने पड़े । अब उसे विश्वास हो गया कि यह हथियारों के खरीदार हैं । उसने प्राणपण से चेष्टा की और कई रिवाल्वर तथा दो-तीन राइफलें जुटाई । उसे भी अच्छा लाभ हो जाता था । प्रत्येक वस्तु पर वह बीस-बीस रुपये मुनाफा ले लेता था । बाज-बाज चीज पर दूना नफा खा लेता था । इसके बाद हमारी संस्था के दो-तीन सदस्य मिलकर गये । दुकानदार ने भी हमारी उत्कट इच्छा को देखकर इधर-उधर से पुराने हथियारों को खरीद करके उनकी मरम्मत की, और नया-सा करके हमारे हाथ बेचना शुरू किया । खूब ठगा । हम लोग कुछ जानते नहीं थे । इस प्रकार अभ्यास करने से कुछ नया पुराना समझने लगे । एक दूसरे सिक्लीगर से भेंट हुई । वह स्वयं कुछ नहीं जानता था, किन्तु उसने वचन दिया कि वह कुछ रईसों से हमारी भेंट करा देगा । उसने एक रईस से मुलाकात कराई जिसके पास एक रिवाल्वर था । रिवाल्वर खरीदने की हमने इच्छा प्रकट की । उस महाशय ने उस रिवाल्वर के डेढ़ सौ रुपये मांगे । रिवाल्वर नया था । बड़ा कहने सुनने पर सौ कारतूस उन्होंने दिये और 155 रुपये लिये । 150 रुपये उन्होंने स्वयं लिए, 5 रुपये कमीशन के तौर पर देने पड़े । रिवाल्वर चमकता हुआ नया था, समझे अधिक दामों का होगा । खरीद लिया । विचार हुआ कि इस प्रकार ठगे जाने से काम न चलेगा । किसी प्रकार कुछ जानने का प्रयत्न किया जाए । बड़ी कौशिश के बाद कलकत्ता, बम्बई से बन्दूक-विक्रेताओं की लिस्टें मांगकर देखीं, देखकर आंखें खुल गईं । जितने रिवाल्वर या बन्दूकें हमने खरीदी थीं, एक को छोड़, सबके दुगने दाम दिये थे । 155 रुपये के रिवाल्वर के दाम केवल 30 रुपये ही थे और 10 रुपये के सौ कारतूस इस प्रकार कुल सामान 40 रुपये का था, जिसके बदले 155 रुपये देने पड़े । बड़ा खेद हुआ । करें तो क्या करें ! और कोई दूसरा जरिया भी तो न था ।
कुछ समय पश्चात् कारखानों की लिस्टें लेकर तीन-चार सदस्य मिलकर गये । खूब जांच-खोज की । किसी प्रकार रियासत की पुलिस को पता चल गया । एक खुफिया पुलिस वाला मुझे मिला, उसने कई हथियार दिलाने का वायदा किया, और वह पुलिस इंस्पेक्टर के घर ले गया । दैवात् उस समय पुलिस इंस्पेक्टर घर मौजूद न थे । उनके द्वार पर एक पुलिस का सिपाही था, जिसे मैं भली-भाँति जानता था । मुहल्ले में खुफिया पुलिस वालों की आँख बचाकर पूछा कि अमुक घर किसका है ? मालूम हुआ पुलिस इंस्पेक्टर का ! मैं इतस्ततः करके जैसे-जैसे निकल आया और अति शीघ्र अपने टहरने का स्थान बदला । उस समय हम लोगों के पास दो राइफलें, चार रिवाल्वर तथा दो पिस्तौल खरीदे हुए मौजूद थे । किसी प्रकार उस खुफिया पुलिस वाले को एक कारीगर से जहाँ पर कि हम लोग अपने हथियारों की मरम्मत कराते थे, मालूम हुआ कि हम में से एक व्यक्ति उसी दिन जाने वाला था, उसने चारों ओर स्टेशन पर तार दिलवाए । रेलगाड़ियों की तलाशी ली गई । पर पुलिस की असावधानी के कारण हम बाल-बाल बच गए ।
