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20100119

घाटी में वापस लौटेंगे 4000 कश्मीरी पण्डित

कश्मीर घाटी में चार हजार से अधिक कश्मीरी पण्डितों के वापस लौटने का रास्ता साफ हो गया है. चार हजार से अधिक कश्मीरी पण्डितों ने घाटी में वापस लौटने पर अपनी रजामंदी दे है जिनके लिए सरकार व्यवस्था करेंगी.

राज्य विधानसभा की आश्वासन समिति ने कश्मीरी पंडितों की घाटी वापसी की योजना पर विचार-विमर्श करते हुए कहा है कि इसे प्रभावी बनाते समय विभिन्न समुदायों को करीब लाने की कोशिश की जाए। समिति के अनुसार घाटी में वापसी के लिए 4272 पंडितों ने आवेदन किया है। इनमें से श्रीनगर जिले के लिए 1185, पुलवामा के लिए 1120, शोपियां के लिए 447, कुपवाड़ा के लिए 412, अनंतनाग के 344, बडगाम के 282, बारामूला के 238, कंगन के 146 व गांदरबल लौटने के लिए 98 विस्थापितों ने आवेदन किया है।

विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज के तहत इस समुदाय के लोगों को तीन हजार नौकरियां देने के प्रस्ताव को हाल ही में मुख्यमंत्री उमर फारूक ने मंजूरी दी है। इस प्रस्ताव का लाभ उठाने के लिए 13,971 युवाओं ने नौकरी के लिए अपना बायोडाटा दिया है। कश्मीरी पंडितों के लिए शेष तीन हजार नौकरियों का प्रबंध केंद्र को करना है। विधायक एमवाई तारीगामी की अध्यक्षता में हुई आश्वासन समिति की बैठक में राजस्व विभाग की ओर से दिए गए कई आश्वासनों पर भी गौर किया गया। इस दौरान कमेटी के सदस्यों की ओर से भी कश्मीरी पंडितों की घाटी वापसी को लेकर सुझाव दिए गए। बैठक में मौजूद अधिकारियों ने घाटी वापसी को लेकर बनाई गई योजना और पंडितों को मिलने वाले वित्तीय लाभ के बारे में भी बताया। समिति के मुताबिक विस्थापितों के लिए शेखुपोरा में 78 फ्लैट बनाए गए हैं, जबकि 60 फ्लैटों का निमार्ण जल्द पूरा हो जाएगा। कुलगाम के वैसु व बारामूला के खानपुर में भी विस्थापितों के रहने के लिए बुनियादी ढांचा जुटाया जाएगा।

27 तारीख को नई दिल्ली में पनुन कश्मीर के एक वार्षिक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए राज्य के राज्यपाल एस के सिन्हा ने कहा था कि कश्मीरी पण्डितों के लिए जितना कुछ किया जाना चाहिए था वह नहीं किया जा सका, इसके लिए देश को कश्मीरी पण्डितों से माफी मांगनी चाहिए.

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090709

Hindu temple, Muslim priests

Mamal (Pahalgam), This is a place where politicians need to come and take a few lessons in secularism. After militancy forced Hindus to migrate from the Kashmir valley in the 1990s, Muslims have been acting as “priests” and “caretakers” of the ancient Mamalaka Temple on the outskirts of Pahalgam.

Not only has this 900-year-old Shiva temple with a two-foot “shivaling” been preserved in its original form, Mohammad Abdullah and Ghulam Hassan have ensured that all these years the temple did not go without “parshad” or “aarti” even for a single day. Besides the regular rituals, a daily prayer is held here in which the Muslim priests pray for the return of the Hindus, who had migrated.

Built on the right bank of the Lidder river by Raja Jai Suria (1128-1155 AD), the 8 sq ft temple was a popular destination for everyone on a pilgrimage to the Amarnath cave shrine. Till 1990, the temple, a property of the Jammu and Kashmir State Archaeology, Archives and Museum Department and a protected monument, had Pandit Radha Krishan, who hailed from Ganeshpora, responsible for its maintenance.

But with militancy rising in the 1990s, Pandit Radha Krishan was made to leave along with other Hindus of the area, abandoning the temple. Initially, Abdul Bhatt, who was close to Pandit Radha Krishan, looked after the temple for many years. Bhatt was transferred from the area about five years ago and ever since Mohammad Abdullah and Ghulam Hassan, both employees of the government, were entrusted the task of maintaining the building and its surrounding. However, not satisfied by merely keeping the temple clean, the two have ensured that the temple remains fully functional despite threats from the militants. The temple continues to be preserved in its original form in its eight-by-eight premises. It houses the entire family of Lord Shiva comprising Ganesha, Mata Parvati and Hanuman carved in stone. Besides, the temple has a natural spring that fills the holy pond.
According to Abdullah, during the last two-three years, the number of Hindu devotees to the temple has increased slightly. These include some visiting Hindu families that left the area as well as tourists, who know about the place.

