20081229

IIT Kharagpur: Loosing its National & International Importance

Sacrifices given by our country martyrs to rejuvenate world's oldest culture got a golden symbol when on August 18, 1951, by Maulana Abul Kalam Azad to recognise the Indian technical brain, Indian Institute of Technology (IIT) having international importance had been founded near “Hijali Jail”. The idea behind foundation of IIT in Kharagpur was due to giving honour to our freedom fighters as well as its location near most developed industrial city of India i.e. Calcutta (now Kolkata) at that time.
But the flame of torch of honour of this institute is now dimming as compared to other IITs like IITB, IITD, IITK, IITM. If we see IIKGP, it has largest land (around 2,100 acres) among all IITs but most of the part is either undeveloped or left for dumping of waste products.

Take a glimpse on Kharagpur geometrical location. Seashore is hardly 100 km away from here, India’s most mineral rich states i.e. Jharkhand, Bihar & Orissa touching its state border even if West Bengal itself a mineral rich state. It has a good rain fall, cool atmosphere, very large railway network connecting to most Indian cities, situated near NH-6 and world famous seaport i.e. Kolkata hardly 116 KM away from it. But what is going wrong due to which students getting admission in JEE or GATE preferring IITB, IITD, IITM & IITK as compared to IITKGP. Facts are undeveloped city Kharagpur, West Bengal government policies, bad administration, and low fund by government of India whereas it has maximum departments. Then what is the solution? Answer is, if area near IIT Kharagpur (in radius of 5-10 KM) is provided for software or hardcore industries then people will attract due to its geometrical location & slowly high standard society will start to develop. See best example of NOIDA (New Okhala Industrial Development Authority). Earlier there was only few villages but industry got good offer by UP government and slowly society had started to develop. They got international facility by Delhi even if the former who had their land in that region got good money from industries. If we plan in a good manner then it will happen for Kharagpur also. IIT Kharagpur will get directly industry interaction as compared to now (survey: IITKGP has maximum industrial interaction as compared to other IITs). Then within 5 years not IITKGP, Kharagpur city also will have international importance & then perhaps we will able to give “Sachchi Shraddhanjali ” to our country martyrs.


(From my friend Prashant Purwar, M.Tech, SMST at IIT-KGP)

20081217

खेती को बचाने के तीन उपाय

ऐसा लगता है कि भारतीय कृषि में दुनिया की फिर से रुचि उत्पन्न हो गई है. शायद ही कोई सप्ताह बीतता हो जब कोई अंतरराष्ट्रीय संस्थान, विदेशी विश्वविद्यालय, धर्मार्थ संस्था या कृषि व्यवसाय में संलग्न विदेशी कंपनी कृषि संकट से निजात पाने के उपाय ढूंढने के लिए भारत में सम्मेलन न करती हो.

लगता है कि धनी और औद्योगिक देशों ने वंचित और उपेक्षा से घिरे कृषक समुदाय की सहायता के लिए हाथ बढ़ा दिया है. इन सभी सम्मेलनों के निष्कर्ष कुल मिलाकर एक से ही रहते हैं. इस बिंदु पर मतैक्य है कि भारतीय कृषि पैदावार में ठहराव आ गया है. इसलिए जैविक रूप से उन्नत फसलों को तेजी से बढ़ावा दिया जाना चाहिए. कृषि अनुसंधान में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. साथ ही खाद्य पदार्थो का विपणन कंपनियों को सौंपने से किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी. अगर इन व्याख्यानों को पूरा सुनने का धैर्य हो तो इस दयालुता के पीछे छिपे निहित स्वार्थ स्पष्ट हो जाते हैं.

कंपनी या संस्थान वास्तव में नए रासायनिक उत्पाद या उपकरण बेचने का प्रयास कर रहे हैं. आपदाएं और मानवीय त्रासदियां अक्सर नए उत्पाद बेचने का सही अवसर प्रदान करती हैं. भारत की महा कृषि त्रासदी भी ऐसे ही बाजार के अवसर पेश कर रही है.

हाल ही में दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में मुझे यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि वहां मौजूद अनेक विशिष्ट कृषि अर्थशास्त्रियों ने जैव उन्नत फसलों की जोरदार वकालत की. कुछ अन्य ने दलीलें पेश कीं कि नए यंत्र और उपकरणों का इस्तेमाल किया जाए, कृषि क्लीनिक खोले जाएं और अनुबंध खेती तथा खाद्य पदार्थो की फूड रिटेल चेन का मार्ग प्रशस्त किया जाए.

चार अंधों और एक हाथी की कथा की तरह मुझे महसूस हुआ ये विशेषज्ञ इस अभूतपूर्व कृषि संकट के पीछे के कारणों को पहचान पाने में भी असफल रहे हैं. उनके लिए तो इसका हल नई प्रौद्योगिकी लाने और किसानों को नए-नए उपकरण बेचना मात्र है. बदले में उन्हें रिटायरमेंट के बाद आयातित फर्म के लिए सलाहकार बनने का मौका मिल जाता है या फिर बाद में अगर संभव हो तो इन्हीं कंपनियों में स्थायी नौकरी मिल जाती है. सम्मेलन में मैंने कहा कि अगर हम ऐसी कृषि पद्धति पेश करें जो जैव उन्नत फसल, रासायनिक खाद से मुक्त हो और पैदावार भी कम न हो तो क्या आपको कोई आपत्ति है?

मैं जिस कृषि पद्धति का बात कर रहा हूं उसमें कोई खुदकुशी नहीं होगी, तेजी से बढ़ते नक्सलवाद के प्रभाव में तीव्र गिरावट आएगी और गांवों से शहरों की ओर पलायन का चक्र उलटा हो जाएगा. इसके लिए अरबों-खरबों रुपये के बचाव पैकेज की जरूरत भी नहीं होगी. न ही इसमें रासायनिक कारखाने लगाने के लिए भारी भरकम धनराशि निवेश करनी होगी. बस हमें नजरिया बदलने और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है और हम किसानों की आत्महत्याएं रोकने में कामयाब हो जाएंगे. यकीन रखें, यह पूरी तरह संभव है.

कृषि में सुधार के तीन सिद्धांत हैं -
पहला सिद्धांत है कृषि भूमि की सही देखभाल. हरित क्रांति की देन सघन खेती पद्धति ने प्राकृतिक संसाधन आधार नष्ट कर दिया है. पूरे देश में मिट्टी की ताकत निचोड़ ली गई है. कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल ने पर्यावरण और मानव खाद्य उत्पादन को विषैला कर दिया है. भूमिगत जल के भंडार भी खत्म होने लगे हैं. हमें इस पर ध्यान देना होगा कि केवल आंध्र प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देश के अनेक भागों में भी किसान बिना कीटनाशकों और खादों के फसल उगा रहे हैं. न उपज में कमी हो रही है और न ही फसल पर कीटों का हमला हो रहा है. पर्यावरण तो स्वच्छ हुआ ही है. खाद्य पदार्थ स्वस्थ व सुरक्षित हैं.

दूसरा सिद्धांत है सुनिश्चित कृषि आय. इस आम धारणा कि फसल की पैदावार बढ़ने से खेती की आमदनी बढ़ती है, के विपरीत किसानों की आय घट गई है. हरित क्रांति के चालीस साल बाद एक खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय महज 24 सौ रुपये है. यहां तक कि अमेरिका और यूरोप में भी सट्टा बाजार, वस्तु विनिमय, अनुबंध खेती और खाद्य पदार्थो की फुटकर चेन शुरू होने के बावजूद कृषकों की आय बढ़ने का नाम नहीं ले रही है. भारत में भी यही विपणन ढांचा खड़ा करने से खेती से आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी. इसके मूल आधार में खामियां हैं और यह किसानों के लिए लाभदायक नहीं है.
कोई आश्चर्य नहीं कि धनी और औद्योगिक देशों में किसान इसलिए अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं कि वहां भारी कृषि अनुदान के रूप में उन्हें प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता मिलती है. भारत के किसानों को भी प्रति एकड़ आधार पर सीधी आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए.

