20100119

रिलायंस जनरल इंश्योरेन्स धोखाधड़ी में अव्वल

बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा) ने उन 10 बीमा कंपनियों पर जुर्माना लगाया है जिन्होंने साल 2008-09 के दौरान नियमों का उल्लंघन किया है। सबसे अधिक जुर्माना अनिल धीरूभाई अंबानी समूह की कंपनी रिलायंस जनरल पर लगाया है। इरडा की सालाना रिपोर्ट के अनुसार 'इरडा के नियमों एवं दिशानिर्देशों के उल्लंघन' के लिए कंपनी पर 20 लाख रुपये का जुर्माना किया गया है।

सार्वजनिक क्षेत्र की दो बीमा कंपनियों-न्यू इंडिया और नैशनल इंश्योरेंस तथा निजी क्षेत्र की इफको टोकियो और एचडीएफसी अर्गो पर भी 5-5 लाख रुपये का जुर्माना नियमों का उल्लंधन करने के लिए लगाया गया है।

निजी क्षेत्र की साधारण बीमा कंपनी आईसीआईसीआई लोम्बार्ड प्रवासी भारतीय बीमा योजना के मामले में 'फाइल ऐंड यूज' दिशानिर्देशों का पालन नहीं करने पर 5 लाख रुपये का जुर्माना किया गया है। जिन कंपनियों पर जुर्माना लगाया गया उनमें से अधिकांश साधारण बीमा क्षेत्र की हैं। केवल एक जीवन बीमा कंपनी, मैक्स न्यूयॉर्क लाइफ पर यूलिप योजनाओं के दिशानिर्देशों का पालन नहीं करने, पर 5 लाख रुपये जुर्माना लगाया गया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के निजी जीवन बीमा उद्योग को 2008-09 में 4,879 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यह इससे पिछले वर्ष के मुकाबले 43 फीसदी अधिक है। नुकसान की भरपाई करने के लिए निजी जीवन बीमा कंपनियों के प्रमोटरों ने 2008-09 में 5,956 करोड़ रुपए लगाए हैं। यह रकम पिछले 10 साल में प्रमोटरों द्वारा निवेश की गई राशि के बराबर है।

2008-09 के नुकसान को मिलाकर जीवन बीमा उद्योग का कुल घाटा 8,585 करोड़ रुपए पर पहुँच गया है। इरडा की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि बीमा उद्योग को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है। इनमें मांग में कमी, ब्याज दरों का गिरना और बहुत सी कंपनियों की अतिरिक्त पूंजी की जरूरत प्रमुख हैं। इरडा ने कहा कि उसका अनुमान है कि नई निजी जीवन बीमा कंपनियों को कारोबार के पहले सात से 10 साल में नुकसान उठाना पड़ेगा। इरडा के अनुसार, 'जीवन बीमा उद्योग में पूंजी की अधिक जरूरत होती है और बीमा कंपनियों को प्रीमियम की आमदनी में वृद्धि के लिए समय-समय पर पूंजी लगानी पड़ती है।'

इरडा की रिपोर्ट के अनुसार 22 जीवन बीमा कंपनियों में से केवल चार ने 2008-09 में मुनाफा दिया है। इनमें भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी), कोटक महिंद्रा, मेट लाइफ और श्रीराम शामिल हैं। एलआईसी का मुनाफा बढ़कर 957.35 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है। इससे पिछले वर्ष यह 844.63 करोड़ रुपए था। कोटक महिंद्रा ने पहली बार 14.34 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा दर्ज किया है। पिछले वर्ष कंपनी को 71.87 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था। मेट लाइफ का शुद्ध मुनाफा 14.52 करोड़ रुपए और श्रीराम का 8.11 करोड़ रुपए रहा है।

(www.visfot.com)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

घाटी में वापस लौटेंगे 4000 कश्मीरी पण्डित

कश्मीर घाटी में चार हजार से अधिक कश्मीरी पण्डितों के वापस लौटने का रास्ता साफ हो गया है. चार हजार से अधिक कश्मीरी पण्डितों ने घाटी में वापस लौटने पर अपनी रजामंदी दे है जिनके लिए सरकार व्यवस्था करेंगी.

राज्य विधानसभा की आश्वासन समिति ने कश्मीरी पंडितों की घाटी वापसी की योजना पर विचार-विमर्श करते हुए कहा है कि इसे प्रभावी बनाते समय विभिन्न समुदायों को करीब लाने की कोशिश की जाए। समिति के अनुसार घाटी में वापसी के लिए 4272 पंडितों ने आवेदन किया है। इनमें से श्रीनगर जिले के लिए 1185, पुलवामा के लिए 1120, शोपियां के लिए 447, कुपवाड़ा के लिए 412, अनंतनाग के 344, बडगाम के 282, बारामूला के 238, कंगन के 146 व गांदरबल लौटने के लिए 98 विस्थापितों ने आवेदन किया है।

विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज के तहत इस समुदाय के लोगों को तीन हजार नौकरियां देने के प्रस्ताव को हाल ही में मुख्यमंत्री उमर फारूक ने मंजूरी दी है। इस प्रस्ताव का लाभ उठाने के लिए 13,971 युवाओं ने नौकरी के लिए अपना बायोडाटा दिया है। कश्मीरी पंडितों के लिए शेष तीन हजार नौकरियों का प्रबंध केंद्र को करना है। विधायक एमवाई तारीगामी की अध्यक्षता में हुई आश्वासन समिति की बैठक में राजस्व विभाग की ओर से दिए गए कई आश्वासनों पर भी गौर किया गया। इस दौरान कमेटी के सदस्यों की ओर से भी कश्मीरी पंडितों की घाटी वापसी को लेकर सुझाव दिए गए। बैठक में मौजूद अधिकारियों ने घाटी वापसी को लेकर बनाई गई योजना और पंडितों को मिलने वाले वित्तीय लाभ के बारे में भी बताया। समिति के मुताबिक विस्थापितों के लिए शेखुपोरा में 78 फ्लैट बनाए गए हैं, जबकि 60 फ्लैटों का निमार्ण जल्द पूरा हो जाएगा। कुलगाम के वैसु व बारामूला के खानपुर में भी विस्थापितों के रहने के लिए बुनियादी ढांचा जुटाया जाएगा।

27 तारीख को नई दिल्ली में पनुन कश्मीर के एक वार्षिक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए राज्य के राज्यपाल एस के सिन्हा ने कहा था कि कश्मीरी पण्डितों के लिए जितना कुछ किया जाना चाहिए था वह नहीं किया जा सका, इसके लिए देश को कश्मीरी पण्डितों से माफी मांगनी चाहिए.

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Earthquakes don't kill people, buildings do

The earthquake in tiny Haiti on Tuesday 12 Jan. was devastating, causing buildings to topple and leaving possibly 100,000 dead, according to early estimates, though it is too early to say what the final toll is likely to be. Millions more are grimly affected by this grim tragedy.

Media coverage shows that even the Presidential Palace and the United Nations buildings in the capital Port-au-Prince have collapsed. Bernice Robertson, a senior analyst in Haiti for the International Crisis Group, spoke of “major damage to several buildings, which crumbled along the Delmas Road, a major street in the Metropolitan area”.

The major reason for loss of life during earthquakes is the collapse of buildings. In the 1991 Uttarkashi earthquake, around 48,000 houses were damaged, killing hundreds in the process. In the 2001 Bhuj earthquake, around 400,000 houses were destroyed completely and a much larger number were damaged. The death toll was at least 20,000 and the number of injured more than 200,000.

The earth’s outer shell or crust is divided into seven major and some minor tectonic plates which are continuously pushing against or pulling away from each other. This movement of plates results in building up stress. Earthquakes occur near such faults or fractures, where at some point the stress overcomes the friction and rocks slip, releasing seismic energy in the form of earthquake.

Hispaniola, Puerto Rico and the US Virgin Islands sit on top of small crustal blocks that are sandwiched between the North American and Caribbean plates. Indian Standard Code, IS 1893 (Part 1) 2002, divides India into 4 seismic zones( Zone 2,3,4 and 5) with Zone 5 having highest seismicity and Zone 2 having lowest seismicity. Kashmir, Punjab, the western and central Himalayas, the North-East region and the Rann of Kutch fall in Very High Damage Zone (Zone 5).

Most buildings are designed to resist their own weight and any live loads on them, and to some extent even wind loads. But they are not designed for earthquake loads. Earthquake loads (1) are inertia forces resulting from ground movements and they impose certain demands on the structures related to strength, ductility and energy. The magnitudes of these demands are highly variable and are dependent on the seismicity of the region and the dynamic characteristics of the structure.

The dead and Live Loads are vertical loads, whereas wind loads are horizontal loads. But earthquake loads have both horizontal and vertical components. The horizontal component of earthquake loads is very hazardous to a structure, as vertical component is resisted by the weight of a structure. Hence every structure, especially ones in earthquake zones, must be designed to resist these lateral earthquake loads.

IS 1893 (Part1) 2002, assigns a zone factor of 0.36 for Zone 5 and a zone factor of 0.24 for Zone 4. The 0.36 and 0.24 refers to the peak horizontal ground acceleration which is equal to 36% and 24% of acceleration due to gravity respectively. This is very important with respect to design of structures in Earthquake zones. Modified Mercalli Intensity Scale (MMI) described 12 levels of Intensity, the effect of earthquake on earth’s surface from instrumental, and feeble to disastrous and catastrophic.

In order to make buildings earthquake-resistant, the super-structure as well as foundation must be made to resist the sideways loads. During an earthquake, the lower part of a building tends to vibrate as it is in direct contact with the ground, but the upper portions remain static. This conflict of forces leads to collapse. As the magnitude of these forces is directly proportional to the weight of the building, the heavier the structure, the greater the damage.

Hence the roofs, walls, floors should be made as lighter as possible. Walls must be made to take sideways loads and they must be tied in frame and properly reinforced. If diagonal bracing is used to resist the lateral loads, then it must go equally in both directions. In case of moment resisting frames, joints should be made stronger than beams. Roof can be made lighter with profiled steel cladding on light gauge steel Zed purlins. Traditionally timber or plywood flooring is used to make light floors. A single storey building, if competently designed and built, will be able to resist Earthquake loads.

The GOI-UNDP Guidelines (4) for Jammu and Kashmir Engineers suggests certain measures for achieving seismic safety based on IS 4326 specifications. They suggest control on length, height and the thickness of walls, control on size and location of openings and control on material strength and quality of construction. Additionally, seismic bands are provided at plinth level, door-window lintel level and ceiling levels of floors.

