20100707

नाम में बहुत कुछ रखा है

कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है. मेरा कहना है बहुत कुछ. यह ठीक है कि गुलाब का कोई भी नाम रख दिया जाए, रहेगा तो वह गुलाब ही. किंतु कुछ अन्य खाद्यान्नों के संबंध में यह सच नहीं है.

मैं बहुत से ऐसे महत्वपूर्ण और पौष्टिक अनाजों के बारे में जानता हूं, जिनका इस्तेमाल इसलिए कम होता है क्योंकि उन्हें मोटे अनाज की श्रेणी में डाल दिया गया है. आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि ये निम्न गुणवत्ता के अनाज हैं. ये देखने में तो मोटे अनाज लगते हैं किंतु हैं बेहद पौष्टिक.

हमारे परंपरागत आहार में मोटे अनाजों का महत्वपूर्ण स्थान था किंतु नामावली के कारण ये धीरे-धीरे थाली से बाहर निकलते चले गए. हमारी जीवनपद्धति से जुड़ी बहुत-सी बीमारियां इन मोटे अनाजों की अवहेलना का दुष्परिणाम हैं. जैसे ही मोटा अनाज कहा जाता है आप सोचते हैं कि ये शायद पशुओं का भोजन है. बढि़या अनाज केवल गेहूं और चावल को माना जाता है. यही हमारे मानस में बैठ गया है.

यहां यह जरूरी हो जाता है कि हम पौष्टिक अनाज का वर्गीकरण किस प्रकार करते हैं. अगर हम इन्हें मोटे अनाज के स्थान पर पौष्टिक अनाज कहना शुरू कर दें, तो इन अनाजों के प्रति हमारी सोच और रुख नाटकीय रूप से बदल जाएंगे. छात्र जीवन के दौरान मैं अकसर हैरान रह जाता था कि काबुली चना को अंग्रेजी में चिक पी और अरहर को पिजियन पी क्यों कहा जाता है. ये दोनों ही भारतीय भोजन के महत्वपूर्ण अंग हैं और पौष्टिक तत्वों से भरपूर हैं. किंतु अंग्रेजी में इनके नाम इनके साथ न्याय नहीं करते.

वास्तव में, पीजियन पी और चिक पी नाम इसलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि इंग्लैंड और फ्रांस के लोगों ने इन्हें कबूतरों और मुर्र्गो के भोजन के लायक समझा. चूंकि फलियों वाले अनाज यूरोपीय भोजन के अनिवार्य अंग नहीं हैं, इसलिए उन्होंने इन अनाजों का वही नामकरण किया जिसके लिए ये उन्हें उपयुक्त समझते थे. इसलिए जैसे ही आप पिजियन पी और चिक पी सुनते हैं आप सोचते हैं कि ये अनाज चिड़ियाओं के लिए ही ठीक हैं.

अरहर में प्रोटीन, अमीनो एसिड्स और लाइसिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. यह भारतीय भोजन को न केवल पौष्टिक बनाती है बल्कि इसमें सही संतुलन भी कायम रखती है. यही नहीं, अरहर से मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ती है. साथ ही इसमें औषधीय गुण भी हैं.

काबुली चना भी बेहद पौष्टिक अनाज है. इसमें 23 प्रतिशत प्रोटीन होता है. साथ ही यह कार्बोहाइड्रेट्स और केल्शियम का भी समृद्ध स्त्रोत है. अंग्रेजों ने फलों के राजा आम का नाम बिगाड़ने की भी कोशिश की. एमएस रंधावा ने एक बार लिखा था कि ब्रिटेन के लोग भारतीयों को आम चूसते देखना पसंद नहीं करते थे, जिसमें हाथ और मुंह सन जाते थे. वे इसे बाथरूम का फल कहा करते थे. यानी ऐसा फल जिसे खाकर बाथरूम में हाथ-मुंह धोने की जरूरत पड़े. जरा कल्पना कीजिए कि आम का नामकरण बाथरूम फ्रूट हो जाता तो कैसा लगता.

मोटे अनाज वर्गीकरण से भी बेहद पौष्टिक अनाज की छवि खराब होती है. क्योंकि इन्हें मोटा अनाज कहा जाता है इसलिए हमें लगता है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज है. इसके विपरीत मोटे अनाज भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पौष्टिकता का स्त्रोत हैं. नाजुक पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले जवार, बाजरा, रागी और अन्य छोटे अनाज भारतीयों के भोजन की पौष्टिकता को बढ़ाते हैं. फिर भी, सरकार इनकी पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं करती.

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने मोटे अनाजों की पौष्टिकता को रेखांकित किया है. 100 ग्राम चावल की तुलना में कंगनी 81 प्रतिशत अधिक पौष्टिक है. व्रत के दौरान खीर के रूप में खाये जाने वाले सवां में 840 प्रतिशत अधिक फैट, 350 फाइबर और 1229 प्रतिशत आयरन होता है. कोदु अनाज में चावल की तुलना में 633 प्रतिशत अधिक खनिज तत्व होते हैं. रागी में 3340 प्रतिशत अधिक कैल्शियम और बाजरा में 85 फीसदी अधिक फॉस्फोरस होता है. इसके अलावा ये अनाज विटामिनों से भी भरपूर होते हैं. अत्यधिक पौष्टिक होने के अलावा इन अनाजों में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं. इनके प्रयोग से हाजमा दुरुस्त होता है, दिल के रोगों का खतरा कम होता है और डायबिटीज जैसे रोगों में लाभ होता है.

क्या आप अब भी यही सोचते हैं कि इन स्वास्थ्यवर्धक खाद्यान्न को मोटा अनाज कहना उचित है? मैं इसे और सरलीकृत कर देता हूं. बाजरे से बनी चपाती खाने से शरीर के लिए जरूरी विटामिन ए मिल जाता है, जिसकी पूर्ति एक किलोग्राम गाजर से होती है. कंगनी से उतना ही प्रोटीन मिल जाता है जितना कि अंडे से. एक कटोरी रागी में इतना कैल्शियम होता है, जितना तीन गिलास दूध में. क्योंकि गाजर, अंडे और दूध गरीब लोगों की पहुंच से बाहर हैं, इसलिए इन मोटे अनाजों को सही ही गरीब लोगों का सोना कहा गया है.

इसमें कोई हैरानी नहीं है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इन मोटे अनाजों को शामिल करने की मांग बढ़ती जा रही है. इसमें मोटे अनाज को सम्मलित करने से सरकार खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पौष्टिकता सुरक्षा के दोहरे लक्ष्य को हासिल कर सकती है. हमें मोटे अनाजों का नया नामकरण पौष्टिक अनाज के रूप में कर देना चाहिए. जैसे ही इन्हें पौष्टिक अनाज कहने लगेंगे, इन तथाकथित निम्नस्तरीय अनाजों के प्रति हमारा दृष्टिकोण एकदम बदल जाएगा.

इसके अलावा कृषि विश्वविद्यालयों के साथ-साथ नीति निर्माताओं और योजनाकारों को भी मोटे अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. खान-पान की आदत बदलने की सख्त जरूरत है.


----------------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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