तीसरा सिद्धांत वैश्विक अर्थव्यवस्था से कृषि के एकीकरण से संबंधित है. 2008 के पूर्वार्ध में विश्व ने अभूतपूर्व खाद्य संकट झेला है. करीब 37 देशों में खाद्य पदार्थो को लेकर दंगे हुए. इन देशों में लगभग सभी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ कृषि के एकीकरण के चक्कर में कस्टम ड्यूटी हटा ली थी और आयात शुल्कों में भारी कमी कर दी थी. वर्र्षो तक सस्ते आयात ने खाद्य पदार्थ के क्षेत्र में उन्हें आत्मनिर्भर नहीं रहने दिया.

पिछले 30 सालों में तीसरी दुनिया के 149 में से 105 देश खाद्य पदार्थो का आयात करने लगे हैं. दोहा वार्ता के सफलतापूर्वक संपन्न होने के बाद बचे हुए देश भी खाद्य पदार्थो का आयात करने लगेंगे. सालों में बनी खाद्य आत्मनिर्भरता को भारत ऐसे बर्बाद करने की मुसीबत नहीं झेल सकता. भारत को आयात शुल्क बढ़ाने होंगे और तमाम हमलों से अपनी कृषि को बचाना होगा.

दुर्भाग्य से भारत अमेरिकी सलाह पर चल रहा है. भारत दोहा विकास राउंड पर हस्ताक्षर करने को उतावला है. इससे राजनीतिक संदेश जाएगा कि भारत किसी भी घरेलू कीमत पर अमेरिकी किसानों के हितों को सुरक्षित रखेगा. यह बात हैरान करती है कि आखिर कब भारत 60 करोड़ कृषक समुदाय की जीविका और भविष्य की रक्षा करने की सीख लेगा?

(www.ravivar.com पर देविंदर शर्मा के विचार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

यह नक्सलवाद नहीं, आतंकवाद है

1929 में दार्जीलिंग के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे हैं. पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे. कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की.

बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली. लेकिन कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई. जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली. 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया. 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की.

अपने जीवन के लगभग 14 साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे. इन दिनों वे भाकपा माले के महासचिव के बतौर सक्रिय हैं और नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रहते हैं.

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" मुझे अभी तक खेद है इस बात का कि रामनारायण उपाध्याय यूपी का सेक्रेटरी था. उन्होंने सही रूप से बोला था कि माने शुरु से अंत तक आपका लाईन गलत है, मार्क्सवाद विरोधी है. I supported you लेकिन बोलने का हिम्मत नहीं आया." - कानू सान्याल.

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नक्सल आंदोलन के जनक कहे जाने वाले कानू सान्याल इन दिनों बीमार रहते हैं. कई परेशानियां हैं. कान से सुनाई कम पड़ता है और आंखों की रोशनी भी कम हो रही है. सबसे बड़ी बीमारी तो बुढ़ापा है. लेकिन नहीं. 24 मई 1967 को जिस आंदोलन की आग उन्होंने जलाई थी, वो आग आज भी उनके भीतर धधकती रहती है. यही कारण है कि इस उम्र में भी वे गांव-गांव जाते हैं, बैठक करते हैं, सभाएं लेते हैं. दार्जीलिंग के नक्सलबाड़ी से लगे हुए एक छोटे से गांव हाथीघिसा में अपने एक कमरे वाले मिट्टी के घर में रहने वाले कानू सान्याल की नज़र बस्तर से लेकर काठमांडू तक बनी रहती है. हर खबर से बाखबर !

उनकी राय है कि भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें जनता को गोलबंद करने की जरुरत है. अव्वल तो वे इसे सशस्त्र आंदोलन ही नहीं मानते. छत्तीसगढ़, झारखंड या आंध्र प्रदेश में सशस्त्र आंदोलन के नाम पर जो कुछ चल रहा है, वे इसे “आतंकवाद” की संज्ञा देते हैं. वे नक्सलबाड़ी आंदोलन को भी माओवाद से जोड़े जाने के खिलाफ हैं. वे साफ कहते हैं- There is no existence of Maoism. पिछले दिनों आलोक प्रकाश पुतुल ने उनसे लंबी बातचीत की. यहां हम बिना किसी संपादन के अविकल रुप से वह बातचीत प्रस्तुत कर रहे हैं.

नक्सल आंदोलन शुरु हुए 40 साल हो गए. आप लोगों ने नक्सल आंदोलन की शुरुआत की थी, उसके बाद माओइस्ट मूवमेंट पूरे देश भर में फैला. इसकी उपलब्धि क्या है?

पहले तो बात ये है कि माओवादी बोल के हम लोग नहीं सोचते हैं. हम लोग बोलते हैं Marxism, Leninism, thoughts of Mao मार्क्सवादी, लेनिनवादी विचार और माओ का चिंतन करना, विचार करना. खुद माओ ज़ेडांग अपने आप को माओवादी नहीं मानते थे. वो खुद ही Marxism, Leninism को मानते थे. इसलिए नक्सलबाड़ी में जो संग्राम शुरु हुआ था वो संग्राम Marxism, Leninism के आधार पर था. इसलिए इसका माओवाद से कोई लेना देना नहीं है.
मैं ये कह सकता हूं कि There is no existence of Maoism. Because Mao did not agree with that. माओ खुद कहते थे कि मुझे अगर सिर्फ टीचर कहा जाए then I would be glad. तो जो उनको माओवादी विचार कहते हैं मैं कहता हूं कि it’s a contribution of Marxism and Leninism. ये मेरा कहना है. तो ये पहली बात का जवाब मिला.

1967 में एक उपलब्धि तो है कि 1967 में नक्सलबाड़ी में जो संघर्ष शुरु हुआ था. ये संघर्ष लंबे दिन तक प्रक्रिया के अंदर में था. उसका पहले भी भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सीपीआई के नेतृत्व में, जब मैं सीपीआई में था 1950 में; तो उस समय तेलंगाना का संघर्ष शुरु हुआ था. तेलंगाना का संघर्ष लंबे दिन तक चला और 1950-51 में जा के ये struggle के प्रति सीपीआई नेताओं ने betray किया, economic betrayal किया. Using the name of comrade Stalin. क्योंकि यहां से कुछ नेता लोग गए थे स्टालिन से मुलाकात करने के लिए. जो सलाह उन्होंने दी थी, वो सलाह हमारे कामरेडों के सामने सही रूप से पेश नहीं किया गया. उन लोगों ने सिर्फ inference draw किया कि स्टालिन बोला है कि ये struggle withdraw करना ही ठीक है. But subsequent days में जब वो सब कागजात हम लोगों को मिलने लगा तब we came to understand that our understanding that the CPI leadership betrayed the struggle ये सही साबित हुआ.

स्टालिन कहीं भी withdraw का बात नहीं बोला था. बोला था, you act according to the situation. हम जिस स्थिति में हैं उस स्थिति को आप और कितना दूर तक आगे बढ़ा सकते हैं. ये आपको तय करना है, काहे कि मैं इतना दूरी से नहीं बता सकता हूं.
Naturally 1967 में जो struggle शुरु हुआ था ये struggle भी वही था, 1950s के तेलंगाना के failure का जो शिक्षा उसके पहले भी, उसके बाद तेवागा संग्राम के बाद. उसके समय भी बिहार में जो किसान आंदोलन हुई थी, उन सभी से शिक्षा लेकर हम लोगों ने इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि peasant movement को अगर चलाना है तो उसके प्रति सरकार क्या रुख अपनाएंगे, उसी के उपर निर्भर होता है. किसान या कम्युनिस्ट पार्टी को कौन सा रास्ता लेना है.