Talking to The Tribune, he said, “We have guarded this place for the Hindus. It is their “amanat”. But now the situation has improved. We want that a Hindu priest should take over this holy place. Being Muslims, we tried to do whatever best we could to keep the temple functional, but it should ideally be run by a Hindu priest”.

Further Abdullah and Hassan say their daily prayer includes a special mention to the Hindus when they say, “Lord, the heaven on earth is here in the valley. Please facilitate the return of our Hindu brothers from the hell outside”.
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090129

कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं

1958 में पुणे में जन्मे संजय काक मूलत कश्मीरी पंडित हैं. अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के छात्र रहे संजय ने 2003 में नर्मदा घाटी परियोजना के विरुद्ध एक बहुप्रशंसित फिल्म 'वर्ड्‌स ऑन वाटर' बनायी. उन्होंने इसके अलावा 'इन द फॉरेस्ट हैंग्स अ ब्रिज', भारतीय लोकतंत्र पर 'वन वेपन' तथा 'हार्वेस्ट ऑफ रेन' जैसी फिल्में बनायी हैं.

हाल ही में उन्होंने कश्मीर समस्या पर 'जश्ने आजादी' नामक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनायी है, जिसका प्रदर्शन देश और दुनिया भर में हो रहा है. इसके लिए संजय को जितनी प्रशंसाएं मिली हैं, उसी पैमाने पर आलोचना भी. ऐसा उनकी फिल्म के नजरिये को लेकर है, जिसमें वे सरकारी दृष्टि के बजाय कश्मीर समस्या को लेकर एक अलग सोच के साथ पेश आते हैं, जो कश्मीर के लोगों के ज्यादा करीब है. फिल्म में दिखाये गये दृश्य अविस्मरणीय हैं-आजादी के नारे, दूर तक फैला सन्नाटा भरा कब्रिस्तान, हत्याएं और फौजी गतिविधियां. कुल मिला कर 'जश्ने आजादी' हमारे सामने कश्मीर की त्रासदी का एक महाआख्यान प्रस्तुत करती है, ऐसा आख्यान जो इससे पहले इस तरह कभी नहीं लिखा-कहा गया.

यहां पेश है संजय काक से रेयाज-उल-हक की बातचीत.
आप खुद कश्मीरी हैं, मगर आपने कश्मीर पर एक फिल्म बनाने के बारे में इतनी देर से कैसे सोचा और इसके लिए यह वक्त क्यों चुना? कोई खास वजह?


पहले इतने कामों में व्यस्त था कि इस पर सोचने का वक्त ही नहीं मिला. लेकिन हिंदुस्तान में क्या हो रहा है, इस पर सोचने का मौका मिला. 'वर्डस ऑन वाटर' जो पहली फिल्म है, उसे बनाने के दौरान बारीकी से देखने का मौका मिला कि जो हमारे इंस्टीट्युशंस हैं, जिनके बल पर यह डेमोक्रेसी चलती है, उनमें क्या हो रहा है. और जो भी देखने को मिला, उससे बहुत हताशा हुई. भारतीय लोकतंत्र खोखला-सा दिखने लगा. संसद पर 2001 में जो हमला हुआ था, उसमें जो प्रो एसएआर गिलानी का मामला चल रहा था. उनके बचाव पक्ष के वकीलों ने मुझसे संपर्क किया कि उनका जो टेलीफोन टेप हुआ था,वह कश्मीरी में है, उसका अनुवाद करना है. वह चाहते थे कि यह अनुवाद कोई कश्मीरी पंडित करे.

मैं नहीं समझा कि डिफेंस क्यों चाहता था कि यह काम कोई कश्मीरी पंडित करे. मैंने कहा कि दिल्ली में बहुत सारे कश्मीरी पंडित हैं, किसी से भी करा लीजिए. वे हंसने लगे. उन्होंने कहा कि कोई तैयार नहीं. मुझे इससे गहरा धक्का लगा. इस पूरे मामले में देखने को मिला कि उग्र राष्ट्रवाद किस तरह पूरे देश को जकड़ लेता है. हर जगह यह था- पुलिस हो या मीडिया. तब मैंने समझा कि कितना कुछ हो रहा है कश्मीर में. फिर हम कश्मीर गये. यह सोच कर नहीं कि फिल्म बनानी है,बल्कि यह सोच कर कि बाहर बहुत दिनों तक रहे, अब कुछ दिन वहां रह कर देखेंगे कि वहां क्या हो रहा है.