The dynamic response of a building against an earthquake vibration is an important structural aspect which directly affects the structural resistance and consequently the hazard level. In order to design an earthquake resistant steel building, different methods can be used. The structural components capable to withstand lateral loads like shear walls, concentrically or eccentrically braced frames, moment resisting frames, diaphragms, truss systems and other similar systems should be used.

Compression structures like domes, vaults and arches should be avoided. The system needs to be tensile and the material flexible (like timber, steel and bamboo). The structure should be constructed in a way that it vibrates as one unit and sways together. Traditionally Northeast people followed this principle. These older houses had timber roofs held together by timber tie-bands, with horizontal timber beams spanning across the entire building, connecting the entire structure. They suffered very little damage during earthquakes. Traditional structures like Kuda, Thaat, Pherol, Chaukhat and Sumer of Garhwal Himalayas are the best examples of this (2).

Significant progress has been made in designing earthquake resistant structures. Base-Isolated systems, Passive energy dissipation systems, Active control systems are three new earthquake resisting technologies.

Conventional earthquake-resistant structural systems are fixed-base systems that are ‘fixed’ to the ground. But in base-isolated systems (3), the superstructure is isolated from the foundation by certain devices, which reduce the ground motion transmitted to the structure. These devices help decouple the superstructure from damaging earthquake components and absorb seismic energy by adding significant damping. In comparison to fixed-base systems, this technique considerably reduces damage to structural as well as non-structural component.

Energy Dissipating Devices/EDD (4) are like ‘add-ons’ to conventional fixed-base system, to share the seismic demand along with primary structural members. It reduces the inelastic demand on primary structural members, leading to significant reduction in structural and non- structural damage. In contrast, the active systems control the seismic response through appropriate adjustments within the structure, as the seismic excitation changes. That is, the active control systems introduce elements of dynamism and adaptability into the structure, thereby increasing the capability to resist earthquake loads.

These techniques have been successfully employed in many projects across the world. Japan has been foremost in this direction. They are also being used in earthquake prone areas of California, Indonesia and other places. It is high time these techniques are employed in the earthquake zones of India to reduce the damages from any future earthquakes in the sub-continent.

References

1] Durgesh C Rai, “Future Trends in Earthquake Resistant Design of Structures”, Seismology, 2000.

2] Prof Anand S. Arya, National Seismic Advisor, “Guidelines for Earthquake Resistant Reconstruction and New Construction of Masonry Building in Jammu And Kashmir State”, Home Ministry, 2005.

3] D.P. Agrawal and Manikant Shah, “Earthquake Resistant Structures of Himalayas”, Infinity Foundation, 2001.

4] Proceedings, seminar and workshop on seismic isolation, passive energy dissipation and active control; ATC-17, Applied Technology Council (ATC), Redwood City, CA, 1986.


Nitin Sridhar

The author is a student of civil engineering

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आंकड़ों के अंकगणित से मारेंगे गरीबी

भारत में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या है? योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर कमेटी कहती है कि कुल आबादी के 37 फीसदी. अब जिस सरकार के लिए योजना आयोग योजनाएं बनाती है उसी सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश में गरीबी के ताजे आंकड़े जारी होंगे. साफ है, प्रधानमंत्री को गरीबी के आंकड़े नागवार गुजरे हैं और वे अब आंकड़ों से मारेंगे गरीबी.

नया साल और नयी दहाई के लगने से पहले एक बात करीब-करीब तय हो चुकी है। देश की कुल आबादी में गरीबों का हिस्सा, सरकार अब तक जितना मानती आयी है, आइंदा उससे काफी ज्यादा माना जाएगा। योजना आयोग ने गरीबों के हिस्से का नया अनुमान पेश करने के लिए तेंडुलकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी। कमेटी की सिफारिश के हिसाब से गरीबी का सही अनुमान 37 फीसद बैठता है। यह अब तक चले आ रहे 27.5 फीसद जनता के गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे होने के अनुमान से करीब 10 फीसद ज्यादा है। यानी 2009 तक सरकार देश में जितनी आबादी को गरीब मानने के लिए तैयार थी, 2010 में उससे करीब डेढ़ गुने लोगों को गरीब मानने के लिए तैयार होगी। बेशक, तेंडुलकर कमेटी की सिफारिशों पर अभी सरकारी अनुमोदन की मोहर लगनी बाकी है। लेकिन, यह सिर्फ एक औपचारिकता का मामला है, जिसे जल्द ही और हर सूरत में अगले बजट से पहले ही पूरा कर लिया जाएगा।

बेशक, गरीबी अनुमान में होने वाले संशोधन का जिक्र कर हम कोई यह इशारा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि यह अनिवार्य रूप से पिछले कुछ अर्से में गरीबों के हिस्से के बढऩे को दिखाता है। जाहिर है कि पिछला एक-डेढ़ साल विश्व आर्थिक संकट का रहा है, जिसका असर भारत की वृद्घि दर पर ही नहीं पड़ा है बल्कि निर्यातों पर तथा खासतौर पर कपड़ा जैसे निर्यातों पर बहुत ज्यादा पड़ा है। सीधे रोजगार पर और कुल मिलाकर गरीबी पर भी इसका असर पड़े बिना नहीं रह सकता है। एक अनुमान के अनुसार इस संकट ने दुनिया भर में 10 करोड़ नये लोगों को भूख के जबड़ों में झोंका है। इसके बावजूद, गरीबी अनुपात के अनुमान में प्रस्तावित बढ़ोतरी का, गरीबी में इस बढ़ोतरी से कोई सीधा संबंध नहीं है। वास्तव में एक तरह से तो यह गरीबी की रेखा को जरा सा ऊपर सरका दिए जाने का ही मामला है, जिससे आमदनी के लिहाज से एक पैसा भी आगे पीछे हुए बिना ही, पहले से दस फीसद ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे यानी सरकारी मान्यताप्राप्त गरीबों की श्रेणी में आ जाएंगे।