एक बात तो तय है कि जनता ही केवल देश का शक्ति है. वो जनता अगर आपको साथ ना दे तो आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं. और विशेषकर के मजदूर और उनका सबसे दृढ़ सहयोगी जो है किसान, उनकी संख्या भी सबसे ज्यादा है. वो अगर उनका साथ ना दे तो ये संग्राम टिक नहीं पाएगा. इसी के आधार पर नक्सलबाड़ी में हम लोग लंबे दिन तक संघर्ष चलाए. उसको विस्तार से मुझे कहना नहीं है.

1967 में चुनाव हुए. तब तक कांग्रेस ने तीस साल पूरे भारत में अपना राज चला लिया. 47 से 30 बरस पकड़ लीजिए कि congress government in all the states ये लोग थे. तो इस समय इस विचारों में हम लोग पहुंचा कि हमें इसको लेकर किसानों को गोलबंद करके, संगठित करके संघर्ष में उतरना है.

तो उससे पहले भी हम लोगों ने देखा कि... जैसे 1950 में तेलंगाना के प्रति विश्वासघात किया था कम्यूनिस्ट पार्टी ने. फिर हमने देखा कि जब बंगाल में हमने किसान आंदोलन शुरु किया तो उस समय 1953 में पश्चिम बंगाल की विधानसभा में Land Acquisition Act जमींदारी उन्मूलन कानून आया था. उस समय हमारे एक नेता उनका नाम था बंकिम मुखर्जी उन्होंने बांबे में काम किया, यूपी में काम किया, उन्होंने बिहार में काम किया.

बंगाल में जब एक सम्मेलन में ये सवाल उठा कि इस कानून के प्रति हमारा रुख क्या होगा तो उन्होंने ये सवाल उठाया था कि कानून में जो lapses हैं. जो hole रख दिया है क्या हम लोग उसकी पूर्ति करने के लिए आंदोलन करेंगे ? ना कि हम लोग ये जो बिल पेश किया गया है, Land Acquisition बिल है उसके खिलाफ में एक विकल्प बिल हम लोग पेश करेंगे और उसके आधार पर हम लोग संग्राम शुरु करेंगे ?

It was in 1953. उस समय मेरा कमिटी जीवन चार साल था, उससे ज्यादा नहीं हुआ था. मेरा अनुभव बहुत कम था. लेकिन whatever I read from the books i.e. Lenin, stalin and these people. By then माओ का लेख भी दो चार पढ़ चुके थे. तो मुझे लगा कि बंकिम मुखर्जी ने सही रूप से बोला कि we should have a हमें एक विकल्प कानून होना चाहिए. पार्लियामेंट में ये बिल पेश करना चाहिए, जिसके आधार पर इस देश में संग्राम होना चाहिए.

उसको लेकर उस किसान सम्मेलन के अंदर कुछ विचार विमर्श तो हुआ नहीं, उनको नजरअंदाज कर दिया गया. हालांकि ये कहा जा सकता है कि बहुत पुराने नेता हैं जिनके पास मजदूर आंदोलन का अनुभव, किसान आंदोलन का अनुभव बहुत rich था लेकिन उनको नजरअंदाज कर दिया गया. उन्होंने बंगाल कांग्रेस में जब वो वाइस प्रेसिडेंट था बंगाल प्रांत में और गुप्ती रूप से कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य थे.

जब आकर मैं सोचता हूं तो मैं सोचता हूं कि उस समय ये सीपीआई पार्टी का चाहे कोई भी पार्टी हो, कांग्रेस पार्टी का या वो कोई भी पार्टी हो विशेषकर के सीपीआई जो अपने आप को मजदूर किसान के पक्ष में कहते है they had no political will. कोई राजनैतिक इच्छा ही नहीं था कि हमारे देश की जमीनों, भूमि व्यवस्था को एक आमूल परिवर्तन हम लाएंगे. ये इच्छा उनको नहीं था. ऐसे ही यहां छोटा मोटा बहुत सा आंदोलन हुआ और व्यापक रूप से आया, उभर कर आया था. किंतु उनके प्रति भी उन लोगों ने गद्दारी किया था.

Naturally ये अनुभव, rich अनुभव के अंदर में हम लोग किसानों को बताया कि हम लोग उनको पूछा था कि ये आप लोग चुनाव लड़ रहे हैं. चुनाव में अगर आप जीत जाएंगे तो क्या करेंगे. तो बोला कि प्रबोध दासगुप्ता, हरिकृष्ण कुणाल, ज्योति बासु mainly Prabodh Dasgupta was the secretary. उनसे और हरिकृष्ण कुणाल से किसान आंदोलन के नेता और मंत्री भी थे.

उन्होंने बताया कि हम लोग करेंगे, बहुत कुछ करेंगे. तो हम लोग देखा बहुत कुछ करेंगे ये बोल कर गए तो क्या-क्या करेंगे हमको बता दीजिए ? हम लोग तो यहां आंदोलन शुरु करने वाले हैं. हम लोग का मांग है किसान. आप लोग कानून का बात करते हैं हम भी कानून का बात करते हैं. 25 acre ceiling है उसके उपरांत जितना जमीन होगा, किसान का है. ये किसानों के अंदर बंटवारा होना चाहिए, ये अगर आप माने लिखित रूप से दें तो आपका साथ देंगे. हम देंगे चुनाव में.


उन लोग बोलते हैं- चुनाव तो जीतने दो आगे तब देखा जाएगा. आप जानते हैं कि भारत में उस समय 9 प्रांत में कांग्रेस खत्म हो गया था, माने सत्ता से, राज्य से उखाड़कर फेंक दिया गया था. जैसे बिहार विभिन्न जगहों में ये घटना हुई थी. तो मेरा अनुभव, जो अनुभव की बात आपने बोला. मेरा अनुभव है कि ना तो कांग्रेस, ना तो कम्यूनिस्ट पार्टी जो अपने आप को मजदूर किसान का हिमायती करती है. उनका कोई political will, will मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं. कभी भी नहीं था आज भी नहीं है.

1967 में जब संग्राम शुरु हुआ तो हम लोग उसके पहले जेल में थे. वो इंडिया चाइना बार्डर dispute के बारे में पकड़ा था.

कौन कौन लोग थे?

बहुत लोग थे उतना नाम बोलना मुश्किल है. प्रबोध दासगुप्ता, ज्योति बसु इन लोग भी थे. I was with them in the jail.

तो उस समय उन लोग जब सत्ता में गए तो उन लोग बोलते थे कि हम लोग बोले कि आप लोग लिखित रूप से दीजिए कि आप लोग क्या-क्या करेंगे. तो हम लोग किसानों को बता दिया कि देखिए शांतिपूर्ण रूप से होगा नहीं हम लठ से, तीर धनुष से, बंदूक राइफल से लड़ नहीं सकते. तो naturally आपको तीर धनुष लेके शुरु करना होगा और बंदूक आपको अपने हाथ में लेना होगा. हम लोग ये बात सीखा करते थे कि हमारी बंदूक पुलिसों के हाथ में है, हमारी बंदूक मिलिटरी के हाथ में है. ये हमारे है, हमारे पैसा से है. पुलिस बजट में खर्चा होता है, मिलिटरी बजट में खर्चा होता है, ये हमारे पैसों का है, हम संगठित नहीं है. इसलिए बंदूक उनके हाथ में है. वो बंदूक हमारे हाथ में लेना है.

अगर आप जमीन का रक्षा काहे कि अगर यहां कि भूमि व्यवस्था को आप पलटना चाहते हैं तो ये व्यवस्था का बात आ जाता है और जब व्यवस्था का बात आ जाता है तो वो चुपचाप बैठने वाला नहीं है. वो चुपचाप नहीं बैठेगा, वो आपके उपर दबाव बनाएगा. ये तो एक लंबा कहानी है. मैं वो बात में नहीं जाना चाहूंगा.