वहां जो कुछ देखने को मिला, उससे बहुत धक्का लगा. हालांकि आजकल उतना तनाव नहीं है, जितना 2003 में था. एयरपोर्ट से हमारे घर जाने में आधा-पौन घंटा लगता है. जितनी फौज, जितने सैनिक, जितनी बंदूकें, जितने बंकर देखे-वह सब देख कर हतप्रभ रह गया. ये भी जाहिर हुआ कि कश्मीर में बहुत कम लोग बोलने को तैयार हैं. वे कहते हैं कि क्यों बात की जाये, खास कर हिंदुस्तान के लोग आते हैं तो. क्या फायदा है कहने का. धीरे-धीरे लगने लगा कि यहां फिल्म बनाना मुश्किल तो है, लेकिन जरूरी भी.


एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाना और वह भी ऐसे क्षेत्र को लेकर, सरकार के और सेना के नजरिये के लगभग विरुद्ध जाकर, आपने जिसे दुनिया का सबसे सैन्यीकृत जोन कहा है, आसान तो कतई नहीं था. तो दिक्कतें नहीं आयीं, किस तरह की परेशानियां रहीं?


कोई भी क्रिएटिव काम दिक्कत के बगैर नहीं होता है. खास कर ऐसी फिल्में बनाने में दिक्कतें तो आती ही हैं. ये आपकी समझ पर है कि आप कितनी दिक्कतें पार कर लेते हैं. डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का रॉ मेटेरियल आम तौर पर यह होता है कि आप लोगों से बात करेंगे और वे आपको बतायेंगे. चाहे आप उसे फिल्म में इस्तेमाल करें या न करें. लेकिन जहां कि स्थिति इतनी टेंस हो, कोई यह नहीं जानता कि किससे क्या बात करे. अमूमन यह भी होता है कि लोग वही बोलते हैं जो आप सुनना चाहते हैं. क्यों पंगा ले कोई, चाहे गांव का बंदा हो या पत्रकार. लोग सिर्फ उतना ही कहेंगे जितना न्यूनतम जरूरी है.


तो मैंने मान लिया कि उस तरीके से फिल्म नहीं बनेगी कि गये और फील्ड में इंटरव्यू लिये और रॉ मटेरियल शूट किया और फिल्म बना ली. इसमें लोग क्या कहते हैं और वास्तव में क्या है, यह आपको गहरे तक देखना होगा. यह बडी दिक्कत है. दूसरी दिक्कत है आवागमन की. मान लीजिए कि हमें कहीं जाना है, कुपवाड़ा जाना है या दूसरी किसी जगह तो कश्मीर में यह भी एक समस्या है. बडी मुश्किल है, कहीं जाया नहीं जा सकता.


हम कॉलेज के लडको से मिले. उनमें से कुछ हमें अपने गांव ले गये. इस तरह शुरु किया. बाहर निकला तब जाना कि इतना मुश्किल भी नहीं है. मतलब बाहर से आने वाले लोगों के भीतर खौफ बना दिया जाता है. इससे होता ये है कि कश्मीर के बारे में लोगों की जो समझ है, वह अच्छी नहीं बनती. जो भी कश्मीर के बारे में लिखता है, अक्सर वह श्रीनगर के बारे में लिखता है. गांव-कस्बे में क्या हुआ, इसके बारे में नहीं. मैं यहां मीडिया को दोषी मानता हूं कि वे लोग सीमित हो जाते हैं. बीच-बीच में कोई बडा एनकाउंटर हुआ, कोई कांड हुआ तो वे जाते हैं, लेकिन वह रूटीन नहीं है.

एक बार हमने बाधा पार कर ली तो उसमें काफी सहूलियत हो गयी. तीसरी बात कि वहां सब कुछ नियंत्रण में है. आपसे कह दिया जाता है शूट करने की परमिशन लेने की जरूरत नहीं. लेकिन अगर कहीं आप रुक कर शूट करना चाहते हैं तो वहां मौजूद आर्मी का आदमी आपको शूट करने नहीं देगा. आप कहेंगे कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है तो वह आपको कहेगा कि वह ऊपर से पूछ कर ही शूट करने देगा. इसमें कई घंटे या फिर दिन भी लग सकते हैं. आप छह घंटे तो इंतजार नहीं कर सकते. आप गांव जाना चाहते हैं तो आपको नहीं जाने दिया जाता है कि वहां मिलेटेंट हैं. एक तरफ तो आपको कहा जाता है कि आप फ्री हैं, लेकिन दूसरी ओर आप कहीं नहीं जा सकते हैं. इसको भी आपको बाइपास करना है, किसी भी तरीके से.

