20100119

आंकड़ों के अंकगणित से मारेंगे गरीबी

भारत में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या है? योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर कमेटी कहती है कि कुल आबादी के 37 फीसदी. अब जिस सरकार के लिए योजना आयोग योजनाएं बनाती है उसी सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश में गरीबी के ताजे आंकड़े जारी होंगे. साफ है, प्रधानमंत्री को गरीबी के आंकड़े नागवार गुजरे हैं और वे अब आंकड़ों से मारेंगे गरीबी.

नया साल और नयी दहाई के लगने से पहले एक बात करीब-करीब तय हो चुकी है। देश की कुल आबादी में गरीबों का हिस्सा, सरकार अब तक जितना मानती आयी है, आइंदा उससे काफी ज्यादा माना जाएगा। योजना आयोग ने गरीबों के हिस्से का नया अनुमान पेश करने के लिए तेंडुलकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी। कमेटी की सिफारिश के हिसाब से गरीबी का सही अनुमान 37 फीसद बैठता है। यह अब तक चले आ रहे 27.5 फीसद जनता के गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे होने के अनुमान से करीब 10 फीसद ज्यादा है। यानी 2009 तक सरकार देश में जितनी आबादी को गरीब मानने के लिए तैयार थी, 2010 में उससे करीब डेढ़ गुने लोगों को गरीब मानने के लिए तैयार होगी। बेशक, तेंडुलकर कमेटी की सिफारिशों पर अभी सरकारी अनुमोदन की मोहर लगनी बाकी है। लेकिन, यह सिर्फ एक औपचारिकता का मामला है, जिसे जल्द ही और हर सूरत में अगले बजट से पहले ही पूरा कर लिया जाएगा।

बेशक, गरीबी अनुमान में होने वाले संशोधन का जिक्र कर हम कोई यह इशारा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि यह अनिवार्य रूप से पिछले कुछ अर्से में गरीबों के हिस्से के बढऩे को दिखाता है। जाहिर है कि पिछला एक-डेढ़ साल विश्व आर्थिक संकट का रहा है, जिसका असर भारत की वृद्घि दर पर ही नहीं पड़ा है बल्कि निर्यातों पर तथा खासतौर पर कपड़ा जैसे निर्यातों पर बहुत ज्यादा पड़ा है। सीधे रोजगार पर और कुल मिलाकर गरीबी पर भी इसका असर पड़े बिना नहीं रह सकता है। एक अनुमान के अनुसार इस संकट ने दुनिया भर में 10 करोड़ नये लोगों को भूख के जबड़ों में झोंका है। इसके बावजूद, गरीबी अनुपात के अनुमान में प्रस्तावित बढ़ोतरी का, गरीबी में इस बढ़ोतरी से कोई सीधा संबंध नहीं है। वास्तव में एक तरह से तो यह गरीबी की रेखा को जरा सा ऊपर सरका दिए जाने का ही मामला है, जिससे आमदनी के लिहाज से एक पैसा भी आगे पीछे हुए बिना ही, पहले से दस फीसद ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे यानी सरकारी मान्यताप्राप्त गरीबों की श्रेणी में आ जाएंगे।

इसीलिए, अचरज की बात नहीं होगी कि गरीबों के हिस्से में ठीक-ठाक छलांग के बाद भी, सरकार गरीबी घटाने के ही दावे करती नजर आए! वास्तव में खुद प्रधानमंत्री ने उड़ीसा में अर्थशास्त्रियों की एसोसिएशन के सालाना सम्मेलन में ठीक ऐसा ही दावा किया है। गरीबी के आंकड़े में बढ़ोतरी की विडंबना को भुलाकर, इसे भी यूपीए सरकार के गरीबों का बहुत ख्याल रखने के ही सबूत के पेश किए जाने की उम्मीद की जानी चाहिए। जाहिर है कि इसके लिए यही दलील दी जाएगी कि आखिरकार गरीबों के ही हितों की तो चिंता है कि सरकार, गरीबी की रेखा को अगर वास्तव में ऊपर नहीं भी उठा रही है, तब भी उसका पहले से मुकम्मल माप तो पेश कर ही रही है। लेकिन, यूपीए सरकार गरीबों की चिंता का इस तरह का झूठा दिखावा ही तो करती आयी है। वर्ना गरीबी अनुपात का बढ़ा हुआ आंकड़ा तो इस आंखें खोलने वाली सचाई को ही दिखाता है कि कथित आर्थिक सुधारों के करीब दो दशक बाद भी, हरेक दस में से करीब 4 भारतीय गरीब हैं और देहात में तो यह हिस्सा करीब आधा है।