रुपये की चपत बुरी होती है। एक पुलिस सुपरिटेण्डेंट के पास एक राइफल थी । मालूम हुआ वह बेचते हैं । हम लोग पहुँचे । अपने आप को रियासत का रहने वाला बतलाया । उन्होंने निश्चय करने के लिए बहुत से प्रश्न पूछे, क्योंकि हम लोग लड़के तो थे ही । पुलिस सुपरिटेण्डेंट पेंशनयाफ्ता, जाति के मुसलमान थे । हमारी बातों पर उन्हें पूर्ण विश्वास न हुआ । कहा कि अपने थानेदार से लिखा लाओ कि वह तुम्हें जानता है । मैं गया । जिस स्थान का रहने वाला बताया था, वहाँ के थानेदार का नाम मालूम किया, और एक-दो जमींदारों के नाम मालूम करके एक पत्र लिखा कि मैं उस स्थान के रहने वाले अमुक जमींदार का पुत्र हूँ और वे लोग मुझे भली-भाँति जानते हैं । उसी पत्र पर जमींदारों के हिन्दी में और पुलिस दारोगा के अंग्रेजी में हस्ताक्षर बना, पत्र ले जा कर पुलिस कप्तान साहब को दिया । बड़े गौर से देखने के बाद वह बोले, "मैं थानेदार से दर्याफ्त कर लूं । तुम्हें भी थाने चलकर इत्तला देनी होगी कि राइफल खरीद रहे हैं ।" हम लोगों ने कहा कि हमने आपके इत्मीनान के लिए इतनी मुसीबत झेली, दस-बारह रुपये खर्च किए, अगर अब भी इत्मीनान न हो तो मजबूरी है । हम पुलिस में न जायेंगे, राइफल के दाम लिस्ट में 150 रुपये लिखे थे, वह 250 रुपये मांगते थे, साथ में दो सौ कारतूस भी दे रहे थे । कारतूस भरने का सामान भी देते थे, जो लगभग 50 रुपये का होता है, इस प्रकार पुरानी राइफल के नई के समान दाम माँगते थे । हम लोग भी 250 रुपये देते थे । पुलिस कप्तान ने भी विचारा कि पूरे दाम मिल रहे हैं । स्वयं वृद्ध हो चुके थे । कोई पुत्र भी न था । अतएव 250 रुपये लेकर राइफल दे दी । पुलिस में कुछ पूछने न गए । उन्हीं दिनों राज्य के एक उच्च पदाधिकारी के नौकर से मिलकर उनके यहाँ से रिवाल्वर चोरी कराया । जिसके दाम लिस्ट में 75 रुपये थे, उसे 100 रुपये में खरीदा । एक माउजर पिस्तौल भी चोरी कराया, जिसके दाम लिस्ट में उस समय 200 रुपये थे । हमें माउजर पिस्तौल की प्राप्ति की बड़ी उत्कट इच्छा थी । बड़े भारी प्रयत्न के बाद यह माउजर पिस्तौल मिला, जिसका मूल्य 300 रुपये देना पड़ा । कारतूस एक भी न मिला । हमारे पुराने मित्र कबाड़ी महोदय के पास माउजर पिस्तौल के पचास कारतूस पड़े थे । उन्होंने बड़ा काम दिया । हम में से किसी ने भी पहले माउजर पिस्तौल को देखा भी न था । कुछ न समझ सके कि कैसे प्रयोग किया जाता है । बड़े कठिन परिश्रम से उसका प्रयोग समझ में आया ।