इसीलिए, अचरज की बात नहीं होगी कि गरीबों के हिस्से में ठीक-ठाक छलांग के बाद भी, सरकार गरीबी घटाने के ही दावे करती नजर आए! वास्तव में खुद प्रधानमंत्री ने उड़ीसा में अर्थशास्त्रियों की एसोसिएशन के सालाना सम्मेलन में ठीक ऐसा ही दावा किया है। गरीबी के आंकड़े में बढ़ोतरी की विडंबना को भुलाकर, इसे भी यूपीए सरकार के गरीबों का बहुत ख्याल रखने के ही सबूत के पेश किए जाने की उम्मीद की जानी चाहिए। जाहिर है कि इसके लिए यही दलील दी जाएगी कि आखिरकार गरीबों के ही हितों की तो चिंता है कि सरकार, गरीबी की रेखा को अगर वास्तव में ऊपर नहीं भी उठा रही है, तब भी उसका पहले से मुकम्मल माप तो पेश कर ही रही है। लेकिन, यूपीए सरकार गरीबों की चिंता का इस तरह का झूठा दिखावा ही तो करती आयी है। वर्ना गरीबी अनुपात का बढ़ा हुआ आंकड़ा तो इस आंखें खोलने वाली सचाई को ही दिखाता है कि कथित आर्थिक सुधारों के करीब दो दशक बाद भी, हरेक दस में से करीब 4 भारतीय गरीब हैं और देहात में तो यह हिस्सा करीब आधा है।

यह तो तब है जबकि गरीबी का नया आंकड़ा भी शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी आहार के सर्वस्वीकृत मानक की जगह पर, करीब 1775 कैलोरी प्रतिव्यक्ति आहार को ही आधार बनाकर गणना करता है। वास्तव में यह जिंदा रहने के लिए आवश्यक न्यूनतम, 1800 कैलोरी आहर से भी कुछ कम ही है। अगर शहरी आबादी के लिए 2100 कैलोरी तथा ग्रामीण आबादी के लिए 2400 कैलोरी आहार की मानक जरूरत को आधार बनाकर गरीबों के हिस्से की गणना की जाए, जोकि गरीबी का इकलौता सही माप होगा, तो गरीबों का हिस्सा बहुत ज्यादा बैठेगा। यह हिस्सा कितना हो सकता है, इसका कुछ अंदाजा खुद सरकार के ही राष्ट्रीय असंगठित क्षेत्र उद्यम आयोग के आकलन से लगाया जा सकता है, जिसके हिसाब से 78 फीसद भारतीय, 20 रु0 रोज या उससे कम में गुजारा करते हैं।

बहरहाल, यूपीए सरकार से इसकी शिकायत करना बेकार है कि वह उसी रास्ते पर चल रही है, जिसने तमाम ऊंची वृद्घि दर के बावजूद, गरीबी तथा भूख में कोई वास्तविक कमी करने के बजाय उन्हें बढ़ाया ही है। इसीलिए, उस दौर में भी जब सरकार खुद यह स्वीकार करती नजर आ रही है कि 37 फीसद से ज्यादा आबादी गरीबी में जी रही है, सर्वोच्च स्तर पर सरकार को सिर्फ एक ही चिंता सता रही है कि वृद्घि दर का आंकड़ा आठ फीसद से ऊपर कब पहुंचेगा! लेकिन, किस्सा सिर्फ इसी पर खत्म नहीं हो जाता है। अब लगभग खत्म 2009 में, जब सबसे बढ़कर वृद्घि दर में गिरावट के चलते आम मुद्रास्फीति की दर न सिर्फ काफी नीचे बनी रही थी बल्कि महीनों तक शून्य से नीचे भी बनी रही थी, सिर्फ खाने-पीने की वस्तुओं के मामले में ही मुद्रास्फीति की दर बराबर दो अंकों में बनी रही और पिछले महीनों में 20 फीसद के अंक के करीब पहुंच गयी। यह मेहनत की कमाई खाने वालों की वास्तविक आय में भारी गिरावट की ही कहानी है और यह गिरावट, बेरोजगारी के चलते उनकी आय में होने वाली कमी के ऊपर से है। लेकिन, यूपीए सरकार तो आर्थिक संकट के चलते बढ़ी हुई बेरोजगारी से तो आम तौर पर इंकार ही करती रही है। रही खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई तो इस मामले में तो संसद के पिछले सत्र के दौरान उसने, बाकायदा हाथ ही खड़े कर दिए।