कुल मिल कर ऐसी सिचुएशन है, जिसे समझना है आपको. समझ कर आपको बात कहनी है. हमारी यह जो फिल्म है, यह उन सबसे निपट कर बनी है. तजुरबा और तकनीक जो किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म मेकर का होता है कि आप किसी सिचुएशन में हैं और आपको फिल्म बनानी है तो कैसे बनायें. दरवाजा बंद है तो देखना है कि कौन सी खिडकी खुली है, कौन-सा पिछला दरवाजा खुला है, कहां से भीतर जाया जा सकता है.

ऐसा नहीं कि कोई गोपनीय फिल्म बना रहे हैं. हम तो साधारण-सी फिल्म, लोगों की फिल्म बना रहे हैं. ऐसा नहीं है कि लोग वहां फिल्में नहीं बनाते हैं, मगर एनजीओ टाइप एप्रोच के कारण उन्हें दिक्कत नहीं होती. किसी कॉलेज में जाकर लड़कों से बात करके कुछ बना देना आसान है. मगर सतह के नीचे जाने में दिक्कत तो होगी.
फिल्म बनाने के दौरान एनजीओ को लेकर आपके जो अनुभव रहे, वह जानना दिलचस्प होगा. कश्मीर में एनजीओ की क्या भूमिका है ?


आज की तारीख में कश्मीर में 14 हजार एनजीओ हैं. मैं समझता हूं कि जिस तरह पूरे देश में आज एनजीओ की आफत फैली हुई है, उससे एक नयी श्रेणी तैयार हो रही है. कश्मीर में बहुत ज्यादा पैसा आता है. बहुत से लोग इन्वॉल्व हो जाते हैं उनमें. और मैं समझता हूं कि कश्मीर में एनजीओ का डिपोलिटिसाइजिंग में बडा रोल है. तीन-चार साल में मैं जो जान पाया हूं, वह यह है कि कई युवा, जो कॉलेज में पढते थे, अच्छी पढाई कर रहे थे, जो बातें बडी अच्छी करते थे-किताबों की बातें और बहुत कुछ, वे अब धीरे-धीरे एनजीओ में नौकरी करने लगे हैं. उन्होंने किसी से उधार लेकर टेलीफोन और मोटरसाइकिल खरीदी है.

कुल मिला कर एनजीओ का किसी भी सोसाइटी में प्रभाव यही होता है कि वे बडे पैमाने पर राजनीति को डाइल्यूट कर देते हैं. हालांकि कुछ अच्छा काम करने वाले एनजीओ भी हैं और कुछ काम अच्छा भी होता है.

आपने अपनी फिल्म में कश्मीर के लोगों की जो इच्छाओं को सामने लाने की कोशिश की है. क्या है वह इच्छा, क्या आप उसे पूरे तौर पर सामने ला पाये हैं?


लोगों की इच्छा क्या है, यह जानना मुश्किल है. हालात वहां इतने बुरे हैं कि मुझे ही नहीं, लोग आपस में भी उनके बारे में बिल्कुल बात नहीं करते हैं. पब्लिक सिमट कर बैठी हुई है. जो लीडर हैं वहां, वे सब भावनाओं की ही राजनीति करते हैं.

भावना के स्तर पर वहां के लोग अव्वल तो भारत की फौज को दूर देखना चाहते हैं. नंबर दो, वे आजादी चाहते हैं. अब आजादी का मतलब उनका क्या है, इस पर हम पाते हैं कि कोई कंसेंसस नहीं है. लेकिन हमें यह कंसेंसस नहीं दिखता, इसका मतलब यह नहीं है कि वह है ही नहीं. बल्कि असल में हम यह नहीं जानते कि वह क्या है. क्योंकि आपको जहां पर किसी भी तरह की आजादी नहीं है, जहां पर कोई सार्वजनिक सभा नहीं कर सकते, जहां आप फिल्म नहीं बना सकते, जहां आप लिख नहीं सकते आजादी के साथ, वहां हम कैसे जान पायेंगे कि लोग वास्तव में क्या चाहते हैं. लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि जब कोई वारदात होती है, और आप यह इस फिल्म में भी देखेंगे कि कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है, तब जो माहौल होता है, उससे आपको कुछ आइडिया हो जायेगा. जिस तरह वहां हजारों की तादाद में लोग आते हैं, जिस तरह नारे लगाये जाते हैं, जिस तरह उस दिन सुरक्षा बल गायब हो जाते हैं, यह सब कुछ आपको बहुत कुछ कह देता है. यह एक अजीब परंपरा है कश्मीर में.