हमने तीन राइफलें, एक बारह बोर की दोनाली कारतूस बन्दूक, दो टोपीदार बन्दूकें, तीन टोपीदार रिवाल्वर और पाँच कारतूसी रिवाल्वर खरीदे । प्रत्येक हथियार के साथ पचास या सौ कारतूस भी ले लिए । इन सब में लगभग चार हजार रुपये व्यय हुए । कुछ कटार तथा तलवारें इत्यादि भी खरीदी थीं ।
मैनपुरी षड्यन्त्र
इधर तो हम लोग अपने कार्य में व्यस्थ थे, उधर मैनपुरी के एक सदस्य पर लीडरी का भूत सवार हुआ । उन्होंने अपना पृथक संगठन किया । कुछ अस्त्र-शस्त्र भी एकत्रित किए । धन की कमी की पूर्ति के लिये एक सदस्य ने कहा कि अपने किसी कुटुम्बी के यहाँ डाका डलवाओ, उस सदस्य ने कोई उत्तर न दिया । उसे आज्ञापत्र दिया गया और मार देने की धमकी दी गई । वह पुलिस के पास गया । मामला खुला । मैनपुरी में धरपकड़ शुरू हो गई । हम लोगों को भी समाचार मिला । दिल्ली में कांग्रेस होने वाली थी । विचार किया गया कि 'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' नामक पुस्तक जो यू. पी. सरकार ने जब्त कर ली थी, कांग्रेस के अवसर पर बेची जावे । कांग्रेस के उत्सव पर मैं शाहजहाँपुर की सेवा समिति के साथ अपनी एम्बुलेन्स की टोली लेकर गया । एम्बुलेन्स वालों को प्रत्येक स्थान पर बिना रोक जाने की आज्ञा थी । कांग्रेस-पंडाल के बाहर खुले रूप से नवयुवक यह कर कर पुस्तक बेच रहे थे - "यू.पी. से जब्त किताब अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली" । खुफिया पुलिस वालों ने कांग्रेस का कैम्प घेर लिया । सामने ही आर्यसमाज का कैम्प था, वहाँ पर पुस्तक विक्रेताओं की पुलिस ने तलाशी लेना आरम्भ कर दिया । मैंने कांग्रेस कैम्प पर अपने स्वयंसेवक इसलिए छोड़ दिये कि वे बिना स्वागतकारिणी समिति के मन्त्री या प्रधान की आज्ञा पाए किसी पुलिस वाले को कैम्प में न घुसने दें । आर्यसमाज कैम्प में गया । सब पुस्तकें एक टैंट में जमा थीं । मैंने अपने ओवरकोट में सब पुस्तकें लपेटीं, जो लगभग दो सौ होंगी, और उसे कन्धे पर डालकर पुलिस वालों के सामने से निकला । मैं वर्दी पहने था, टोप लगाए हुये था । एम्बुलेन्स का बड़ा सा लाल बिल्ला मेरे हाथ पर लगा हुआ था, किसी ने कोई सन्देह न किया और पुस्तकें बच गईं ।
दिल्ली कांग्रेस से लौटकर शाहजहाँपुर आये । वहां भी पकड़-धकड़ शुरू हुई । हम लोग वहाँ से चलकर दूसरे शहर के एक मकान में ठहरे हुये थे । रात्रि के समय मकान मालिक ने बाहर से मकान में ताला डाल दिया । ग्यारह बजे के लगभग हमारा एक साथी बाहर से आया । उसने बाहर से ताला पड़ा देख पुकारा । हम लोगों को भी सन्देह हुआ, सब के सब दीवार पर से उतर कर मकान छोड़ कर चल दिए । अंधेरी रात थी । थोड़ी दूर गए थे कि हठात् की आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, कौन जाता है ?' हम लोग सात-आठ आदमी थे, समझे कि घिर गए । कदम उठाना ही चाहते थे कि फिर आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, नहीं तो गोली मारते हैं' । हम लोग खड़े हो गए । थोड़ी देर में एक पुलिस का दारोगा बन्दूक हमारी तरफ किए हुए, रिवाल्वर कन्धे पर लटकाए, कई सिपाहियों को लिए हुए आ पहुँचे । पूछा - 'कौन हो ? कहाँ जाते हो ?' हम लोगों ने कहा - विद्यार्थी हैं, स्टेशन जा रहे हैं । 