एक बात मैं और जानना चाहूंगा कि चारु मजूमदार ने उसी समय एक लेख लिखा था...

मैं आता हूं. उस बात पर. I will come to that point.

1962 में जब चीन भारत की .... लड़ाई हुआ था तब हम लोग पकड़े गए थे. मैं सोचता हूं कि हम लोग तब भी सही थे और अब भी सही हैं. वो असल में हम जानते हैं कि चीन भी एक गरीब देश है, पिछड़ा देश हैं जो विदेशियों के द्वारा directly नहीं indirectly शोषित हुआ है. हमारे देश में गुलामी थी इस चलते ही. we want peace between these two countries. Table talk के द्वारा लेना और देना के आधार पर इस लड़ाई का फैसला करना चाहिए. तो उस समय जवाहर लाल नेहरु हमारा देश के प्रधानमंत्री थे they didn’t act. But उसी 1964 में हम लोग release हुए, release होने के बाद तुरंत बाद हमारी पार्टी का सम्मेलन हुआ. उस समय सीपीएम नहीं सीपीआई थी. उस समय पार्टी का विभाजन नहीं हुआ था. पार्टी का विभाजन 1964 में हुआ. We joined the CPM with the hope ऐसा विश्वास था कि ये नेता लोग कम से कम गांधी लीडरशिप के विरोध में खड़ा होंगे.

लेकिन हमारा ये विचार ये साफ हो गया कि ये नेताओं ने भी खुल के सारा बात सामने नहीं रखा है. बंगाल का कमेटी में हमारी central committee ने सारा बात खुलकर नहीं रखा है. इसी वजह से हम लोग इनको सोचते थे सुधारवादी नेता reformist या संशोधनवादी नेता.

तो हम लोग उसी समय से पार्टी तो छोड़ा नहीं क्योंकि newly बना था 1964 में सीपीएम, उसमें थे. तो सीपीएम में, अंदर में revisionist leadership के विरोध में लड़ने लगे. एक तो second time imprisonment हुआ जब इंडिया चाइना उसका डर ये कि ये सीपीएम बनने के साथ ही सरकार सोचा कि they are going to build a revolutionary party. सबसे ज्यादा गिरफ्तारी हुआ था बंगाल में. बंगाल में पहला दफा गिरफ्तार हुआ था आठ आदमी जिनके अंदर में मैं भी था. तो प्रमोद दा भी उनके बीच गिरफ्तार हो गए थे. He couldn’t attend the party congress in that year. Anyhow वो सम्मेलन के बाद हम लोगों के पास ये साफ हो गया कि ये पार्टी कुछ करने वाली नहीं है.

हम लोग जेल के अंदर में जितने साथी थे, At that time I was in Behrampur central jail जो कि बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में थे. तो पहले थे हम 1962 से 1964 के बीच all political leadership of the central committee and West Bengal state committee. बाद में district leadership को हम देखा बेहरामपुर सेंट्रल जेल में where intense debate within the jail. उसी समय सितंबर महीना में आनंदबाजार पत्रिका में एक खबर आया कि चारु मजूमदार एक पत्र, एक लेख लिखा है जिसमें armed struggle का आह्वान किया है.

तो उस समय उन्होंने चार ऐसा leaflet लिखे थे. ये चार leaflet का उस समय निष्कर्ष निकला कि समूचा पार्टी, सीपीएम लीडरशिप और बिगड़ गया हमारी दार्जिलिंग district के साथियों के ऊपर. जबकि चारु मजूमदार हमारी दार्जिलिंग जिले के नहीं थे. तो हम लोगों ने वो लेख पढ़ा जेल में तो we deferred with it.

तब दो लड़ाईयां लड़ीं- एक है revisionist leadership के खिलाफ और एक है उतावलापन के खिलाफ. फिर हम 66 में जेल से रिहा होकर आए और आने के बाद उनसे बातचीत हुई. हम लोग बोला- देखो we agree with you आपके साथ सहमति रखते हैं कि armed struggle करना है. लेकिन इसके लिए जनता तो आपके साथ में होना चाहिए.

आप mass organization को आप बताएं हैं कि ये revisionism है mass revisionism इसके साथ जाना चाहिए. अब वो लोग कहां से जान पाएगा primary school पढ़ने के बाद ही तो graduate होता है. हां primary organization को आप छोड़ दीजिएगा तो आप जनता से कट जाइएगा. और छोटे मोटे दस्ते कायम कीजिए आप, जमींदार को मारिए, capitalists को मारिए, पुलिस को मारिए. ये बात आपने लिखा है, लिखा तो नहीं है आपने, बोल रहे हैं. You are advocating that line. ये जो बोलने के बहुत दिन बाद में वो बात लिखा था.

ये बोलने के बाद में हम लोग बोले कि we don’t agree with you on this point. फिर भी revisionism एक main खतरा है उसके खिलाफ लड़ना है. Reformism main खतरा है पार्टी के अंदर ये शासक वर्ग को बचा के रखता है. आप जो बताते हैं, इससे हम लोगों को नुकसान पहुँचेगा जनता को अगर हम लोग छोड़ देंगे. तो उस समय we agreed to differ हमारे अंदर भी एक मतभेद है.

तो हम लोग बोला कि हम लोग एक साथ लड़ेंगे revisionism के खिलाफ में. और हम लोग दो जगह चुनाव कर लें. आप अपने line को काम में लाएंगे, प्रयोग में लाएंगे. हम भी अपने जिला में दार्जिलिंग जिला में अमल में लाएंगे. ये दो किस्म की संघर्ष में हमको करना पड़ा. Left line i.e. revisionism, reformism के खिलाफ और left adventurism, terrorism के खिलाफ. क्योंकि individual को मारने से व्यवस्था खत्म नहीं होता है. एक पुलिस को मारने से.... हमारे देश में बेरोजगार है. एक पुलिस को मारने से.... आज ही अखबार में पढ़ते थे एक graduate crematorium में, जिसे हिंदी में डोम कहते हैं. तो एक ग्रेजुएट लड़का आज ही अखबार में पढ़ा था कहते थे कि हम डोम का काम करेंगे, हमको नौकरी दे दीजिए. तो such is the condition of the country. इसलिए individual आदमी को मारने से षडयंत्रकारी कायदा से मारने से व्यवस्था खत्म नहीं होती.

हां लड़ाई के मैदान में बोलिए व्यवस्था को मारने के लिए राइफल हाथ में लो, बंदूक जुगाड़ करो, बंदूक लूटो, ये अगर बोलें तो ये समझ में आता है. लेकिन क्या वास्ते बंदूक लूटेंगे, आपका कार्यक्रम होना चाहिए, मजदूर के लिए, किसान के लिए वो ही तो इस देश की संख्या है. वो ही लोग अगर इस संग्राम में नहीं रहेगा तो कैसे कर के हमारा संग्राम आगे बढ़ेगा. As a result नक्सलबाड़ी का संर्घष इसी का result है. ये दो लाइन थी............ उसके बाद में पार्टी दुनिया में ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि communist party बना और बनने के दो साल के अंदर में तीन टुकड़ा में बंट गया. कम्यूनिस्ट सत्यनारायण सिन्हा समझा था. परिस्थिति पार्टी के अंदर ऐसा था कि कोई विरोध नहीं कर सकता था.

