20100709

शब्दों की शोभायात्रा

समाचार विज्ञापन का सबसे परिष्कृत तरीका है. शायद हमें पत्रकारिता के प्रति कुछ और उदार होते हुए ये मान लेना चाहिए कि समाचार विज्ञापन का सबसे परिष्कृत तरीका हो सकता है, विशेषकर तब जब ये उद्धरण चिन्हों के अंदर समेटा हुआ हो. ये परिष्कृत चालाकी उस समय और भी उभर के सामने आ जाती है, जब इसे किसी बड़ी खबर के साथ संबद्ध कर दिया जाए.


इसका एक बेहतरीन नमूना उस समय देखने को मिला, जब केंद्र सरकार ने तेल की कीमतों से नियंत्रण हटाने का निश्चय किया. यह खबर शनिवार 26 जून को अखबारों में आई. संयोग से यह दिन कभी का भुला दी गई घटना आपातकाल की 35वीं सालगिरह थी. उन पुराने मूर्खतापूर्ण दिनों में सरकार को आम-सेंसरशिप की जरूरत महसूस हुई थी. हालांकि हाल के ज्यादा जटिल समय में एक सावधानी से चुनी गई चयनात्मक खबर अधिक फायदेमंद साबित होती है. इसी दिन के अखबार में मौसम विभाग के हवाले से यह खबर भी थी कि इस बार मानसून के बहुत अच्छे आसार हैं, और दिल्ली 1 जुलाई तक तरबतर हो जाएगी. और सितंबर के अंत तक बारिश सामान्य 98% से 4 प्रतिशत ज्यादा 102% तक पहुँच जाएगी.

1 जुलाई की दोपहर दिल्ली सहारा रेगिस्तान की तरह तप रही थी. फिर उसी मौसम विभाग के हवाले से एक और खबर आती है कि मानसून 18 जून को दक्षिणी गुजरात से शुरु हुई एक फ्लैट लाईन के पास, कमजोर होकर ठप-सा पड़ गया है. इसमें उत्तरी बिहार की ओर तक कोई उपरी दबाव जैसा कुछ नहीं हुआ. उत्तर भारत के कृषि गढ़, पश्चिम से उत्तर प्रदेश के मध्य से बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर गुजरात, हरियाणा और पंजाब अभी भी उसी तरह सूखे थे, जैसे रेगिस्तान में हमारे गले सूखे होते हैं, और अगर 1 जुलाई तक बारिश नहीं होती तो फसलों को नुकसान होना शुरु हो जाएगा.

जैसा मैं जानता हूं, आप सब एक हफ्ते के अंदर नोह आर्क की नाव में बैठे होंगे, पर मुद्दा ये नहीं है. मुद्दा यह है कि 25 जून को जब मौसम विभाग ने यह झूठ रोपित किया, तब उसे एक हफ्ते से पता था कि मानसून कमज़ोर हो गया है. लेकिन उसने एक फर्जी रुझान इसलिए गढ़ा ताकि मंत्री, प्रवक्ता और सरकार के अर्थशास्त्री और जो इस समूह से जुड़ने की राह में हैं, टीवी पर जा सकें और जनता को यह दिलासा दे सकें कि तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से मुद्रास्फीति पर जो असर पड़ने जा रहा है, वह अच्छे मानसून से कम हो जाएगा.

क्या इसका कोई फायदा होता है? आखिर दावे, तथ्यों को बदल नहीं सकते. अमूल अपनी बैलेंस शीट की अनदेखी करके किसी सरकार को मदद करने की गरज से दूध की कीमतें बढ़ाने से रुक नहीं जाएगा. हां, ऐसे दावों का एक प्रभाव यह होता है कि वह हमारी स्मृति को आंशिक रूप से सकारात्मक उम्मीद के तरफ मोड़ देता है.