'कहां जाओगे'? 'लखनऊ' । उस समय रात के दो बजे थे । लखनऊ की गाड़ी पाँच बजे जाती थी । दारोगा जी को शक हुआ । लालटेन आई, हम लोगों के चेहरे रोशनी में देखकर उनका शक जाता रहा । कहने लगे - 'रात के समय लालटेन लेकर चला कीजिए । गलती हुई, मुआफ कीजिये' । हम लोग भी सलाम झाड़कर चलते बने । एक बाग में फूँस की मड़ैया पड़ी थी । उस में जा बैठे । पानी बरसने लगा । मूसलाधार पानी गिरा । सब कपड़े भीग गए । जमीन पर भी पानी भर गया । जनवरी का महीना था, खूब जाड़ा पड़ रहा था । रात भर भीगते और ठिठुरते रहे । बड़ा कष्ट हुआ । प्रातःकाल धर्मशाला में जाकर कपड़े सुखाये । दूसरे दिन शाहजहाँपुर आकर, बन्दूकें जमीन में गाड़कर प्रयाग पहुंचे ।
विश्वासघात
प्रयाग की एक धर्मशाला में दो-तीन दिन निवास करके विचार किया गया कि एक व्यक्ति बहुत दुर्बलात्मा है, यदि वह पकड़ा गया तो सब भेद खुल जाएगा, अतः उसे मार दिया जाये । मैंने कहा - मनुष्य हत्या ठीक नहीं । पर अन्त में निश्चय हुआ कि कल चला जाये और उसकी हत्या कर दी जाये । मैं चुप हो गया । हम लोग चार सदस्य साथ थे । हम चारों तीसरे पहर झूंसी का किला देखने गये । जब लौटे तब सन्ध्या हो चुकी थी । उसी समय गंगा पार करके यमुना-तट पर गये । शौचादि से निवृत्त होकर मैं संध्या समय उपासना करने के लिए रेती पर बैठ गया । एक महाशय ने कहा - "यमुना के निकट बैठो" । मैं तट से दूर एक ऊँचे स्थान पर बैठा था । मैं वहीं बैठा रहा । वे तीनों भी मेरे पास आकर बैठ गये । मैं आँखें बन्द किये ध्यान कर रहा था । थोड़ी देर में खट से आवाज हुई । समझा कि साथियों में से कोई कुछ कर रहा होगा । तुरन्त ही फायर हुआ । गोली सन्न से मेरे कान के पास से निकल गई ! मैं समझ गया कि मेरे ऊपर ही फायर हुआ । मैं रिवाल्वर निकालता हुआ आगे को बढ़ा । पीछे फिर देखा, वह महाशय माउजर हाथ में लिए मेरे ऊपर गोली चला रहे हैं ! कुछ दिन पहले मुझसे उनका झगड़ा हो चुका था, किन्तु बाद में समझौता हो गया था । फिर भी उन्होंने यह कार्य किया । मैं भी सामना करने को प्रस्तुत हुआ । तीसरा फायर करके वह भाग खड़े हुए । उनके साथ प्रयाग में ठहरे हुए दो सदस्य और भी थे । वे तीनों भाग खड़े हुए । मुझे देर इसलिये हुई कि मेरा रिवाल्वर चमड़े के खोल में रखा था । यदि आधा मिनट और उनमें से कोई भी खड़ा रह जाता तो मेरी गोली का निशाना बन जाता । जब सब भाग गये, तब मैं गोली चलाना व्यर्थ जान, वहाँ से चला आया । मैं बाल-बाल बच गया । मुझ से दो गज के फासले पर से माउजर पिस्तौल से गोलियाँ चलाईं गईं और उस अवस्था में जबकि मैं बैठा हुआ था ! मेरी समझ में नहीं आया कि मैं बच कैसे गया ! पहला कारतूस फूटा नहीं । तीन फायर हुए । मैं गद्गद् होकर परमात्मा का स्मरण करने लगा । आनन्दोल्लास में मुझे मूर्छा आ गई । मेरे हाथ से रिवाल्वर तथा खोल दोनों गिर गये । यदि उस समय कोई निकट होता तो मुझे भली-भांति मार सकता था । मेरी यह अवस्था लगभग एक मिनट तक रही होगी कि मुझे किसी ने कहा, 'उठ !' मैं उठा । रिवाल्वर उठा लिया । खोल उठाने का स्मरण ही न रहा । 22 जनवरी की घटना है । मैं केवल एक कोट और एक तहमद पहने था । बाल बढ़ रहे थे । नंगे पैर में जूता भी नहीं । ऐसी हालत में कहाँ जाऊँ । अनेक विचार उठ रहे थे ।
इन्हीं विचारों में निमग्न यमुना-तट पर बड़ी देर तक घूमता रहा । ध्यान आया कि धर्मशाला में चलकर ताला तोड़ सामान निकालूँ । फिर सोचा कि धर्मशाला जाने से गोली चलेगी, व्यर्थ में खून होगा । अभी ठीक नहीं । अकेले बदला लेना उचित नहीं । और कुछ साथियों को लेकर फिर बदला लिया जाएगा । मेरे एक साधारण मित्र प्रयाग में रहते थे । उनके पास जाकर बड़ी मुश्किल से एक चादर ली और रेल से लखनऊ आया । लखनऊ आकर बाल बनवाये । धोती-जूता खरीदे, क्योंकि रुपये मेरे पास थे । रुपये न भी होते तो भी मैं सदैव जो चालीस पचास रुपये की सोने की अंगूठी पहने रहता था, उसे काम में ला सकता था । वहां से आकर अन्य सदस्यों से मिलकर सब विवरण कह सुनाया । कुछ दिन जंगल में रहा । इच्छा थी कि सन्यासी हो जाऊं । संसार कुछ नहीं । बाद को फिर माता जी के पास गया । उन्हें सब कह सुनाया । उन्होंने मुझे ग्वालियर जाने का आदेश दिया । थोड़े दिनों में माता-पिता सभी दादीजी के भाई के यहां आ गये । मैं भी पहुंच गया ।
मैं हर वक्त यही विचार किया करता कि मुझे बदला अवश्य लेना चाहिए । एक दिन प्रतिज्ञा करके रिवाल्वर लेकर शत्रु की हत्या करने की इच्छा में गया भी, किन्तु सफलता न मिली । इसी प्रकार उधेड़-बुन में मुझे ज्वर आने लगा । कई महीनों तक बीमार रहा । माता जी मेरे विचारों को समझ गई । माता जी ने बड़ी सान्त्वना दी । कहने लगी कि प्रतिज्ञा करो कि तुम अपनी हत्या की चेष्टा करने वालों को जान से न मारोगे । मैंने प्रतिज्ञा करने में आनाकानी की, तो वह कहने लगी कि मैं मातृऋण के बदले में प्रतिज्ञा कराती हूँ, क्या जवाब है ? मैंने उनसे कहा - "मैं उनसे बदला लेने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ ।" माता जी ने मुझे बाध्य कर मेरी प्रतिज्ञा भंग करवाई । अपनी बात पक्की रखी । मुझे ही सिर नीचा करना पड़ा । उस दिन से मेरा ज्वर कम होने लगा और मैं अच्छा हो गया.