मुझे अभी तक खेद है इस बात का कि रामनारायण उपाध्याय यूपी का सेक्रेटरी था. उन्होंने सही रूप से बोला था कि माने शुरु से अंत तक आपका लाईन गलत है, मार्क्सवाद विरोधी है. I supported you लेकिन बोलने का हिम्मत नहीं आया. आने के बाद जब वापस आया अपने जिले में तो रास्ता में मार देंगे, पकड़वा देंगे, कोई ठीक नहीं है. आने के बाद हम लोग सोचने लगा and the line. और ये लाइन को जब अमल में लाने लगा तो बहुत खराब नतीजा निकला. कोई आदमी बोल देता हैं, कहीं गुस्सा में आ जाएंगे तो मार देंगे, ये करेंगे वो करने से दुश्मन खत्म हो जाएगा. India is a vast country यहां पे स्टेट पावर बहुत ही मजबूत है. इसके खिलाफ में तमाम जनता का जागरण ही इनको पराजित कर सकता है. Mass armed struggle इनको पराजित कर सकता है. ये स्थिति अगर हम कायम कर सके तो. यहीं मैं इसके बारे में खत्म करता हूं.

Third वो सवाल जो कोई कोई मुझे पूछता है पत्रकार लोग, नेपाल में जो हुआ है उसके बारे में. मैं कहता हूं कि नेपाल के साथ भारत का कोई comparison नहीं है. Western Nepal, नेपाल तो बैकवर्ड है, western Nepal और backward है. एक थाना लूटने में तो वो खबर सात दिन बाद भी नहीं पहुचे काठमांडू में. और सात दिन लग जाएगा खबर पहुंचने में और सात दिन लग जाएगा वो पुलिस को बचाने के लिए. They collected rifles in that way. उनका पोजिशन वो है जो हिंदुस्तान में 1967 में यहां जो पोजीशन था. आज अगर वो चाहे तो 10 मिनट के अंदर total में ये सबडिवीजन को घेरा डाल सकेगा. दार्जिलिंग जिला के अंदर. ऐ कि रोड कंडीशन, उस समय से जो शिक्षा इन लोग लिया. हां उससे they are more powerful. Strategically they’ll surely lose the game. लेकिन concretely जब वो विचार विमर्श करेंगे लड़ाई के लिए तो उनका ताकत को भी विचार करना चाहिए. हमारी ताकत को भी उसी हालत से बढ़ाना होगा.

इसलिए मैं कहूंगा कि नेपाल का माओवादी आंदोलन के साथ I don’t consider फिर मैं repeat करता हूं कि माओवाद बोलके कोई बात नहीं है. ये सब व्यक्तिगत ख्यालात है वो बहुत खराब है. अब ये प्रचंड हैं, उनके बारे में I don’t want to comment anything. जब वो ‘ प्रचंड पथ ’ बोलते हैं तो नेपाल एक छोटा देश है. उनका अनुभव वही पथ है सारा दुनिया के आदमी के लिए, ये नहीं हो सकता at least. मैं इस बात को मानने को तैयार नहीं हूं. Let him speak it. We’ll learn from him. अब होगा नहीं वो, तो चुनाव में हिस्सा लिया. कौन कारण से लिया, क्या हालत में लिया, वो अलग बात है. I don’t want to comment on it. क्योंकि अलग देश है. उनका advice देने का अधिकार मेरा नहीं है. वो जैसे समझा वो किया. Now they’ve won. अभी वो सोचते हैं कि प्रधानमंत्री बनेंगे, कि राष्ट्रपति बनेंगे. ये सब को ले के बैठे हैं. मैं कहूंगा कि it will come, कल ही अखबार में पढ़ते थे कि we’ll build up capitalism. उन लोगों ने बताया.

I don’t want to comment. खाली इतना कहूंगा कि उनका ये बात Marxism, Leninism के साथ में मिलता जुलता नहीं है. We’ll build up socialism but a backward country must build up its productive forces to that extent from where we will go to skip over to Socialism. ये अगर बोलते तो उसमें capitalist देशों से आज हम मिलजुल के सहायता लेकर चलेंगे. वो देगा, नहीं देगा वो अलग बात है. लेकिन मिलजुल कर चलेंगे. और उसके द्वारा पूंजी उपलब्ध होगा, उसके द्वारा कारखाना बनाएंगे, विकास करेंगे, ये बात बोलना अलग है. नैचुरली what he thought, he told them that. कल ही अखबार में हम पढ़ते थे. I am learning from it, हमारे यहां पर बुद्धदेव बाबू बोल रहे है.

बुद्धदेव बाबू ने कहा कि समाजवाद का रास्ता नहीं आ सकता.

देखिए वो correct कर दिया. ज्योति बाबू भी... he is more intelligent, Cunning revisionist, बहुत खतरापूर्ण आदमी है. लेकिन He knows marxism. इसलिए जब बुद्धदेव भट्टाचार्जी ने बोला we will build up capitalism, we support capitalism. तो ज्योति बासु बोल दिया कि नहीं ये कहना गलत है क्यों openly नहीं बोला पार्टी में बोला, आया था. ये त्रिपुरा, बंगाल, केरल इन तीन राज्य में हम लोग माने मंत्री हैं लेकिन सत्ता हमारे हाथ में नहीं है. सत्ता means entire administration, सत्ता means military, हमारे हाथ में नहीं है. इसलिए कैसे हम, यहां एक संविधान है, उस संविधान के तहत हमें काम करना होगा, how can we do it. Socialism के लिए अभी हमारा agenda में नहीं है. वो correct किया, किसको बुद्धदेव भट्टाचार्य को. He is a raw communist. इसलिए मैं कहूंगा कि ये चल रहा है बातचीत. And we are learning from it.

इसलिए माओवाद, आप जो शुरु किए थे, we don’t agree with it. हम ये बोलते हैं कि Indian revolution, Indian path में है. We’ll take lessons from Russia, we’ll take lessons from China, we’ll take lessons from the struggle of Vietnam, Laos, and Cambodia. और भी कई देशों से हम शिक्षा लेंगे. लेकिन Indian revolution will be completed in a Indian way.

वो क्या way होगा, ये हम साधारण रूप से बोल सकते हैं. मजदूर किसान को गोलबंद करो, संगठित करो, संघर्ष में, मैदान में ले चलो. And it depends on the state power. वो अगर हिंसात्मक व्यवहार करें तो हम भी हिंसात्मक रुख अपनाएंगे. That is not terrorism, पुलिस, मिलिट्री से लड़ना, that is not terrorism. Individually कोई आदमी को मार देना. Individually कोई आदमी को कुछ कर देना that is not correct. ये लाईन को थोड़ा अभी अलग रूप से इंडिया के माओवादी लोग कर रहे हैं.

थोड़ा फर्क, क्या फर्क. आज तो डकैती करने से पैसा मिलेगा तो आपको प्लेन मिल जाएगा, तोप मिल जाएगा, टैंक मिल जाएगा. अगर उसको आप छुपा सकते हैं तो काहे कि. Military is so corrupt, हमारे देश का मिलिट्री तो. कोई भी देश का, पूंजीवादी देश का, मिलिट्री बहुत corrupt होता है. हमारे देश की मिलिट्री भी बहुत corrupt है. और वो जान के लिए ये काम नहीं कर रहे हैं. वो अपने परिवार के लिए ये काम कर रहे हैं. इसलिए जब उनके उपर हमला होता है, वो भाग जाते हैं. इसलिए हम लोग बोलते हैं कि strategically they are weak. रणनीतिक रूप से ये जो दुश्मन हैं, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी जो हैं वो दुबला है. लेकिन concretely उनको लेना होगा. Strategically we will win. क्योंकि people, यदि people को हमारे साथ रखता है तो.

तो इसलिए strategically हम लोग correct है, उन लोग weaker है. और रणनीतिक रूप से they are more powerful, we are weaker. तो हमें strategically उनको despise करना चाहिए. छोटा करना चाहिए. जैसे कोई आदमी आपको मारने आया तो अगर पहले से हम डर जाएंगे तो हमको डर के भागना पड़ेगा. अगर हम नहीं डरकर, उसका डट के सामना करें, अगर रोकें तो वो भागेगा. हम जो जितना दुबला पतला हो.