एक दूसरा प्रहार भले दर्द दे सकता है, लेकिन हमें चौंकाता नहीं है. आप दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 72 जवानों के जनसंहार और उन्हीं माओवादियों द्वारा उसी जगह पर हाल ही में हुई 27 जवानों की हत्या पर आम जनता और मीडिया की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करें. पहले माओवादी हमले के बाद गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने एक नकली इस्तीफा दिया. दूसरी बार न तो इस्तीफा सौंपा गया ना ही उनसे मांगा गया. हालांकि, सख्त जवाबदेही की बात हो तो दूसरा हमला एक ज्यादा बड़ी चूक थी. हैरानी जताने का बहाना इस बार उपलब्ध नहीं था. लेकिन गृह मंत्री शब्दों की बाजीगरी करते हुए भाग निकले.

गृहमंत्री ने राज्य सरकारों को हिदायत दी कि आगे से सीआरपीएफ के जवानों को सिर्फ खास मुहिमों के लिए भेजना चाहिए, न कि ‘रोजमर्रा’ के कार्यो के लिए. रोड की सफाई जैसे काम तो राज्य की पुलिस भी कर सकती है लेकिन क्या माओवादियों के संभावित हथियारों- आईडी और बारूदी सुरंगों से भरी सड़क को साफ करने से भी विशिष्ट कोई और मुहिम हो सकती है? क्या चिदंबरम ये बताना चाह रहे थे कि राज्य पुलिस को वहां भेजना चाहिए जहां जान जाने का खतरा ज्यादा हो. क्यों ? क्या छत्तीसगढ़ के पुलिस वालों की जान सीआरपीएफ जवानों की जानों से ज्यादा सस्ती है ?

इस सब का असली उत्तर राजनीति है. अगर राज्य पुलिस के जवान मारे जाते हैं, तो उसकी जिम्मेदारी राज्य के मुख्यमंत्री पर आती है. अगर केंद्रीय बलों के जवान मारे जाते हैं, तो जिम्मेदारी गृहमंत्री पर आती है. पश्चिम बंगाल की यात्रा पर गए हुए गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर ताना कसा, यह सोच कर कि अपनी जिम्मेदारी उन पर डाल दी जाए. वे इस प्रकार के समीकरण पसंद करते हैं. जिम्मेवारियां राज्य पर डली रहें और अगर जब कभी सराहना के स्वर उठें तो उसकी आवाज़ उनकी दिल्ली स्थित कार्यालय में गूंजे. बहरहाल, ये लोकतंत्र में बिल्कुल सामान्य बात है.

हम लोकतंत्र के खरीदार शब्दों को उनका मोल पूछे बगैर खरीदते हैं. यह सत्ता में बैठे लोगों को प्रोत्साहित करता है कि वह ऐसे शब्दों का जाल बुनें, जिससे हमें मूर्ख बनाया जा सके. कभी उन्हें जायकेदार बनाने के लिए मिर्च-मसाला डाल दिया, कभी कुछ भड़काऊ बात जोड़कर उन्हें और चमकदार बना दिया और कभी सिर्फ अच्छी पैकेजिंग के बल पर अपने शब्द बेच दिए.

जब आप घर आकर उस पैकेजिंग पर से चमकीले कागज को हटाते हैं और उस बक्से को खोलते हैं तो आप पाते हैं कि उसमें बहुत सारे भूसे के बीच में एक झुर्रीदार-सूखा आम पड़ा है, न कि वो हापुस आम, जिनका वायदा आपको राजनीति के बाज़ार में किया गया था. अब चूंकि वहां कोई और नहीं है जिस पर इस सौदे के लिए आरोप लगाए जा सकें, तो आप उस आम का अचार डालते हैं और खुद को उस भ्रम से दिलासा देते हैं कि यही पोषण हैं.

आप हालात का खाका खींचें, नतीजों की नाप-जोख करें और फिर देखें कि शब्दों की इस शोभायात्रा में आपके हिस्से महज चहलकदमी आई है या कोई लंबा सफर. आखिरकार एक स्टेशन सामने आएगा ही, जिसका नाम पोलिंग बूथ होगा.