पलायनावस्था
मैं ग्राम में ग्रामवासियों की भांति उसी प्रकार के कपड़े पहनकर रहने लगा । देखने वाले अधिक से अधिक इतना समझ सकते थे कि मैं शहर में रह रहा हूँ, सम्भव है कुछ पढ़ा भी होऊँ । खेती के कामों में मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया । शरीर तो हष्ट-पुष्ट था ही, थोड़े ही दिनों में अच्छा-खासा किसान बन गया । उस कठोर भूमि में खेती करना कोई सरल काम नहीं । बबूल, नीम के अतिरिक्त कोई एक-दो आम के वृक्ष कहीं भले ही दिखाई दे जाएँ । बाकी यह नितान्त मरुभूमि है । खेत में जाता था । थोड़ी ही देर में झरबेरी के कांटों से पैर भर जाते । पहले-पहल तो बड़ा कष्ट प्रतीत हुआ । कुछ समय पश्चात् अभ्यास हो गया । जितना खेत उस देश का एक बलिष्ठ पुरुष दिन भर जोत सकता था, उतना मैं भी जोत लेता था । मेरा चेहरा बिल्कुल काला पड़ गया । थोड़े दिनों के लिये मैं शाहजहाँपुर की ओर घूमने आया तो कुछ लोग मुझे पहचान भी न सके ! मैं रात को शाहजहाँपुर पहुँचा । गाड़ी छूट गई । दिन के समय पैदल जा रहा था कि एक पुलिस वाले ने पहचान लिया । वह और पुलिस वालों को लेने के लिए गया । मैं भागा, पहले दिन का ही थका हुआ था । लगभग बीस मील पहले दिन पैदल चला था । उस दिन भी पैंतीस मील पैदल चलना पड़ा ।
मेरे माता-पिता ने सहायता की । मेरा समय अच्छी प्रकार व्यतीत हो गया । माताजी की पूँजी तो मैंने नष्ट कर दी । पिताजी से सरकार की ओर से कहा गया कि लड़के की गिरफ्तारी के वारंट की पूर्ति के लिए लड़के का हिस्सा, जो उसके दादा की जायदाद होगी, नीलाम किया जाएगा । पिताजी घबड़ाकर दो हजार के मकान को आठ सौ में तथा और दूसरी चीजें भी थोड़े दामों में बेचकर शाहजहाँपुर छोड़कर भाग गए । दो बहनों का विवाह हुआ । जो कुछ रहा बचा था, वह भी व्यय हो गया । माता-पिता की हालत फिर निर्धनों जैसी हो गई । समिति के जो दूसरे सदस्य भागे हुए थे, उनकी बहुत बुरी दशा हुई । महीनों चनों पर ही समय काटना पड़ा । दो चार रुपये जो मित्रों तथा सहायकों से मिल जाते थे, उन्हीं पर ही गुजर होता था । पहनने के कपड़े तक न थे । विवश हो रिवाल्वर तथा बन्दूकें बेचीं, तब दिन कटे । किसी से कुछ कह भी न सकते थे और गिरफ्तारी के भय के कारण कोई व्यवस्था या नौकरी भी न कर सकते थे ।
उसी अवस्था में मुझे व्यवसाय करने की सूझी। मैंने अपने सहपाठी तथा मित्र श्रीयुत सुशीलचन्द्र सेन, जिनका देहान्त हो चुका था, की स्मृति में बंगला भाषा का अध्ययन किया । मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ तो मैंने उसका नाम सुशीलचन्द्र रखा । मैंने विचारा कि एक पुस्तकमाला निकालूं, लाभ भी होगा । कार्य भी सरल है । बंगला से हिन्दी में पुस्तकों का अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँगा । अनुभव कुछ भी नहीं था । बंगला पुस्तक 'निहिलिस्ट रहस्य' का अनुवाद प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार अनुवाद किया, उसका स्मरण कर कई बार हंसी आ जाती है । कई बैल, गाय तथा भैंस लेकर ऊसर में चराने के लिए जाया करता था । खाली बैठा रहना पड़ता था, अतएव कापी-पैंसिल साथ ले जाता और पुस्तक का अनुवाद किया करता था । पशु जब कहीं दूर निकल जाते तब अनुवाद छोड़ लाठी लेकर उन्हें हकारने जाया करता था । कुछ समय के