वहां चप्पे-चप्पे पर फौजी हैं. वहां आर्मी को सलाम किये बिना आप आगे नहीं बढ सकते. लेकिन जिस दिन कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है और उसका जनाजा उठता है, तो तीन-चार किमी तक कोई फौजी नहीं दिखेगा आपको. क्योंकि उन्हें मालूम होता कि उस दिन उन्होंने

जश्न-ए-आज़ादी

कश्मीर में एक तरफ तो आपको कहा जाता है कि आप फ्री हैं लेकिन दूसरी ओर आप कहीं नहीं जा सकते हैं.

कुछ किया तो फिर उन्हें एक-दो आदमियों को नहीं, हजार-दो हजार लोगों को मारना पडेगा. तो ऐसे अननेचुरल सिचुएशन में आपको पता लगता है कि कश्मीर में लोगों की भावनाएं क्या हैं. आप जब फिल्म देखेंगे तो यह समझ जायेंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं.
आप संसद पर हमले के सिलसिले में कश्मीर समस्या से रू-ब-रू हुए. इस संदर्भ में बाद में आये फैसलों को आप अब इस समस्या के परिप्रेक्ष्य में किस तरह देखते हैं?


जब संसद पर हमला हुआ तो कश्मीरियों की दिलचस्पी इसमें थी. पर जिस तरह अफजल और गिलानी को इसमें लपेटा गया, वह कश्मीरियों के लिए कोई नयी बात नहीं थी. कम से कम सात-आठ सौ लड़के पडे हुए हैं अलग-अलग जेलों में और सड़ रहे हैं. जब गिलानी के बचाव की बातें हो रही थीं तो कश्मीर में लोगों का कहना था कि हां ठीक है, मानते हैं कि गिलानी के साथ नाइंसाफी हुई है, मगर यहां कश्मीर में तो हजारों के साथ नाइंसाफी हो रही है. आपके यहां डीयू का प्रोफेसर है तो उत्तेजित हो रहे हैं, हमारे तो बहुत सारे लड़के फंसे हुए हैं.


अफजल का मामला मुझे लगता है कि वह थोड़ा और इमोशनल हो गया फांसी की सजा की वजह से. कश्मीर में कोई न्यूट्रल इश्यू नहीं है. हजार लड़के फंसे हुए हैं, बेगुनाह हैं या गुनाहगार यह किसी को नहीं मालूम और न होगा. फिर भी उन्हें सात से लेकर चौदह साल हो गये, जेल में. तो उनको तो लगता है कि सिस्टम यही तो करेगा और क्या करेगा ! इसे आप एक किस्म का सिनिसिज्म कह सकते हैं.

भारत में नक्सलवाद है, पूर्वोत्तर के विद्रोह हैं और कश्मीर है. इनसे जो भारत सरकार का व्यवहार है, क्या हम इससे सरकार के चरित्र को समझ सकते हैं ?


ये सब अलग-अलग विद्रोह हैं मगर आप इनसे सरकारों के चरित्र समझ सकते हैं. आपका सवाल सही है. मणिपुर और कश्मीर में तो कमोबेश 60 सालों से यह हो रहा है. इधर आकर अब नक्सलवाद पर बडी बात हो रही है. हालांकि इन तीनो में फर्क है. कश्मीर में जो चल रहा है, उसे देश विरोधी साबित करना भारत सरकार के लिए आसान रहा कि भई पाकिस्तानी इसमें सपोर्ट करते हैं. वही इसे चलाते हैं.

मणिपुर में अलग तरह की जटिलता आ जाती है क्योंकि वे न तो मुसलमान हैं न पाकिस्तान का फैक्टर काम करता है वहां. इसके अलावा मणिपुर दूर है, वहां जो भी हो रहा है, चुपचाप से ही हो रहा है. इधर चार-पांच सालों से बातें आने लगी हैं.