-----------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20100707

नाम में बहुत कुछ रखा है

कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है. मेरा कहना है बहुत कुछ. यह ठीक है कि गुलाब का कोई भी नाम रख दिया जाए, रहेगा तो वह गुलाब ही. किंतु कुछ अन्य खाद्यान्नों के संबंध में यह सच नहीं है.

मैं बहुत से ऐसे महत्वपूर्ण और पौष्टिक अनाजों के बारे में जानता हूं, जिनका इस्तेमाल इसलिए कम होता है क्योंकि उन्हें मोटे अनाज की श्रेणी में डाल दिया गया है. आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि ये निम्न गुणवत्ता के अनाज हैं. ये देखने में तो मोटे अनाज लगते हैं किंतु हैं बेहद पौष्टिक.

हमारे परंपरागत आहार में मोटे अनाजों का महत्वपूर्ण स्थान था किंतु नामावली के कारण ये धीरे-धीरे थाली से बाहर निकलते चले गए. हमारी जीवनपद्धति से जुड़ी बहुत-सी बीमारियां इन मोटे अनाजों की अवहेलना का दुष्परिणाम हैं. जैसे ही मोटा अनाज कहा जाता है आप सोचते हैं कि ये शायद पशुओं का भोजन है. बढि़या अनाज केवल गेहूं और चावल को माना जाता है. यही हमारे मानस में बैठ गया है.

यहां यह जरूरी हो जाता है कि हम पौष्टिक अनाज का वर्गीकरण किस प्रकार करते हैं. अगर हम इन्हें मोटे अनाज के स्थान पर पौष्टिक अनाज कहना शुरू कर दें, तो इन अनाजों के प्रति हमारी सोच और रुख नाटकीय रूप से बदल जाएंगे. छात्र जीवन के दौरान मैं अकसर हैरान रह जाता था कि काबुली चना को अंग्रेजी में चिक पी और अरहर को पिजियन पी क्यों कहा जाता है. ये दोनों ही भारतीय भोजन के महत्वपूर्ण अंग हैं और पौष्टिक तत्वों से भरपूर हैं. किंतु अंग्रेजी में इनके नाम इनके साथ न्याय नहीं करते.

वास्तव में, पीजियन पी और चिक पी नाम इसलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि इंग्लैंड और फ्रांस के लोगों ने इन्हें कबूतरों और मुर्र्गो के भोजन के लायक समझा. चूंकि फलियों वाले अनाज यूरोपीय भोजन के अनिवार्य अंग नहीं हैं, इसलिए उन्होंने इन अनाजों का वही नामकरण किया जिसके लिए ये उन्हें उपयुक्त समझते थे. इसलिए जैसे ही आप पिजियन पी और चिक पी सुनते हैं आप सोचते हैं कि ये अनाज चिड़ियाओं के लिए ही ठीक हैं.

अरहर में प्रोटीन, अमीनो एसिड्स और लाइसिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. यह भारतीय भोजन को न केवल पौष्टिक बनाती है बल्कि इसमें सही संतुलन भी कायम रखती है. यही नहीं, अरहर से मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ती है. साथ ही इसमें औषधीय गुण भी हैं.

काबुली चना भी बेहद पौष्टिक अनाज है. इसमें 23 प्रतिशत प्रोटीन होता है. साथ ही यह कार्बोहाइड्रेट्स और केल्शियम का भी समृद्ध स्त्रोत है. अंग्रेजों ने फलों के राजा आम का नाम बिगाड़ने की भी कोशिश की. एमएस रंधावा ने एक बार लिखा था कि ब्रिटेन के लोग भारतीयों को आम चूसते देखना पसंद नहीं करते थे, जिसमें हाथ और मुंह सन जाते थे. वे इसे बाथरूम का फल कहा करते थे. यानी ऐसा फल जिसे खाकर बाथरूम में हाथ-मुंह धोने की जरूरत पड़े. जरा कल्पना कीजिए कि आम का नामकरण बाथरूम फ्रूट हो जाता तो कैसा लगता.

