20090330

सरदार, कितना यूरेनियम चाहिए?

जिन दिनों भारतीय लोकतंत्र अमेरिकी लोकतंत्र की इज्जत बचाने के लिए अपना अस्तित्व और संप्रभुता दांव पर लगा रहा था उन दिनों जॉर्ज बुश अपने पैतालीस पन्नों के एक परम गोपनीय पत्र में अपनी सीनेट को दिलासा दे रहे थे कि उन्होंने तो दरअसल भारत को बेवकूफ बनाया है और भारत ने अगर नाभिकीय अप्रसार संधि पर स्वीकृति नहीं दी और फिर से कोई परमाणु परीक्षण किया तो पूरी दुनिया उसे यूरेनियम देना बंद कर देगी और कसम खा कर बुश ने कहा था कि अमेरिका ऐसा करने वालों में सबसे आगे होगा.

अमेरिका बनिया स्वभाव वालों का देश है। वे खुद एक तोला यूरेनियम पैदा नहीं करते मगर दुनिया भर में उसके सबसे बड़े व्यापारी होने का दावा करते हैं। एटमी अप्रसार संधि पर खुद इन दगाबाजों ने दस्तखत नहीं किए लेकिन भारत सहित सभी विकासशील देशों से उनकी उम्मीद है कि सब हलफनामा भर कर दे दें कि वे अपनी एटमी क्षमताओं का प्रसार नहीं करेंगे। कम लोगों को मालूम हैं कि नासा को सबसे ताकतवर बनाने के लिए अमेरिकी सीनेट ने बीच में एक प्रस्ताव पर भी विचार किया था कि दुनिया के सारे देश अपने उपग्रह छोड़ने के पहले अमेरिका के नेतृत्व में प्रस्तावित अंतरिक्ष क्लब की अनुमति लें. चीन और रूस ने अपनी दुश्मनी भुलाते हुए इस मामले पर इतना बखेड़ा खड़ा किया कि यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा.

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अमेरिका आज तक भारत को तीसरी दुनिया में गिनता आ रहा है और उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे नेता दुनिया की आंख में आंख डाल कर यह कहने से डरते हैं कि तुम्हे जो करना है सो कर लो, हम तुम से नहीं डरते। यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि भारत जैसे विराट देश में धरती के गर्भ में इतना यूरेनियम मौजूद है कि जो पैतालीस देश भारत की परमाणु नियति का फैसला करने का दावा कर रहे हैं उन सबकों हम यूरेनियम बेच सकते हैं। अपने झारखंड और छत्तीसगढ़ में यूरेनियम और प्लेटोनियम की इतनी बड़ी खदानें मौजूद हैं कि हमें अपनी एटमी ताकत बढ़ाने के लिए किसी भी खां साहब का मुंह नहीं देखना.

सिर्फ मेघालय में पच्चीस वर्ग किलोमीटर में यूरेनियम होने की इतनी ज्यादा मात्रा का पता अंतरिक्ष चित्रों से चला और फिर हमारे अधिकारियों ने जा कर जमीन पर उसकी पुष्टि की. और अब केंद्र सरकार के एक संयुक्त सचिव वहां यूरेनियम की खदान लीज पर लेने के लिए राज्य सरकार से बात कर रहे हैं। यह यूरेनियम इतना है जितना हम फिलहाल चार देशों से आयात करते हैं। इसके अलावा हमारे यूरेनियम निगम ने लगातार शोध कर के बहुत सारे यूरेनियम भंडारों का पता लगाया है और अगर हम प्राथमिकता के आधार पर कुछ वर्षों के लिए यूरेनियम के संधान को युद्व स्तर पर खोजने और संश्लेषित करने में जुट जाएं तो हमें पूरी दुनिया में खोजबीन और भीख मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

अमेरिका को पता था कि यूरेनियम और एटमी सामग्री के तौर पर इस्तेमाल होने वाला यूरेनियम और भारी पानी दोनों दुनिया के विकास के साथ लगातार मांग में आगे बढ़ेंगे और इसीलिए 1986 में ही उसने अपना परमाणु कानून बना कर यह सुनिश्चित कर दिया था कि यूरेनियम और भारी पानी दोनों के उत्पादन पर उसका ही नियंत्रण रहे। बाद में जब दूसरे देशों ने अपनी परमाणु नीतियां बनाई तो तय पाया गया कि अमेरिका इन नीतियों को निरस्त करने के लिए अपनी परमाणु नीति में संशोधन करें। तभी नाभिकीय अप्रसार संधि का नाटक खड़ा किया गया.