तो मेरी उपलब्धि ये है कि. आप जो सवाल कर रहे थे. मैं पहले तो नक्सलबाड़ी का रास्ता, तेलंगाना का रास्ता एकमात्र रास्ता है. लेकिन आपको जनता को गोलबंद करने के लिए आपको देश का कानून का इस्तेमाल करना होगा. You have to participate in the election, to educate the people. क्या ये एक कानून से होगा नहीं. इतने तो बड़ी बड़ी बातें हैं. कानून की क्या कमी है हमारे देश में. कुछ कमी नहीं है लेकिन कानून होने से क्या होगा उसको लागू करेगा कौन ? administration, bureaucrats वो नहीं कर रहे हैं, करेगा भी नहीं. और कानून का भी इस्तेमाल नहीं होगा. Naturally people का भी education इसके द्वारा होगा जो लोग आएंगे हमारे साथ इसलिए जो बात मेरा उपलब्धि है कि अभी Marxism, Leninism का और द्ढ़तापूर्ण रूप से पकड़ में लाना है. जैसे कि सैद्धांतिक बातों के उपर चर्चा किया जाए.

For the last several decades भारत के कम्यूनिस्ट लोग भी कम्यूनिस्ट manifesto को सच्ची रूप से पढ़ा नहीं है. 1848 में मार्क्स ने लिखा है productive forces को हर बार पूंजीपति लोग विकास करके वो अपने को जिंदा रखना चाहता है. तो आज देखिए, आज साइंस कहां गया है. तो ये विकास वो for his development. हमारे देश की जनता के लिए होता तो आदमी कम मरता. बीमारी के लिए इतना दवा निकला. पहले तो चेचक बिमारी में गांव के गांव उजड़ जाते थे. कॉलेरा से उजड़ जाता था बिहार में, बंगाल में, हमारे देश में सब जगह पर. पर आज देश में वो हालत नहीं है. सांइस और टेक्नोलॉजी ने कितनी तरक्की की है.

आपने दादा एक बात कही अभी. आपने एक शब्द इस्तेमाल किया कि अगर जनता आपके साथ हो तो.

अगर हम उसको संगठित, गोलबंद, शिक्षित करें तो हमारा साथ देगा.

ये जो आंध्र में, छत्तीसगढ़ में, झारखंड में ये जो हथियारबंद आंदोलन चल रहे हैं. आपके शब्दों में मार्क्सवादी, लेनिनवादी आंदोलन. इसको आप ऐसा कहते हैं क्या ?

नहीं हम कहते हैं कि ये terrorist हैं. They mainly base themselves on terror campaign पैसा से बंदूक से. ये बहुत कम जगह में दो incident हुआ है. बहुत कम जगह में. बहुत जगह के आदमी को जमा करके एक थाना में हमला करके भाग गए. खाली that is not the only source. ये लोग आदमी को धमकी देकर पैसा देकर, पैसे वाले को अदा करते हैं कि कुछ कर रहे हैं. ऐसे ही, yes in the form of armed struggle. I never condemn it. पर ऐसे, you cannot do it. In the last analysis, you will be defeated. काहे कि Terror campaign से होगा नहीं unless people are with you.

आपको लगता है कि जो आंदोलन चल रहा है सशस्त्र आंदोलन, क्या उनको भी चुनाव के रास्ते पर आ जाना चाहिए ?

नहीं. मैं ये नहीं कहता. मैं कहता हूं कि चुनाव का रास्ता को आपको लेना मजबूर करेगा क्योंकि अब जेल के अंदर चारु मजूमदार का स्लोगन है कि जमानत मत दो, दीवार टपक कर भागो. बंगाल में we have tested it. देखा कि वो तो लड्डू भी नहीं खाएगा ना. वो हमारे साथियों को मारेगा माने we are the adventurists. हमें थोड़ा सा.... adventurism से नहीं होगा.

आप पीछे लौट कर जब देखते हैं तो आपको लगता है कि नक्सलबाड़ी का जो आंदोलन हुआ था उसमें भी कोई adventurism था ?

नहीं. हम लोग एकदम बिल्कुल जनता के साथ थे. वहां adventurism नहीं था. उस समय पार्टी का तैयारी नहीं था. We had 29 guns. लेकिन एक भी cartridge नहीं था. चारु बाबू को दफे दफे बोलने के बावजूद वो बंदूक के लिए मसाला जो cartridge हमें मिला नहीं था. तो आप ये समझ सकते हैं जो अगर वो 29 बंदूको का cartridge हमारे पास होता तो उस समय ये पूरी नक्सलबाड़ी का संघर्ष और ज्यादा तीव्र हो जाता. We could have developed that strength. Because of that period पार्टी तैयार नहीं था हम लोग एक छोटे दस्ता के रूप में, दार्जिलिंग जिले के अंदर एक सब डिवीजन में, तहसील में जो शुरु किया था ये छोटे जगह से होगा नहीं. Maneuvering capacity होना चाहिए. माओ का लेख है, माओ के लेख को पढ़िए.

(www.ravivar.com से साभार)

20081216

तिब्बत मसले पर सरदार पटेल का ऐतिहासिक पत्र


नई दिल्ली
७ नवंबर, १९५०

मेरे प्रिय जवाहरलाल,
चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आंडबर में उलझाने का प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि वह हमारे राजदूत के मन में यह झूठ विश्वास कायम करने में सफल रहे कि चीन तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्र्वासघात जैसा ही है। दुखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्र्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाव के जाल से बचाने में असमर्थ हैं। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे । यह असंभव ही है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकन दुरभिसंधि से चीन के समक्ष उत्पन्न तथाकथित खतरे के बारे में विश्र्वास करेगा।


पिछले कई महीनों से रूसी गुट से परे हम ही केवल अकेले थे जिन्होंने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाने की कोशिश की तथा फारमोसा के प्रश्न पर अमेरिका से कुछ न करने का आश्र्वासन भी लिया।


मुझे इसमें संदेह हैं कि चीन को अपनी सदिच्छाओं, मैत्रीपूर्ण उद्देश्यों और निष्कपट भावनाओं के बारे में बताने के लिए हम जितना कुछ कर चुके हैं, उसमें आगे भी कुछ किया जा सकता है। हमें भेजा गया उनका अंतिम टेलिग्राम घोर अशिष्टता का नमूना है। इसमें न केवल तिब्बत में चीनी सेनाओं के घुसने के प्रति हमारे विरोध को खारिज किया गया है बल्कि परोक्ष रूप से यह गंभीर संकेत भी किया गया है कि हम विदेशी प्रभाव में आकर यह रवैया अपना रहे हैं। उनके टेलिग्राम की भाषा साफ बताती है कि यह किसी दोस्त की नहीं बल्कि भावी शत्रु की भाषा हैं। इस सबके पटाक्षेप में हमें इस नई स्थिति को देखना और संभालना होगा जिसमें तिब्बत के गायब हो जाने के बाद जिसका हमें पता था चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। इतिहास में कभी भी हमें अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता नहीं हुई है। हिमालय श्रृंखला उत्तर से आने वाले किसी भी खतरे के प्रति एक अभेद्य अवरोध की भूमिका निभाती रही है। तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।


चीन की कुदृष्टि हमारी तरफ वाले हिमालयी इलाकों तक सीमित नहीं है, वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है क्योकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं। संचार की दृष्टि से उधर हमारे साधन बड़े ही कमजोर व अपर्याप्त है; सो यह क्षेत्र 'कमजोर' है। उधर कोई स्थायी मोर्चे भी नहीं हैं

इसलिए घुसपैठ के अनेकों रास्ते हैं। मेरे विचार से अब ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास आतुमसंतुष्ट रहने या आगे-पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है।


इन खतरों के अलावा हमे गंभीर आंतरिक संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। मैने (एच०वी०आर०) आयंगर को पहले ही कह दिया है कि वह इन मामलों की गुप्तचर रिपोर्टों की एक प्रति विदेश मंत्रालय भेज दें। निश्चित रूप से सभी समस्याओं को बता पाना मेरे लिए थकाऊ और लगभग असंभव होगा। लेकिन नीचे मैं कुछ समस्याओं का उल्लेख कर रहा हू जिनका मेरे विचार में तत्काल समाधान करना होगा और जिन्हें दृष्टिगत रखते हुए ही हमें अपनी प्रशासनिक या सैन्य नीतियां बनानी होंगी तथा उन्हें लागू करने का उपाय करना होगा :

१ सीमा व आंतरिक सुरक्षा दोनों मोर्चों पर भारत के समक्ष उत्पन्न चीनी खतरे का सैन्य व गुप्तचर मूल्यांकन।
२ हमारी सैन्य स्थिति का एक परीक्षण।
३ रक्षा क्षेत्र की दीर्घकालिक आवशयकताओं पर विचार.
४ हमारे सैन्य बलों के ताकत का एक मूल्यांकन.
५ संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश का प्रश्न.
६ उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी सीमा को मजबूत करने के लिए हमें कौन से राजनीतिक व प्रशसनिक कदम उठाने होंगे?
७ चीन की सीमा के करीब स्थित राज्यों जैसे यू०पी०, बिहार, बंगाल, व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
८ इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों पर संचार, सड़क, रेल, वायु और बेहतर सुविधाओं में सुधार.
९ ल्हासा में हमारे दूतावास और गयांगत्से व यातुंग में हमारी व्यापार चौकियों तथा उन सुरक्षा बलों का भविष्य जो हमने तिब्बत में व्यापार मार्गो की सुरक्षा के लिए तैनात कर रखी हैं.
१० मैकमोहन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति.


आपका

वल्लभभाई पटेल

(www.visfot.com से साभार)

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20081202

Basics: Swap Area (Linux)

One filesystem type that frequently leads to confusion among beginners is swap. It is the equivalent of windows virtual memory, an area on the hard drive that gets used by the processor when it has too many data to remember to fit them all into RAM.
While windows places its virtual memory on the same disk partition as the operating system, Ubuntu and Debian prefer to put it on a partition of its own. This used to be beneficial to overall performance but it is less of an issue nowadays. As the amount of RAM available to the average user has increased tremendously in the past years, which has minimized the risk of RAM overflow, the need for swap space has - particularly on home systems - decreased to the point where some users prefer to use little or even none at all.
One final remark should be made about the NTFS and FAT options that are also available during install. Didn't I say that Ubuntu and Debian do not use windows filesystems? Yes, I did. One should never use these to install the system on. However, Ubuntu and Debian can both read from and write to a Windows system on the same computer (this is know as dual booting: having more than one operating system on the same computer). As Windows is not nearly as curteous, it does not do Ubuntu or Debian the same kind of favour.
Thus a user who wishes to store files in a location that is available to both Windows and Ubuntu/Debian may wish to create an extra partition that has a windows filesystem.

20081125

हेमंत करकरे और उनकी एटीएस

महाराष्ट्र के एंटी टेररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) और उसके प्रमुख हेमंत करकरे के बारे में बिना ठीक से जाने इस पूरे हिन्दू आतंकवादी थ्योरी को समझ पाना मुश्किल होगा. श्रीमान हेमंत करकरे कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान रिसर्च एण्ड एनेल्सिस विंग (रॉ) में तैनात थे. कंधार विमान अपहरण काण्ड के पूर्व अमेरीकी जांच एजंसी एफबीआई ने भारतीय नोडल एजंसी को कुछ संदिग्धों के बारे में टिप दी थी. उस समय रॉ और पुलिस के बीच समन्वय का जिम्मा श्रीमान करकरे के ही पास था. भारतीय एजंसियों ने एफबीआई की टिप के बाद भी उन टेलीफोन काल्स को ठीक से मानीटर नहीं किये.

नतीजा हुआ कि कंधार विमान अपहरण काण्ड हो गया. जब आईसी-१८४ अपहृत हो गया तो मानीटरिंग में एफबीआई ने पाया कि उन्होंने भारतीय एजंसियों को जिन संदिग्ध नंबरों को मानीटर करने के बारे में सुझाया था उसी से कंधार के अपहरणकर्ताओं की नियमित बातचीत हो रही है. एफबीआई ने जब यह जानकारी भारतीय एजंसियों को दी तो खलबली मच गयी. तत्कालीन पुलिस उपायुक्त प्रदीप सावंत के नेतृत्व में अपराध अन्वेषण ब्यूरो के अफसरों ने उस मोबाईल फोन का लोकेशन ट्रेस किया और छापा मारकर आतंकवादियों के सहयोगियों को मुंबई के जोगेश्वरी पश्चिम की एक मुस्लिम बस्ती से गिरफ्तार कर लिया.

विमान अपहरणकाण्ड के कुछ दिनों बाद रॉ हेमंत करकरे को जिम्मेदारी ठीक से न निभा पाने का दोषी मानते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की तैयारी शुरू कर दी. हालांकि करकरे किसी तरह कार्रवाई से बच गये लेकिन उन्हें हर प्रकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया. उन्हें यूरोपीय देश में साईड पोस्टिंग पर डाल दिया गया. जब वे महाराष्ट्र काडर में वापस लौटे तो लंबे समय तक उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त नहीं किया गया. वे मुंबई पुलिस आयुक्तालय में संयुक्त आयुक्त (अपराध) की पोस्टिंग पाने की लाबिंग कर रहे थे. लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें इस पद के योग्य नहीं माना. लेकिन किसी तरह वे संयुक्त आयुक्त (प्रशासन) तक पहुंचने में कामयाब रहे. इसके बाद एटीएस प्रमुख तक पहुंचने में उन्होंने महीनों लाबिंग की. कंधार विमान अपहरणकाण्ड में जिन पुलिस अधिकारियों पर शक किया गया उनमें हेमंत करकरे का नाम भी शामिल है. मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त रानी मेन्डोसा, करकरे और महाराष्ट्र के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सुभाष मल्होत्रा का नार्को हो जाए तो कंधार विमान अपहरण मामले में कई राज सामने आ सकते हैं.

ऐसे हेमंत करकरे महाराष्ट्र के एटीएस के प्रमुख हैं. १२ जुलाई २००६ को मुंबई में श्रृंखलाबद्ध विस्फोट हुए. उन विस्फोटों के सिलसिले में कई अभियुक्त गिरफ्तार किये गये. ये सारे अभियुक्त आईबी की शिनाख्त पर पकड़े गये आतंकी गुट के "स्लीपर सेल" के सदस्य थे. उन्हीं आतंकियों को मुंबई लोकल ट्रेन में हुए विस्फोटों का अभियुक्त बना दिया गया. उनके आंतकी होने और हथियार रखने के सबूत तो थे पर वे मुंबई के लोकल ट्रेनों में हुए विस्फोटों के जिम्मेदार थे, तमाम नार्को टेस्ट के बाद भी यह बात साबित नहीं हो रही थी. मामले की सुनवाई कर रही तत्कालीन जज मृदुला भाटकर की हैरानियों के किस्से आम हैं. पिछले दिनों जब संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध) राकेश मारिया के नेतृत्व में मुंबई पुलिस ने तमाम आतंकी वारदातों में शामिल गिरोह को पकड़ा और उनसे पूछताछ की तो पता चला कि उस बमकाण्ड को नये पकड़े गये गिरोह ने अंजाम दिया था. अब मुंबई पुलिस के सामने समस्या यह है कि एटीएस ने जिन लोगों पर महीनों से मकोका कोर्ट में पेश कर रखा है उनका क्या करे? हेमंत करकरे और उनकी एटीएस ने जिस तरह से बेवकूफियां की है, वे अगर किसी और देश में होते तो जेल की सलाखों के पीछे होते.