यह पहले से चली आती नीतियों के दायरे में भी हालात, मेहनत की रोटी खाने वालों की नजर से पहले से बदतर होने की ही कहानी कहता है। बेशक, हालात के बदतर होने का काफी-कुछ संबंध इसी अप्रैल-मई में हुए आम चुनाव में यूपीए के पिछली बार से ज्यादा ताकत के साथ दोबारा सत्ता में आने और उससे भी बढ़कर उसे न सिर्फ वामपंथ के समर्थन पर निर्भरता से मुक्ति मिल जाने बल्कि संसद में वामपंथ की ताकत घट जाने से है। बंगाल में वाम मोर्चा तथा उसकी सरकार का क्रांतिकारी विकल्प पेश करने का दावा करने वालों तथा उनके भांति-भांति के पैरोकारों के बड़बोले दावों के बावजूद, सचाई यही है कि संगठित वामपंथ को धक्का लगने से, राजनीतिक ताकतों का संतुलन मेहनत-मजदूरी करने वालों के और भी खिलाफ हो गया है। खाद्य महंगाई से सरकार की नींद खराब न होना, इसी बदलाव का सबूत है। अगले बरस और उसके बाद भी तब तक यह बदलाव अपना असर दिखाएगा, जब तक कि वामपंथ कम से कम जनता के बीच अपनी पहले की हैसियत फिर से हासिल नहीं कर लेता है। पर यह श्रमसाध्य भी होगा और समय साध्य भी। तब तक तेरा क्या होगा गरीबी!

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मँहगाई के मुसीबत की अनकही इबारत

हमारे कृषि मंत्री शरद पवार कह रहे हैं कि मंहगाई रोक पाना उनके वश में नहीं है. अब वे साफ तौर पर अपने हाथ खड़े कर चुके हैं और कह रहे हैं कि अगर मंहगाई को रोकना है तो राज्य सरकारों को ही पहल करनी होगी. राज्य सरकारें केन्द्र सरकार को दोष दे रही हैं. लेकिन मंहगाई की लगातार बढ़ती मार का असल कारण क्या है?

भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं. पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है. यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है.खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रही हैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं. राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है. उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है. अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं.करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.

इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है. किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है. अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है.यही हाल बाकी फसलों का भी है. यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है. किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है. वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..

महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था. आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें. उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता( ग्राम स्वराज्य)...

लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी. देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया. बाद की सरकारें उसी सोच को आगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं. तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर निर्भर हो गयी है.

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For one year, Rlys charged you what they were told not to

Ahead of the Rail Budget, the Railways is being asked to explain how it continued levying a surcharge that should have stopped March 31, 2007.

Under the scanner is the move by the Railways to convert a safety surcharge on passenger fares into a development charge to raise money for its dedicated freight corridor project. This move, which drew adverse remarks from the Parliamentary Standing Committee on Railways in two successive reports, has even invited queries from the Prime Minister’s Office.

At the centre of the row is a Rs 1,000-crore sum which the Railways will end up collecting as development charge from passengers by the end of the current fiscal. Not a fresh levy, this development charge was essentially a change of name for the safety surcharge which the Ministry had levied since 2001 to raise funds for the Special Railway Safety Fund (SRSF).

Set up in October 2001 following recommendations of the Railway Safety Review Committee headed by Justice H R Khanna, the SRSF was a non-lapsable fund of Rs 17,000 crore to clear arrears in replacement and renewal of overaged safety related assets like tracks, bridges, signal and telecom equipment and rolling stock within a fixed time frame of six years — from 2001-02 to 2006-07.

While Rs 12,000 crore for the SRSF was to come as dividend-free budgetary support from the Central government, the Railways were mandated to mobilise the remaining Rs 5,000 crore through levy of a safety surcharge on passenger fares.

The Railways began levying a safety surcharge, ranging from Re 1 to Rs 100, depending upon the class of travel and the total distance travelled. For travel up to 500 km, a Sleeper Class passenger had to pay Rs 10 as safety surcharge. Similarly, AC-3 and AC-2 passengers invited safety surcharges of Rs 30 and Rs 40 respectively. Exactly double the amounts were charged in case of travel beyond 500 km. The move paid off, generating a substantial sum. For instance, against projections of Rs 750 crore, the Railways earned Rs 850 crore in 2006-07 through the safety surcharge.

With the six year period for SRSF works running out on March 31, 2007, the Railways were supposed to stop levying the safety surcharge beyond that date. But five days before the deadline, the Railway Board came out with a circular stating that the Ministry had decided to subsume the safety surcharge in passenger fares “on as is where is basis in the form of a development charge to fund the dedicated freight corridor”. The circular stated that receipts from the development charge would be included in “passenger earnings” starting April 1, 2007.

Slamming the move, the Parliamentary Standing Committee on Railways called it a “deceptive practice”. In its latest report tabled in Parliament in December 2007, the committee pointed out that the Railways went ahead “inspite of the committee’s repeated recommendations against such a move”.

Disagreeing with the Ministry’s view that imposition of a development surcharge on passenger fares will not result in any change in existing chargeable passenger fares, the committee said that “withdrawal of safety surcharge from the passenger fares would have certainly given some relief to passengers” and that “replacing safety surcharge with development charge has obviously denied this relief to the passengers.”

“The safety surcharge was levied for the specific purpose of raising funds for asset renewals. All the funds required for the Rs 17,000 crore SRSF have already been collected in the fixed tenure. When no extra funds are going to come from the Central exchequer, why should Railways continue to burden the passengers?” said Basudeb Acharia, chairman of the Parliamentary Standing Committee on Railways.