मोटे अनाज वर्गीकरण से भी बेहद पौष्टिक अनाज की छवि खराब होती है. क्योंकि इन्हें मोटा अनाज कहा जाता है इसलिए हमें लगता है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज है. इसके विपरीत मोटे अनाज भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पौष्टिकता का स्त्रोत हैं. नाजुक पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले जवार, बाजरा, रागी और अन्य छोटे अनाज भारतीयों के भोजन की पौष्टिकता को बढ़ाते हैं. फिर भी, सरकार इनकी पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं करती.

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने मोटे अनाजों की पौष्टिकता को रेखांकित किया है. 100 ग्राम चावल की तुलना में कंगनी 81 प्रतिशत अधिक पौष्टिक है. व्रत के दौरान खीर के रूप में खाये जाने वाले सवां में 840 प्रतिशत अधिक फैट, 350 फाइबर और 1229 प्रतिशत आयरन होता है. कोदु अनाज में चावल की तुलना में 633 प्रतिशत अधिक खनिज तत्व होते हैं. रागी में 3340 प्रतिशत अधिक कैल्शियम और बाजरा में 85 फीसदी अधिक फॉस्फोरस होता है. इसके अलावा ये अनाज विटामिनों से भी भरपूर होते हैं. अत्यधिक पौष्टिक होने के अलावा इन अनाजों में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं. इनके प्रयोग से हाजमा दुरुस्त होता है, दिल के रोगों का खतरा कम होता है और डायबिटीज जैसे रोगों में लाभ होता है.

क्या आप अब भी यही सोचते हैं कि इन स्वास्थ्यवर्धक खाद्यान्न को मोटा अनाज कहना उचित है? मैं इसे और सरलीकृत कर देता हूं. बाजरे से बनी चपाती खाने से शरीर के लिए जरूरी विटामिन ए मिल जाता है, जिसकी पूर्ति एक किलोग्राम गाजर से होती है. कंगनी से उतना ही प्रोटीन मिल जाता है जितना कि अंडे से. एक कटोरी रागी में इतना कैल्शियम होता है, जितना तीन गिलास दूध में. क्योंकि गाजर, अंडे और दूध गरीब लोगों की पहुंच से बाहर हैं, इसलिए इन मोटे अनाजों को सही ही गरीब लोगों का सोना कहा गया है.

इसमें कोई हैरानी नहीं है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इन मोटे अनाजों को शामिल करने की मांग बढ़ती जा रही है. इसमें मोटे अनाज को सम्मलित करने से सरकार खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पौष्टिकता सुरक्षा के दोहरे लक्ष्य को हासिल कर सकती है. हमें मोटे अनाजों का नया नामकरण पौष्टिक अनाज के रूप में कर देना चाहिए. जैसे ही इन्हें पौष्टिक अनाज कहने लगेंगे, इन तथाकथित निम्नस्तरीय अनाजों के प्रति हमारा दृष्टिकोण एकदम बदल जाएगा.

इसके अलावा कृषि विश्वविद्यालयों के साथ-साथ नीति निर्माताओं और योजनाकारों को भी मोटे अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. खान-पान की आदत बदलने की सख्त जरूरत है.


----------------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20100706

राजीव गांधी ने किया था एंडरसन की रिहाई का सौदा

भोपाल गैस त्रासदी पर तत्कालीन भारत सरकार ने एक सौदा किया था. सौदा यह कि उसने एंडरसन को सकुशल जाने दिया बदले में अमेरिका ने 11 जून 1985 को आदिल सहरयार को छोड़ दिया था. क्या यह महज संयोग भर है कि जिस दिन आदिल शहरयार जेल से रिहा हुआ उसके अगले दिन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी अमेरिका में थे?