अब जरा उन तथ्यों की भी पड़ताल कर ली जाए जिसके आधार पर एटीएस साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित, स्वामी दयानंद आदि को मालेगांव बमकाण्ड का षण्यंत्रकारी करार दे रही है. मालेगांव विस्फोट किसने कराये इसपर अभी निर्णायक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि साध्वी प्रज्ञा या अन्य गिरफ्तारियों के पीछे एटीएस जिन सबूतों का तर्क दे रही है उसके बूते दुनिया के किसी भी अदालत में उन्हें अपराधी करार नहीं दिया जा सकता. साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित, रमेश उपाध्याय, दयानंद पाण्डेय, सुधाकर चतुर्वेदी आदि की टेलीफोन वार्ताएं, एसएमएस और लैपटाप आदि के रूपांतर जो मीडिया को उपलब्ध कराये जा रहे हैं उनमें षण्यंत्र का कोई कथ्य नहीं है. जो मोटरसाईकिल साध्वी चार साल पहले बेच चुकी है उसका विस्फोट में इस्तेमाल होना साध्वी के खिलाफ कोई आपराधिक सबूत नहीं बनता. एटीएस और उसके द्वारा प्रायोजित कुछ समाचार साध्वी के भाषणों के कुछ हिस्सों को प्रस्तुत कर साध्वी को आतंकवादी के तौर पर पेश कर रहे हैं. यदि उग्र भाषण आतंकवादी होने का आधार है तो उन हजारों मौलानाओं-मौलवियों की तकरीरों को क्या कहेंगे जिसमें 'तंजीम अल्लाहो अकबर' के नारे भरे पड़े हैं और हर तकरीर में काफिरों का कत्ल करके इस्लाम के स्थापना की कसम खाते हैं. ऐसे दर्जनों कैसेट हम उपलब्ध करा सकते हैं अगर एटीएस चाहे तो.

आरोप है कि साध्वी को बंदूक चलाना आता है. क्या बंदूक चलाना सीखना अपराध है? बंदूक चलाने और निशाना लगाने में तो अंजली भागवत का जवाब नहीं, तो क्या उन्हें भी किसी दिन आतंकवादी करार दे दिया जाएगा? इसी तरह एटीएस के जरिए एक और आरोप लगाया जा रहा है कि साध्वी को बम बनाने की तकनीकि पता है और उसने यह तकनीकि एक डायरी में लिख रखी है. जबकि दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि साध्वी टेकसैवी है और लैपटाप और गुप्त कैमरों का उपयोग करती है. जनाब करकरे महोदय अगर साध्वी टेकसैवी है तो इंटरनेट पर सैकड़ों साईट्स ऐसी हैं जो बम बनाने की विधि बताती हैं. क्या इसी आधार पर किसी इंटरनेट सर्विस प्रोवाईडर को अभियुक्त बनाया जा सकता है कि उसकी सेवाओं के कारण इंटरनेट पर वह तकनीकि लोगों के पास पहुंच रही है? खैर मान भी लें तो वह 'बम डायरी' कहां है? उसकी सूचना अदालत या पंचनामें में क्यों नहीं? आप सबको याद होगा कि इस तरह का एक मामला कुछ साल पहले दिल्ली पुलिस ने एक कश्मीरी पत्रकार पर दर्ज किया था. इस मामले में भी पुलिस ने पत्रकार के लैपटाप में आपत्तिजनक सूचनाओं के दर्ज होने की बात कही थी. अदालत में पुलिस की जमकर छीछालेदर हुई.

मिलिट्री इंटेलिजेंस में अपनी सेवाएं दे चुके कर्नल पुरोहित पर क्या आरोप हैं? उनका संपर्क रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय से होना ही अपराध माना गया है. ये रमेश उपाध्याय ही अभिनव भारत नामक संस्था से जुड़े थे और इन्हीं के संपर्क में साध्वी प्रज्ञा थी. एटीएस आरोप लगा रही है कि बमकाण्ड के बाद मेजर रमेश उपाध्याय फोन पर तल्ख बातें कर रहे थे. क्या एटीएस को पता नहीं है कि जो विस्फोट सिमी कार्यालय के बाहर हुआ था. ऐसे में कोई भी व्यक्ति जो हर विस्फोट में सिमी का नाम सुनता आ रहा हो, वह कैसी प्रतिक्रिया देगा? देश में जब कहीं बम फटता है तो ऐसे लाखों लोग होते हैं जिनका खून खौलने लगता है. वे इनके खिलाफ हर तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं. वीर रस के कवि कविताएं भी लिखते हैं तो क्या देश के सारे वीर रस कवियों को लाकर एटीएस की झोली में डाल दिया जाए?

नासिक के भोंसला मिलिट्री स्कूल को निशाना बनाया गया. इसका आधार क्या है? सिर्फ इतना कि अभिनव भारत नामक संगठन की एक बैठक स्कूल परिसर में हुई. इतना ही नहीं सात साल पहले २००१ में बजरंग दल की एक बैठक हुई थी, एटीएस ने इस सूचना का भी ऐसे इस्तेमाल किया मानों दोनों बैठकें एक दूसरे की पूरक हों. क्या इसी आधार पर एटीएस अंजुमन इस्लाम, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, नदवा, देवबंद आदि मुस्लिम संस्थाओं की जांच करेगा? नदवा, एएमयू और जामिया मिल्लिया से तो कई बार आतंकवादी भी गिरफ्तार हो चुके हैं. क्या एटीएस इनके प्रमुखों की भी जाकर जांच करेगा? जामिया के उपकुलपति मुशीरूल हसन ने बाटला हाउस प्रकरण में गिरफ्तार नवयुवकों को सरकारी खर्चे पर कानूनी मदद देने का ऐलान किया था. मुशीरूल हसन का समर्थन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह और रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने भी किया था. क्या एटीएस उन्हें भी संदेह के घेरे में लेगी?

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20081113

धर्मांतरण

किसी भी प्रकार के धर्मांतरण पर गाँधीजी की कठोर दृष्टि थी.
मैं पूँछता हूँ कि अगर
धर्म के बारे में लोग खुद फ़ैसला लेने के लिये स्वतंत्र हैं तो ये मिशनरी वहाँ क्या मूँगफ़ली बेच रहे हैं? कीड़े-मकोड़ों की भाँति अपनी संख्या बढ़ाने को आतुर ये लोग अपनी जमात से बुराइयां तो दूर नहीं कर पा रहे हैं जिनसे ये घिरते जा रहे हैं. आज भी सबसे ज्यादा मनोवैज्ञानिक मदद की जरूरत इन्हीं लोगों को है.

भारत में ये लोग अकाल या किसी संकट के समय में असहाय जनता से यीशु की शरण में आने को कहते हैं. जैसे पानी की कमी वाले इलाके में एक Handpump लगवा देंगे, पर जल वही प्राप्त कर सकेगा जो यीशु को मानेगा. भूखी-प्यासी जनता को धर्म से नहीं रोटी-कपड़ा से मतलब है. सरकार अगर ये चीजें मुहैया करा सके तो वही लोग ही इन कुकुरमुत्तों को भगा देंगे.

हम बहुत सी बातों पर गर्व कर सकते हैं. पर दुःख तो इस बात का है कि २१वीं सदी में हम चंद्रयान तो भेज दिये हैं पर एक-ठौ नल नहीं लगवा पाये ताकि पानी के लिये कोई अपना धर्म न बदले.

20081111

हिन्दी लिखें

आप हिन्दी में भी लिख सकते हैं.
यथा:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफल हेतु भूर्मा ते संगोत्स्व कर्मणि ।।
मित्रो! यहां पर भी हिन्दी में लिख सकते हैं:
  1. http://www.kaulonline.com/uninagari/