“Converting the safety surcharge into a development charge is an indirect way to earn revenues. It raises questions of propriety considering the fact that it was not mentioned in the last Rail Budget speech. While the Railways make claims of having reduced fares, they are indulging in deceptive practices like these,” he said, adding that the Committee had specifically recommended withdrawal of this charge and sought an Action Taken Report from the Ministry.

When contacted, a Railway Ministry spokesperson declined comment.
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20100117

खुशहाली का जीडीपी से कोई रिश्ता नहीं होता

भारत सरकार देश के विकास के लिए जीडीपी बढ़ाने पर पूरा जोर देती है। उसकी मान्यता है कि जीडीपी अगर 10 फीसदी पर पहुंच जाय तो देश की समस्याएं जैसे गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, गैर-बराबनी काफी हद तक समाप्त हो जायेंगी। पर दुनिया के अन्य देशों का अनुभव इस बात की पुष्टि नहीं करता। इस लेख में यही दिखाया गया है कि जीडीपी ऊँचा होने पर भी लोगों में खुशहाली नहीं आ सकती और जीडीपी कम भी हो तो भी खुशहाली लायी जा सकती है। सं.

5 अक्टूबर 2009 को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव रिपोर्ट 2009 जारी हुई। इसमें उन देशों का उल्लेख विशेष रूप से किया है जिन्होंने अपने देश में ज्यादा खुशहाली पैदा की है यानी जिनका मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) काफी ऊँचा है। एक बार फिर इस रिपोर्ट ने क्यूबा की असाधारण उपलब्धियों को विशेष रूप से उजागर किया है। विकास के आँकड़ों और अनुमापन पर यह रिपोर्ट सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला स्रोत है। यह प्रत्येक देश की विकास की स्थिति और प्रगति की तुलना करती है।

इस साल के बहुत से आंकड़े दिये हैं। लोगों की खुशहाली के सार सूचकांक एचडीआई को इस्तेमाल करके दिये गये हैं। एचडीआई में चार सूचकांक शामिल किये जाते हैं। जिन्दा रहने की औसत आयु, साक्षरता, स्कूल में भर्ती और प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)। ये आंकड़े 182 देशों के दिये गये हैं।

गरीबी से पीड़ित छोटा टापू क्यूबा, जिसकी अर्थव्यवस्था को लुंज बनाने के लिए अमरीका ने आर्थिक बिन्दश लगा रखी है, इसके बावजूद मुख्य रूप से लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा में सबसे आगे है। क्यूबा का शिक्षा का सूचकांक दुनिया में सबसे ऊँचा है, उसके बराबर ऑस्ट्रेलिया, फिनलैंड, डेनमार्क और न्यूजीलैण्ड आते हैं। क्यूबा का शिक्षा सूचकांक 0.993 है, प्रौढ़ साक्षरता दर 99 फीसदी है और स्कूल में भर्ती 100 फीसदी है। क्यूबा में शिक्षा पर सरकारी खर्च कुल सरकारी खर्च का 14.2 फीसदी है। यह ऑस्ट्रेलिया (13.3 फीसदी) और अमरीका (13.7 फीसदी) से अधिक है।

प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में प्रवेश में लड़के-लड़कियों की संख्या का अनुपात दुनिया में सबसे ज्यादा 121 फीसदी है। जिन्दा रहने की उम्र क्यूबा में 78.5 साल है। लातिनी अमरीका में यह उच्चतम है, इसके बराबर चिली की है। यह आस्ट्रेलिया की 81.4 साल और अमरीका की 79.1 साल से मेल खाती है।

स्वास्थ्य और शिक्षा में क्यूबा या तो चोटी पर है, या चोटी के निकट है, पर जीडीपी में यह काफी नीचे है। जीडीपी में यह दुनिया में 95वें स्थान पर आता है। कम जीडीपी के कारण यह मानव विकास रिपोर्ट एचडीआर की सूची में 51वें स्थान पर आता है। फिर भी इसकी एचडीआर रैंकिंग जीडीपी रैंकिंग से काफी ऊँची है। इन दोनों रैंकिंग का अन्तर यह दिखाता है कि कैसे कोई कम आय वाला देश राष्ट्र की आय को कुशलतापूर्वक अपने लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर लगा सकता है। इस श्रेणी में क्यूबा दुनिया में बहुत आगे है।

उदाहरण के लिए मेक्सीको का जीडीपी क्यूबा से दूना है, लेकिन इसका एचडीआई नीचे है। प्रतिव्यक्ति जीडीपी में अमरीका 9वें स्थान पर है, पर एचडीआई रैंकिंग में 13वें स्थान पर आता है। यह दिखाता है कि अमरीका अपनी सम्पत्ति को लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर कम लगाता है।

रिपोर्ट में एक अनुमापन `जेंडर सशक्तीकरण´ है। इसका एक सूचकांक है संसद में महिला सीटों की संख्या। क्यूबा में 43 फीसदी संसद की सीटें महिलाओं के पास है। यह दुनिया में तीसरा स्थान है, पहले स्थान पर रुआंडा (51 फीसदी) और दूसरे पर स्वीडेन (47 फीसदी) है। आस्ट्रेलिया 30 फीसदी और अमरीका में केवल 17 फीसदी है, भारत में 7 फीसदी है। 2005 से अजरबैजान, क्यूबा और बेनेजुएला ने अपना एचडीआई अन्य देशों की तुलना में ज्यादा बढ़ाया हैं। पिछले साल के मुकाबले बैनेजुएला 4 सीढ़ी ऊपर चढ़ गया है 62 से 58 पर पहुंचा है। एचडीआई में भी बैनेजुएला ने 2000 से 2007 तक काफी प्रगति की है। इस अवधि में उसकी दर 5.2 फीसदी रही है। जबकि इससे पहले 20 सालों में यह 4.8 फीसदी रही थी।