दुनिया में सिर्फ एक बार दूसरे विश्व युद्व में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बमों का इस्तेमाल हुआ था और वहां का हाल देख कर परमाणु ताकत से संपन्न कोई भी देश और खास तौर पर पड़ोसी दुश्मन देश यह साहस नहीं करेगा कि घोर से घोर युद्व में एटम बम का इस्तेमाल करें। कारण साफ है। अगर पाकिस्तान भारत पर या भारत पाकिस्तान पर एटम बम छोड़ता है तो लाहौर और इस्लामाबाद तो जाएंगे ही, बचेंगे अपने जालंधर, अमृतसर और जम्मू भी नहीं। और फिर भारत तो पहले से ही कहता आ रहा है कि वह एटमी ताकत के पहले इस्तेमाल न करने का वचन दे चुका है। अगर कोई एटमी हमला करता है तो उसे भुगतना पड़ेगा वरना हम पहले एटम बम चलाने वालों में से नहीं हैं.

दुनिया में एटमी खदानों के खजानों की अगर पड़ताल की जाए तो सबसे ज्यादा यूरेनियम अफ्रीका में मौजूद है और यह अभी तक की शोध है। यूरेनियम अपने आप में एक ऐसा तत्व है जिसका अपने अणुओं, परमाणुओं और नाभिकों पर भी कोई काबू नहीं रहता। भारी पानी यानी सादा पानी में आक्सीजन का एक और परमाणु जोड़ दिया जाए, तो वह भारी पानी हो जाता है और आक्सीजन का यह अतिरिक्त परमाणु यूरेनियम के अगर एक ही अणु में विस्फोट करता है तो उसके बाद वह अणु पहले अपने साथ के सारे परमाणुओं को विस्फोटक बना देता है, इसके बाद हवा में जो आक्सीजन और हाइड्रोजन होती है, उसके परमाणु भी टूटना शुरू हो जाते है। इससे अपार उर्जा जन्म लेती है जो अगर नियंत्रित न रहे तो विनाश का कारण बनती है। नियंत्रित विस्फोट से इस उर्जा को बिजली में बदला जाता है.

विज्ञान के बहुत सारे ज्ञानी हमें यह बताने पर तुले हुए हैं कि कितनी भी परमाणु बिजली पैदा कर लो, सहारा तो पानी और कोयले आदि से पैदा होने वाली बिजली का ही लेना पड़ेगा। भारत में बिजली के वितरण का कोई राज मार्ग नहीं हैं और उपलब्ध बिजली में से भी एक तिहाई रास्ते में बर्बाद हो जाती है और बाकी एक तिहाई या तो चोरी कर ली जाती है या वितरण नहीं होने के कारण ट्रांसफार्मर में ही बर्बाद हो जाती है। जाहिर है कि हमें बिजली से ज्यादा बिजली प्रबंधन की जरूरत है और जिस तरह हम धीरे-धीरे अपनी सामाजिक गरीबी को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही एटमी गरीबी को निपटाने की कोशिश किए बगैर कोई उपाय नहीं हैं.

रही अमेरिका और एनएसजी देशों की बात तो अगर वे राजनीति कर रहे हैं तो हमें कूटनीति करनी पड़ेगी और यहां कूटनीति का अर्थ कूटने की नीति से है। अमेरिका को शायद याद दिलाना पड़ेगा कि कोलंबस बेचारा निकला तो भारत खोजने था लेकिन उसने गलती से अमेरिका को ही भारत समझ लिया। जिस देश का जन्म ही भारत की तलाश में हुआ है उसकी औकात यह कब से हो गई कि वह भारत को ज्ञान दें और अपनी शर्तों समझाए ?
(आलोक तोमर)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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