लिए एक साधु की कुटी पर जाकर रहा । वहाँ अधिक समय अनुवाद करने में व्यतीत करता था । खाने के लिए आटा ले जाता था । चार-पाँच दिन के लिए आटा इकट्ठा रखता था । भोजन स्वयं पका लेता था । अब पुस्तक ठीक हो गई, तो 'सुशील-माला' के नाम से ग्रन्थमाला निकाली । पुस्तक का नाम 'बोलशेविकों की करतूत' रखा । दूसरी पुस्तक 'मन की लहर' छपवाई । इस व्यवसाय में लगभग पांच सौ रुपये की हानि हुई । जब राजकीय घोषणा हुई और राजनैतिक कैदी छोड़े गए, तब शाहजहाँपुर आकर कोई व्यवसाय करने का विचार हुआ, ताकि माता-पिता की कुछ सेवा हो सके । विचार किया करता था कि इस जीवन में अब फिर कभी आजादी से शाहजहाँपुर में विचरण न कर सकूँगा, पर परमात्मा की लीला अपार है । वे दिन आये । मैं पुनः शाहजहाँपुर का निवासी हुआ ।
पं० गेंदालाल दीक्षित
आपका जन्म यमुना-तट पर बटेश्वर के निकट 'मई' ग्राम में हुआ था । आपने मैट्रिक्यूलेशन (दसवां) दर्जा अंग्रेजी का पास किया था । आप जब ओरैया जिला इटावा में डी० ए० वी० स्कूल में टीचर थे, तब आपने शिवाजी समिति की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य था शिवाजी की भांति दल बना कर लूटमार करवाना, उसमें से चौथ लेकर हथियार खरीदना और उस दल में बांटना । इसकी सफलता के लिए आप रियासत से हथियार ला रहे थे जो कुछ नवयुवकों की असावधानी के कारण आगरा में स्टेशन के निकट पकड़ लिए गए थे । आप बड़े वीर तथा उत्साही थे । शान्त बैठना जानते ही न थे । नवयुवकों को सदैव कुछ न कुछ उपदेश देते रहते थे । एक एक सप्ताह तक बूट तथा वर्दी न उतारते थे । जब आप ब्रह्मचारी जी के पास सहायता लेने गए तो दुर्भाग्यवश गिरफ्तार कर लिए गए । ब्रह्मचारी के दल ने अंग्रेजी राज्य में कई डाके डाले थे । डाके डालकर ये लोग चम्बल के बीहड़ों में छिप जाते थे । सरकारी राज्य की ओर से ग्वालियर महाराज को लिखा गया । इस दल के पकड़ने का प्रबन्ध किया गया । सरकार ने तो हिन्दुस्तानी फौज भी भेजी थी, जो आगरा जिले में चम्बल के किनारे बहुत दिनों तक पड़ी रही । पुलिस सवार तैनात किए फिर भी ये लोग भयभीत न हुए । विश्वासघात में पकड़े गए । इन्हीं का एक आदमी पुलिस ने मिला लिया । डाका डालने के लिए दूर एक स्थान निश्चित किया गया, जहां तक जाने के लिए एक पड़ाव देना पड़ता था । चलते-चलते सब थक गए, पड़ाव दिया गया । जो आदमी पुलिस से मिला हुआ था, उसने भोजन लाने को कहा, क्योंकि उसके किसी निकट सम्बंधी का मकान निकट था । वह पूड़ी बनवा कर लाया । सब पूड़ी खाने लग गए । ब्रह्मचारी जी जो सदैव अपने हाथ से बनाकर भोजन करते थे या आलू अथवा घुइयां भून कर खाते थे, उन्होंने भी उस दिन पूड़ी खाना स्वीकार किया । सब भूखे तो थे ही, खाने लगे । ब्रह्मचारी जी ने एक पूड़ी ही खाई उनकी जबान ऐंठने लगी और जो अधिक खा गए थे वे गिर गए । पूरी लाने वाला पानी लेने के बहाने चल दिया । पूड़ियों में विष मिला हुआ था । ब्रह्मचारी जी ने बन्दूक उठाकर पूरी लाने वाले पर गोली चलाई । ब्रह्मचारी जी का गोली चलाना था कि चारों ओर से गोली चलने लगी । पुलिस छिपी हुई थी । गोली चलने से ब्रह्मचारी जी के कई गोली लगीं । तमाम शरीर घायल हो गया । पं० गेंदालाल जी की आँख में एक छर्रा लगा । बाईं आँख जाती रही । कुछ आदमी जहर के कारण मरे, कुछ लोगी से मारे गए, इस प्रकार 80 आदमियों में से 25-30 जान से मारे गए । सब पकड़ कर ग्वालियर के किले में बन्द कर दिए गए । किले में हम लोग जब पण्डित जी से मिले, तब चिट्ठी भेजकर उन्होंने हमको सब हाल बताया । एक दिन किले में हम लोगों पर भी सन्देह हो गया था, बड़ी कठिनता से एक अधिकारी की सहायता से हम लोग निकल सके ।