विकास का एक सूचकांक गैर-बराबरी है। एचडीआई में आस्ट्रेलिया दूसरे स्थान पर है। तथाकथित विकसित देशों में यह सबसे अधिक गैर-बराबरी वाले देशों में से एक है। रिपोर्ट बताती है कि आस्ट्रेलिया की आबादी में सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों की आमदनी सबसे गरीब 10 फीसदी लोगों की आमदनी से 12.5 गुनी ज्यादा है। जापान में यह अनुपात 4.5, नार्वे में 6.1 और स्वीडन में 6.2 है अमरीका में यह आंकड़ा 15.9 है, क्यूबा में 4 है और शायद दुनिया में यह सबसे अच्छा है।

इस रिपोर्ट से एक निष्कर्ष निकलता है कि 1. जो सरकार, जैसे अमरीका और आस्ट्रेलिया में गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा को कुछ लोगों का विशेषाधिकार बना देती है, वह गैर बराबरी पैदा करती है और बढ़ाती है। 2. जो सरकार जैसे क्यूबा में, अपने सभी नागरिकों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराती है, सभी को लाभ पहुंचाती है और वह गैर-बराबरी को कम करती है.

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तेलंगाना के तीरंदाज: चंद्रशेखर राव

अभी पांच महीने पहले जिन चंद्रशेखर राव ने अपनी ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया था और पार्टी के कुछ नेताओं पर आरोप लगाया था कि उन्हें और उनके परिवार को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है वही कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव (केसीआर) अब तेलंगाना के नायक और आंध्र के खलनायक बनकर पूरी तरह से उभर आये हैं. कोई उन्हें नायक समझे या खलनायक लेकिन इतिहास के पन्नों पर उन्होंने वह लाइन लिख दी है जो उन्हें हैदराबाद के निजाम के बराबर ला खड़ा करता है. राजनीतिक रूप से राव अब दक्षिण की बड़ी शख्सियतों में शामिल हो गये हैं.

हैदराबाद रियासत के मद्रास प्रेसिडेन्सी में विलय के साथ ही निजामशाही का खात्मा हो गया था और तेलंगाना को भी बाद में मद्रास प्रेसिडेन्सी से अलग हुए राज्य आंध्र प्रदेश का हिस्सा बना दिया गया था. लेकिन तेलंगाना अपनी सांस्कृतिक पहचान पाने के लिए अपने अलग राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई से कभी पीछे नहीं हटा. हालांकि यह लड़ाई कमजोर और क्षीण थी और अलग तेलंगान की मांग कभी वैसी तेज नहीं हो पायी जैसी अलग आंध्र प्रदेश की मांग थी. फिर भी अलग तेलंगाना की मांग कायम बनी रही. कहते हैं व्यक्ति समय को प्रभावित नहीं करता बल्कि समय व्यक्ति का चयन करती है. राव का राजनीतिक उदय बिल्कुल इस बात को सटीक रूप से सत्यापित करता है. समय ने तेलंगाना के सवाल पर मानो चंद्रशेखर राव का वरण कर लिया था और देखते देखते राव इतिहास पुरुष हो गये.

चंद्रशेखर राव का जन्म 1954 में मेडक जिले में हुआ था जहां उनके पूर्वज कई पीढ़ी पहले आकर बस गये थे. चंद्रशेखर राव शुरू से राजनीतिक महत्वाकांक्षा के व्यक्ति नहीं थे इसलिए शुरूआती पढ़ाई लिखाई के बाद घर परिवार चलाने के लिए उन्होंने कमाई के लिए खाड़ी देशों के लिए जानेवाले लोगों का वीजा बनवाना शुरू किया. लेकिन टीडीपी के उदय ने उनके मन में राजनीतिक ललक पैदा कर दी. जिन दिनों एनटीआर आंध्र की राजनीति का समाजशास्त्र बदलने में लगे थे उन्हीं दिनों वे टीडीपी के साथ आ गये और राजनीति में हाथ आजमाने शुरू कर दिये. एनटीआर की मौत के बाद वे चंद्राबाबू के साथ हो गये. जब चंद्राबाबू दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो केसीआर कैबिनेट मंत्री बनना चाहते थे. लेकिन चंद्राबाबू ने उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाने की बजाय विधानसभा का डिप्टी स्पीकर बना दिया. केसीआर को यह बात नागवार गुजरी और 2001 में उन्होंने टीडीपी से किनारा कर तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन कर दिया.