मुख्य चुनौती तो यह नक्सलवाद और माओवाद ही है, क्योंकि ये लोग तो देश के हार्ट लैंड में हैं. मणिपुर और कश्मीर तो अलग होने की बात करते हैं, मगर माओवादी तो वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. आप इन्हें देशद्रोही कैसे दिखायेंगे, ये एक बड़ा नया चैलेंज है स्टेट के सामने. वह मणिपुर और कश्मीर के बारे में दिखा सकता है कि वे देश को तोडना चाहते हैं. इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक आम सहमति बनती है कि ये तो विभाजन चाहते हैं. मगर माओवाद तो बडी दिलचस्प चुनौती है कि इसे देश विरोधी दिखायेंगे कैसे ? इधर अब आप देखेंगे कि अखबारों में माओवादी आंदोलन के बारे में ठीक उसी तरह लिखा जाने लगा है, जिस तरह कश्मीर के बारे में लिखा जाता है. भारत जो आज कश्मीर में करता रहा है, उन सबका इस्तेमाल अब माओवादियों के खिलाफ कर रहा है.


उड़ीसा और नंदीग्राम में जो हो रहा है, वहां सबको माओवादी बता दिया जा रहा है. सरकार के पास समस्या तो है. अब कलिंगनगर के अहिंसक आंदोलन को देखें. वहां के बारे में क्या कहेंगे? यह दिलचस्प है कि वे वहां कहते हैं कि कलिंगनगर के लोग विकास के रास्ते में आ रहे थे. अभी तक जो कोई भी आवाज़ उठा रहा था, उसके बारे में कहा जाता था कि वह देश के खिलाफ़ आवाज उठा रहा है. अब यह कहा जा रहा है कि आप विकास के रास्ते में आ रहे हैं. अगर आप विकास के खिलाफ़ हैं तो आप देश के भी खिलाफ़ हैं. लेकिन क्या देश की आबादी इतनी आसानी से इसे मान लेगी? मीडिया तो मान चुका है, क्योंकि वह तो इसी का हिस्सा है. लेकिन पब्लिक क्या इतनी आसानी से मान लेगी?

आपकी फिल्म के बारे में कहा गया है कि इसमें कश्मीरी पंडितों के बारे में बहुत अधिक नहीं दिखाया गया है. क्या आप उनकी समस्या को कम करके देखते हैं, खास कर पलायन?


ऐसा नहीं था कि उनका पलायन पहले नहीं हुआ था. हम जिस पलायन की बात कर रहे हैं वह हुआ 1991-92 में. लेकिन उस मुद्दे का इस्तेमाल 1993-94 में होना शुरू हुआ. तो मुश्किल हो गया लोगों के लिए कहना कि वहां आजादी की तहरीक जायज है, क्योंकि सरकार ने इसे सांप्रदायिक साबित कर दिया. कहा जाने लगा कि इन्होंने पंडितों को निकाल दिया वहां से.

आज हालत यह हो गयी है कि आप कश्मीर पर बात करें तो पहला सवाल आता है कि कश्मीरी पंडितों पर क्या कहेंगे? फिल्म बनी तब से यही सवाल उठता रहा है कि आपने कश्मीरी पंडितों को क्यों नहीं और समय दिया. मेरा कहना है कि कश्मीर के मुद्दे को हिंदुस्तान में समझने के लिए कश्मीरी पंडितों को इस तरह इस्तेमाल किया गया है जैसे वे ही कवच हों और सबसे बडा सवाल हों.


आपने कश्मीर का नाम लिया ही कि आ गया सवाल कि- बोलिए पंडितों के साथ क्या हुआ?

मेरा कहना है कि पहले आप सबसे बड़े और पहले सवाल को देखें कि कश्मीर में क्या हुआ. इसके बाद ही तो कश्मीरी पंडित निकले न. कश्मीरी पंडितों का मामला कश्मीर समस्या के साथ जुड़ा हुआ है. आप पहले उसका हल करें. फिर इसके बाद ही बात होनी चाहिए. कश्मीरी पंडितों का इस्तेमाल किया गया. जो निकले-भागे बरबाद हुए, वे तो हुए ही, मगर जो जम्मू में कैंपों में रह रहे हैं, उनकी समस्या को कोई भी सरकार चुटकी में सुलझा सकती थी. लेकिन उन्हें बनाये रखना था सरकार को ताकि वे उनका इस्तेमाल कर सकें. जो पढे-लिखे पंडित थे, वे तो दिल्ली आ गये, पर जो छोटे और अनपढ किसान थे, वे बेचारे जम्मू और दूसरे कैंपों में रह रहे हैं. कश्मीरी पंडितों को अहम रोल दिया गया है, ताकि उनका इस्तेमाल हो सके और कश्मीर समस्या पर बात को अटकाया जा सके.