जब मैनपुरी षड्यन्त्र का अभियोग चला, पण्डित गेंदालालजी को सरकार ने ग्वालियर राज्य से मँगाया । ग्वालियर के किले का जलवायु बड़ा ही हानिकारक था । पण्डित जी को क्षय रोग हो गया था । मैनपुरी स्टेशन से जेल जाते समय ग्यारह बार रास्ते में बैठ कर जेल पहुंचे । पुलिस ने जब हाल पूछा तो उन्होंने कहा - "बालकों को क्यों गिरफ्तार किया है ? मैं हाल बताऊँगा ।" पुलिस को विश्वास हो गया । आपको जेल से निकाल कर दूसरे सरकारी गवाहों के निकट रख दिया । वहाँ पर सब विवरण जान रात्रि के समय एक और सरकारी गवाह को लेकर पण्डित जी भाग खड़े हुए । भाग कर एक गांव में एक कोठरी में ठहरे । साथी कुछ काम के लिए बाजार गया और फिर लौट कर न आया, बाहर से कोठरी की जंजीर बन्द कर गया । पण्डित जी उसी कोठरी में तीन दिन बिना अन्न-जल बन्द रहे । समझे कि साथी किसी आपत्ति में फंस गया होगा, अन्त में किसी प्रकार जंजीर खुलवाई । रुपये वह साथ ही ले गया था । पास एक पैसा भी न था । कोटा से पैदल आगरा आए । किसी प्रकार अपने घर पहुँचे । बहुत बीमार थे । पिता ने यह समझ कर कि घर वालों पर आपत्ति न आए, पुलिस को सूचना देनी चाही । पण्डित जी ने पिता से बड़ी विनय-प्रार्थना की और दो-तीन दिन में घर छोड़ दिया । हम लोगों की बहुत खोज की । किसी का कुछ पता न पाया, दिल्ली में एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी कर ली । अवस्था दिनों दिन बिगड़ रही थी । रोग भीषण रूप धारण कर रहा था । छोटे भाई तथा पत्नी को बुलाया । भाई किंकर्त्तव्यविमूढ़ ! वह क्या कर सकता था ? सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने ले गया । पण्डित जी की धर्मपत्नी को दूसरे स्थान में भेजकर जब वह अस्पताल आया, तो जो देखा उसे लिखते हुए लेखनी कम्पायमान होती है ! पण्डित जी शरीर त्याग चुके थे । केवल उनका मृत शरीर मात्र ही पड़ा हुआ था । स्वदेश की कार्य-सिद्धि में पं० गेंदालाल जी दीक्षित ने जिस निःसहाय अवस्था में अन्तिम बलिदान दिया, उसकी स्वप्न में भी आशंका नहीं थी । पण्डित जी की प्रबल इच्छा थी कि उनकी मृत्यु गोली लगकर हो । भारतवर्ष की एक महान आत्मा विलीन हो गई और देश में किसी ने जाना भी नहीं ! आपकी विस्तृत जीवनी 'प्रभा' मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है । मैनपुरी षड्यन्त्र के मुख्य नेता आप ही समझ गए थे । इस षड्यन्त्र में विशेषताएं ये हुईं कि नेताओं में से केवल दो व्यक्ति पुलिस के हाथ आए, जिनमें गेंदालाल दीक्षित एक सरकारी गवाह को लेकर भाग गए, श्रीयुत शिवकृष्ण जेल से भाग गए, फिर हाथ न आए । छः मास के पश्चात जिन्हें सजा हुई वे भी राजकीय घोषणा से मुक्त कर दिए गए । खुफिया पुलिस विभाग का क्रोध पूर्णतया शांत न हो सका और उनकी बदनामी भी इस केस में बहुत हुई.
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
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