पार्टी के अलग निशान के साथ ही एक पहचान और मुद्दे की जरूरत भी होती है. केसीआर ने देखा कि तेलंगाना के सवाल को फिर से सुलागाया जा सकता है जिससे पार्टी को आंध्र के हिस्से में अच्छा खासा जनाधार मिल जाएगा. राजनीतिक रूप से यह फैसला बहुत सही था क्योंकि राज्य में कांग्रेस और टीडीपी के बीच स्पेश बनाने के लिए किसी सटीक राजनीतिक मुद्दे का होना जरूरी था. केसीआर ने वही किया. उन्होंने अलग तेलंगाना की मांग उठायी. उसका नतीजा यह हुआ कि टीआरएस गठन के साथ ही एक ताकतवर पार्टी के रूप में उभरने लगी. 2004 के राज्य विधानसभा चुनावों में टीडीपी का सफाया करने के लिए कांग्रेस के नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी ने चंद्रशेखर राव से हाथ मिला लिया। इसका जितना फायदा कांग्रेस को हुआ उससे अधिक फायदा टीआरएस को हुआ. टीआरएस के 26 विधायक हैदराबाद पहुंच गये और 5 सांसद दिल्ली. राजशेखर रेड्डी ने चंद्रशेखर राव से वादा किया था कि वे तेलंगाना बनवाने में उन्हें हर प्रकार की मदद करेंगे और तेलंगाना किसी भी समय हकीकत में तब्दील हो सकता है. दिल्ली की सरकार में चंद्रशेखर राव को मंत्री तो बनाया गया लेकिन कांग्रेस के मन में अलग तेलंगाना को लेकर कोई गंभीर विचार नहीं था इसलिए लगातार पांच साल तक चंद्रशेखर राव को हाशिये पर रखा गया. राज्य और केन्द्र दोनों जगहों पर कांग्रेस का काम निकल चुका था और अब राव को राजनीतिक पटखनी मिल चुकी थी और सिवाय धूल झाड़ने के वे कुछ नहीं कर सकते थे.आखिरकार तंग आकर सितंबर 2006 में राव ने केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और तेलंगाना के आंदोलन को आगे बढ़ाने का निश्चय किया.

2008 में आंध्र में हुए उपचुनाव ने उन्हें एक बार फिर सफलता दी और 7 विधानसभा तथा 2 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रहे. चंद्रशेखर राव तेलंगाना में अब राजनीतिक आका के रूप में उभर चुके थे. इसका परिणाम यह हुआ कि जिन चंद्राबाबू नायडू ने कभी उन्हें राज्य में कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया था उन्हीं चंद्राबाबू ने 2009 के चुनाव में उनके साथ आ खड़े हुए और अलग तेलंगाना को अपना समर्थन दे दिया. लेकिन 2009 के राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनाव राव के लिए झटका साबित हुए. 2009 के चुनाव में वाईएस राजशेखर रेड्डी का जादू पूरे आंध्र में चला जिससे तेलंगाना भी अछूता नहीं रहा. टीआरएस को राज्य विधानसभा में सिर्फ 10 सीटें मिलीं. ऊपर से चंद्रशेखर राव के ऊपर टिकट बेचकर पैसा बनाने का आरोप भी लगा लेकिन करीमनगर लोकसभा सीटे से भारी अंतर से जीतने में कामयाब रहे. राव के ऊपर उन्हीं के पार्टी नेताओं ने आरोप लगाये कि पार्टी का टिकट बेचकर उन्होंने 10 करोड़ रुपये कमाए हैं. क्षोभग्रस्त राव ने अपनी ही बनायी पार्टी से 19 जून 2009 को इस्तीफा दे दिया.

इसी हताशा और निराशा के दौर में राव यह तो महसूस कर ही रहे थे कि उनके मूल मुद्दे पर लौटे बिना उनकी राजनीतिक वापसी संभव नहीं होगा. कांग्रेस के जिस नेता पर उन्होंने विश्वास कर कांग्रेस से गठजोड़ किया था वे भी अब इस दुनिया में नहीं थे और अगर राव सक्रिय नहीं होते तो कांग्रेस के कमजोर होने से जो जगह बनती वहां टीडीपी काबिज हो जाती. इसलिए राव ने पार्टी के अंदरूनी संकट और घटती राजनीतिक औकात को बढ़ाने के लिए अचानक ही आमरण अनशन का निर्णय ले लिया. ग्यारह दिन के आमरण अनशन ने न केवल आंध्र के भूगोल और राजनीतिक को हमेशा के लिए बदल दिया बल्कि चंद्रशेखर राव की निजी जिंदगी भी हमेशा हमेशा के लिए बदल गयी. अब वे तेलंगाना के जन्मदाता के तौर पर याज किये जाएंगे. आनेवाले दिनों में तेलंगाना एक हकीकत बनेगा और चंद्रशेखर राव उस हकीकत को सामने लाने वाले इतिहास पुरुष. निश्चित रूप से समय ने राव का सटीक चुनाव किया और अपना काम कर गया.

(www.visfot.com)

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नए साल के जश्न से पहले

• एक सरकारी रिपोर्ट कहती है कि भारत में ग़रीबी बढ़ी है और अब हर तीसरा भारतीय दरिद्र है.

• मुंबई मेट्रोपोलिटन रिजनल डवलपमेंट अथॉरिटी के आयुक्त रत्नाकर गायकवाड का कहना है कि मुंबई में 54 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है. लेकिन वे यातायात को सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं.

• भारत के गृहमंत्री ने कहा है कि नक्सली अब देश के 20 राज्यों के 223 ज़िलों में फैल गए हैं.

• साल भर में औसतन एक हज़ार फ़िल्म बनाने वाले भारतीय बाज़ार में अच्छी कही जाने लायक फ़िल्मों की संख्या दहाई तक भी नहीं पहुँच पाई है.

(विनोद वर्मा)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.