यह तो तब है जबकि गरीबी का नया आंकड़ा भी शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी आहार के सर्वस्वीकृत मानक की जगह पर, करीब 1775 कैलोरी प्रतिव्यक्ति आहार को ही आधार बनाकर गणना करता है। वास्तव में यह जिंदा रहने के लिए आवश्यक न्यूनतम, 1800 कैलोरी आहर से भी कुछ कम ही है। अगर शहरी आबादी के लिए 2100 कैलोरी तथा ग्रामीण आबादी के लिए 2400 कैलोरी आहार की मानक जरूरत को आधार बनाकर गरीबों के हिस्से की गणना की जाए, जोकि गरीबी का इकलौता सही माप होगा, तो गरीबों का हिस्सा बहुत ज्यादा बैठेगा। यह हिस्सा कितना हो सकता है, इसका कुछ अंदाजा खुद सरकार के ही राष्ट्रीय असंगठित क्षेत्र उद्यम आयोग के आकलन से लगाया जा सकता है, जिसके हिसाब से 78 फीसद भारतीय, 20 रु0 रोज या उससे कम में गुजारा करते हैं।

बहरहाल, यूपीए सरकार से इसकी शिकायत करना बेकार है कि वह उसी रास्ते पर चल रही है, जिसने तमाम ऊंची वृद्घि दर के बावजूद, गरीबी तथा भूख में कोई वास्तविक कमी करने के बजाय उन्हें बढ़ाया ही है। इसीलिए, उस दौर में भी जब सरकार खुद यह स्वीकार करती नजर आ रही है कि 37 फीसद से ज्यादा आबादी गरीबी में जी रही है, सर्वोच्च स्तर पर सरकार को सिर्फ एक ही चिंता सता रही है कि वृद्घि दर का आंकड़ा आठ फीसद से ऊपर कब पहुंचेगा! लेकिन, किस्सा सिर्फ इसी पर खत्म नहीं हो जाता है। अब लगभग खत्म 2009 में, जब सबसे बढ़कर वृद्घि दर में गिरावट के चलते आम मुद्रास्फीति की दर न सिर्फ काफी नीचे बनी रही थी बल्कि महीनों तक शून्य से नीचे भी बनी रही थी, सिर्फ खाने-पीने की वस्तुओं के मामले में ही मुद्रास्फीति की दर बराबर दो अंकों में बनी रही और पिछले महीनों में 20 फीसद के अंक के करीब पहुंच गयी। यह मेहनत की कमाई खाने वालों की वास्तविक आय में भारी गिरावट की ही कहानी है और यह गिरावट, बेरोजगारी के चलते उनकी आय में होने वाली कमी के ऊपर से है। लेकिन, यूपीए सरकार तो आर्थिक संकट के चलते बढ़ी हुई बेरोजगारी से तो आम तौर पर इंकार ही करती रही है। रही खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई तो इस मामले में तो संसद के पिछले सत्र के दौरान उसने, बाकायदा हाथ ही खड़े कर दिए।

यह पहले से चली आती नीतियों के दायरे में भी हालात, मेहनत की रोटी खाने वालों की नजर से पहले से बदतर होने की ही कहानी कहता है। बेशक, हालात के बदतर होने का काफी-कुछ संबंध इसी अप्रैल-मई में हुए आम चुनाव में यूपीए के पिछली बार से ज्यादा ताकत के साथ दोबारा सत्ता में आने और उससे भी बढ़कर उसे न सिर्फ वामपंथ के समर्थन पर निर्भरता से मुक्ति मिल जाने बल्कि संसद में वामपंथ की ताकत घट जाने से है। बंगाल में वाम मोर्चा तथा उसकी सरकार का क्रांतिकारी विकल्प पेश करने का दावा करने वालों तथा उनके भांति-भांति के पैरोकारों के बड़बोले दावों के बावजूद, सचाई यही है कि संगठित वामपंथ को धक्का लगने से, राजनीतिक ताकतों का संतुलन मेहनत-मजदूरी करने वालों के और भी खिलाफ हो गया है। खाद्य महंगाई से सरकार की नींद खराब न होना, इसी बदलाव का सबूत है। अगले बरस और उसके बाद भी तब तक यह बदलाव अपना असर दिखाएगा, जब तक कि वामपंथ कम से कम जनता के बीच अपनी पहले की हैसियत फिर से हासिल नहीं कर लेता है। पर यह श्रमसाध्य भी होगा और समय साध्य भी। तब तक तेरा क्या होगा गरीबी!

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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