पंजाब में मैंने एक फ़िल्म बनायी थी दूरदर्शन के लिए, 1986 में. पंजाब में एक अच्छा खासा आंतरिक पलायन हुआ था पंजाबी हिंदुओं का, लेकिन पंजाब सरकार में उन्हें सीमा से बाहर नहीं जाने दिया. उन्हें पठानकोट, अमृतसर में शिविरों में रखा गया. मैंने उन्हें शूट किया है फ़िल्म में. वे वहां छह महीने साल भर रहे और वापस चले गये. कश्मीर सरकार ने ऐसी कोशिश कभी नहीं की. दूसरी तरफ़ कश्मीर में अभी भी 5-6 हज़ार कश्मीरी पंडित हैं. वे कश्मीर छोड़ कर कभी नहीं गये. वे भी जी रहे हैं. कैसे जी रहे हैं, यह कोई नहीं जानता. सरकार की ओर से तो उन्हें थप्पड़ ही मिलते हैं कि तुम यहां क्या कर रहे हो, निकलो यहां से.

कश्मीर पर लेफ़्ट के रवैये को आप कैसे देखते हैं?


लेफ़्ट, उदारवादी, प्रगतिशील-इन सबका कश्मीर के मामले में ज़्यादा से ज़्यादा रोल यही रहा है कि यह एक मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है और यह नहीं होना चहिए. वे राष्ट्रवाद के उस फ़्रेमवर्क से बाहर नहीं निकल पाये हैं. हर सरकार ने शुरू से ही कश्मीर के मुद्दे को इस तरह सफलता पूर्वक पेश किया है कि सबको यही लगता है यह भारत-पाकिस्तान के बीच ज़मीन का कोई झगड़ा है. भारत के राष्ट्रीय नेताओं में अकेले जयप्रकाश नारायण ही ऐसे नेता थे, जिन्होंने कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात की. थोडा़ बहुत संघर्ष वाहिनी ने भी यह बात रखी थी.


1994 तक आंध्रप्रदेश पीयूसीएल वालों ने कश्मीर के लिए टीम भेजी और सेल्फ डिटरमिनेशन की बात की. लेकिन बाद में वे भी चुप हो गये. यह देखने वाली बात है कि शुरू के उन भयंकर दिनों में तो वे बोल रहे थे, लेकिन बाद में वे चुप हो गये. इसकी कई वजहें हो सकती हैं. एक वज़ह तो यह भी हो सकती है-और इस पर शोध होना चाहिए- कि शुरू में स्ट्रगल जेकेएलएफ़ के हाथ में था और वह सेकुलर था तो लोगों को उसे स्वीकार करने में दिक्कत नहीं हुई. 1994 तक जेकेएलएफ़ को खदेड़ दिया गया और हिज्बुल जैसे संगठन आ गये. ये लोग इस्लामिक व पाक समर्थक छवि वाले थे. तब पीयूसीएल जैसे संगठनों के लिए अजीब स्थिति रही होगी.

कश्मीर में हालात किस तरफ़ जा रहे हैं?


हालात वहां बदल तो रहे हैं. पाकिस्तान सरकार का रवैया ही बहुत बदला है. लेकिन सिर्फ़ इन तक ही मुद्दे को सीमित कर के देखने से हम वही गलती दोहरायेंगे कि यह सिर्फ़ हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मसला है. इसमें कश्मीर के लोगों को शामिल नहीं किया गया है. यह तो वही पुराना और गलत नज़रिया है. आप बेशक समझौते कर लीजिए, अखबारों में छा जाइये, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी पब्लिसिटी हो जायेगी, लेकिन इससे मुद्दा तो सुलझने वाला नहीं है. हां, यह भले हो सकता है इससे कुछ चीज़ो पर असर पडे़.


एक अजीब सी स्थिति है वहां, कि वहां एक चुना हुआ लोकतांत्रिक ढांचा है, लेकिन जो बातचीत चलती है, वह हुर्रियत के लोगों के साथ होती है. हुर्रियत के लीडर कहते हैं कि हम तो सिर्फ़ सेंटीमेंट्स को रीप्रेजेंट करते हैं. जो आपके लोकतांत्रिक उपकरण हैं, उन से तो आप बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे तो आपके ही ढांचे का हिस्सा हैं.तो इससे अपने लोकतांत्रिक ढांचे के बारे में हिंदुस्तान का क्या नज़रिया है, यह पता चलता है. पीडीपी, नेशनल कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के बारे में हिंदुस्तान सोचता है कि वे तो अपने ही कर्मचारी हैं.