यह आदिल सहरयार कौन हैं जिनके लिए राजीव गांधी हजारों मौतों के जिम्मेदार एंडरसन को राष्ट्रपति से चाय पिलवाकर देश से रुखसत किया था? आदिल सहरयार इंदिरा गांधी के निजी सहायक रहे मोहम्मद युनुस के बेटे थे. उनका लालन पालन इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे की तरह ही हुआ था. सहरयार अमेरिका गया लेकिन वहां जाकर वह अपराध जगत का हिस्सा बन गया. 30 अगस्त 1981 को आदिल मियामी के एक होटल में पकड़ा गया था. उसके ऊपर आगजनी में शामिल होने का आरोप था. पकड़े जाने पर जब अमेरिकी प्रशासन ने आदिल के बारे में छानबीन शुरू की तो पता चला कि वह ड्रग रैकेट का हिस्सा है. उसके कई और अपराध सामने आये और अमेरिका न्यायालय ने उसे खतरनाक मुजरिम की श्रेणी में रखा और 35 साल की सजा सुनाई गयी. सजा के बाद आदिल की ओर से न केवल न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर की गयी बल्कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के एक समर्थक ने आदिल की रिहाई के लिए अमेरिका राष्ट्रपति पद का दुरुपयोग भी किया. उसकी कोशिश थी कि आदिल को मुक्त कराकर भारत भेज दिया जाए. लेकिन बात नहीं बनी.

आदिल की रिहाई की सारी कोशिशें क्यों हो रही थीं यह भी छिपी हुई बात नहीं है. भारत का प्रधानमंत्री कार्यालय इस काम के लिए सक्रिय था. इसी घटनाक्रम के तहत मोहम्मद युनुस के इंदिरा गांधी पर प्रभाव का भी खुलासा हुआ. रोनाल्ड रीगन के नाम पर आदिल की रिहाई की कोशिश करनेवालों ने इंदिरा और युनुस के गहरे पारिवारिक रिश्तों का वास्ता भी दिया था. फिर भी बात नहीं बनी. लेकिन भोपाल गैस त्रासदी ने राजीव गांधी को मौका दे दिया कि वे आदिल सहरयार को सकुशल भारत वापस ला सके.

भोपाल गैस काण्ड के बाद एंडरसन की भारत से सकुशल विदाई की बात पर राजीव गांधी प्रशासन की ओर से आदिल के रिहाई की शर्त रखी गयी. उस समय के ईमानदार अफसर और कांग्रेसी नेता भी इस बात से इंकार नहीं करेंगे कि एंडरसन के बदले अमेरिका प्रशासन से एक सौदा हुआ था. इस सौदे से जुड़े दस्तावेज अब कोई क्लासीफाइड डाक्युमेन्ट नहीं हैं. सीआईए की एक रिपोर्ट से उजागर हुआ है कि 26 साल पहले भारत सरकार ने एंडरसन के बदले में आदिल सहरयार को वापस मांगा था. यह रिपोर्ट 2002 में डिक्लासीफाईड की जा चुकी है. सीआईए की ही रिपोर्ट में यह खुलासा भी होता है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह दिल्ली के आदेशों का पालन कर रहे थे. इस खुलासे के बाद ही कांग्रेस नेतृत्व सक्रिय हुआ और उसने लीपापोती शुरू कर दी. साफ है दस जनपथ से जुड़े दशानन किसी भी सूरत में राजीव गांधी का नाम बदनाम नहीं होने देना चाहते हैं.

लेकिन कांग्रेसी लीपापोती और सुलह सफाई एक तरफ. दूसरी तरह खुद अमेरिकी प्रशासन से जुड़े लोगों के खुलासे हैं जो बताते हैं कि आदिल सहरयार के बदले में एंडरसन को छोड़ा गया था. अमेरिकी मिशन के पूर्व उपाध्यक्ष गार्डन स्ट्रीब ने भी दावा किया है कि एंडरसन को एक समझौते के भारत ने वापस भेजा था. यह समझौता क्या था? अगर आदिल की रिहाई से जुड़ा मामला नहीं है तो क्या हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन कारणों का खुलासा करेंगे जो राजीव गांधी को सीधे सीधे इस पूरे मामले में दोषी करार दे रहे हैं?

(रामबहादुर राय)

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