कश्मीर में फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी फिल्मों की क्या स्थिति है?


वहां फिल्में नहीं बनती. घटिया किस्म का पॉपुलर ड्रामा बनता है. दूरदर्शन के जरिये निर्बाध पैसा जाता है, कल्चर को बरबाद करने के लिए, घटिया कार्यक्रमों के लिए. सबसे अधिक जो भ्रम था वह यही था कि मान लिया कि यह बंदा (संजय काक) दिल्ली में रहता है, मगर यदि ये फिल्म बना सकता है तो हमलोग क्यों नहीं. उसकी वजह यह नहीं कि हमने कोई बहादुरी दिखा कर फिल्म बनायी है, ऐसा कुछ नहीं. बात यही है कि हमने ईमानदारी से फिल्म बनायी. कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं. वहां चहारदीवारी के भीतर बढिया बातें मिलती हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं. अगर मैं दिल्ली का हूं, संजय काक हूं, पकडा भी जाऊं तो भाग सकता हूं. मगर कोई स्थानीय है तो उसके लिए संभव नहीं.

भारत में क्या आपको लगता है कि इन सबके संदर्भ में कोई वैकल्पिक माध्यम और साधन खड़े करने चाहिए?


यह तो हो रहा है. 10 वर्षों में काफी बदलाव आया है. 10 साल पहले ऐसी फिल्म बनाने की मैं सोच भी नहीं सकता था. शूट पर जाना होता था तो छह लोग, ताम-झाम, बडा-सा कैमरा. शूट करके लाए तो एडिटिंग का भी प्रति घंटा किराया देना होता था. इसलिए अधिक से अधिक 20 से 40 मिनट की फिल्म बना सकते थे.

जब से नयी तकनीक आयी है तब से कैमरे से ही काम चल चल जाता है. एडिटिंग आप अपने कंप्यूटर पर कर सकते हैं. आसान हो जाने के कारण लोग हर जगह फिल्म बना रहे हैं. अच्छी हो या बुरी, पर वैकल्पिक फिल्में बन रही हैं.

अब वितरक की बात है. आनंद पटवर्धन के पास पहले दो प्रिंट होते थे, जिन्हें प्रोजेक्टर लेकर वे दिखाते थे. अब डीवीडी-वीसीडी से बिलकुल कायाकल्प हो गया है. प्रोजेक्टर सस्ते और हल्के हो गये हैं. कह सकते हैं कि तकनीक हमारे साथ है. और इसी की बदौलत हम नैरोकास्टिंग कर रहे हैं. एक चुनींदा ग्रुप को इकट्ठा किया और दिखाया. वे फिर बहुत लोगों को बतायेंगे, फिल्म पर चर्चा करेंगे. यह उत्साहजनक है. इस तरह हम भयंकर मास मीडिया को चुनौती दे रहे हैं. हम अपने हाशिये पर खड़े बहुत खुश हैं.

हालांकि वह मास मीडिया तो और भयंकर होता जायेगा, लेकिन अगर हम उसकी तरफ देख कर डरने लगे तो फिर कुछ नहीं कर पायेंगे. दूसरी बात कि मास मीडिया जितना बेवकूफी भरा होता जा रहा है, उतना ही लोग उससे कट रहे हैं, हमारी ओर आ रहे हैं. अगर उनको कुछ समझ नहीं आ रहा है तो कहते हैं कि चलो तुम बता दो. हम उसे चुनौती कितनी दे पाते हैं, यह अलग बात है. इतना बडा कैपिटल स्ट्रक्चर है. लोग फिल्में पहले खरीदते नहीं थे, अब जहां भी हम जाते हैं, वे हमसे सीडी की मांग करते हैं.

आप इसे इस तरह देख सकते हैं कि हम लोगों की समझ का निर्माण कर सकते हैं, मास मीडिया को चुनौती देते हुए. किसी घटना के बारे में हमारी समझ अखबारों से नहीं बनती, बल्कि यह इमेल या दूसरे ऐसे ही माध्यमों से बनती है. असली बात का पता इसी तरह लगता है. अंगरेजी में यह सब शुरू हो चुका है, हिंदी में भी हो रहा होगा. अखबार आप इसलिए पढते हैं ताकि सिस्टम क्या समझता है, यह जान पायें. अभी तो ब्लॉग भी एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है.
(www.raviwar.com से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.