पिछले दिनों चर्चों से जुड़ी ऐसी कई घटनांए सामने आई हैं जिन्हें साप्रदायिकता की श्रेणी में रखा जा रहा है। अभी हाल ही में रतलाम (मध्य प्रदेश) की रेलवे कंलोनी में स्थित 85 वर्ष पुराने चर्च में आग लगा दी गई। इस घटना को सीधे हिन्दु संगठनों से जोड़ा गया। मामला तुंरत अतंराष्ट्रीय स्तर तक पंहुचाया गया। चर्च अधिकारियों और उनके विदेशी आकाओं की भकुटियां तन गई। बाद में पता चला कि उक्त घटना की तह में था उसी चर्च का चौकीदार था- नोयल पारे. नोयल पारे ने आक्रोशवश ही चर्च में आग लगाई थी।
चर्च की 86वीं वर्षगांठ मनाई जाने वाली थी. बड़े समारोह की तैयारियॉ थी. किंतु उस चर्च के चौकीदार पर आठ हजार का कर्ज था. कर्ज था बनियों का. जिनसे वह पेट भरने के लिये जरुरी नून-तेल उधार लेता था। चर्च प्रशासन उसे मात्र 1000 रुपए मासिक वेतन देता था। कितना बड़ा अंतर है सरकारी नियमों में न्यूनतम मजदूरी को लेकर और चर्च प्रषासन द्वारा दी जाने वाली मजदूरी के बीच. देश की राजधानी दिल्ली में ही चर्च द्वारा चलाये जाने वाले अधिक्तर संस्थानों में भी ऐसा ही हाल है, सरकारी आदेश पोप पोषित धर्मराज्य के प्रशासकों के ठेंगे पर होते है। चर्च का गुलाम कर्मचारी 24 घंटे काम करके एक हजार रुपए महीना अर्थात 33 रुपए प्रतिदिन, ऐसी स्थिति में -क्रिया की प्रतिक्रिया - शोषण का परिणाम आक्रोश तो होगा ही. आक्रोशवश ऐसा कर्मचारी कुछ भी कर सकता है। हत्या या आत्महत्या या फिर तोड़फोड़ मारपीट अगजनी इत्यादि या चोरी चकारी, लूटपाट कुछ भी.
कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के ही झाबुआ में कान्वेंट की ननों (धर्म-बहनों) पर सामूहिक हमला व बलात्कार का मामला भी खूब उछाला गया। लेकिन उस समय भी बात वहीं थी बंदर की बला तबेले के सिर. हिन्दू संगठन ही बदनाम किये गये। इस मामले में भी झाबुआ के धर्मांतरित ईसाइयों का आक्रोश ही था। मलयाली-दक्षिण भारतीय ननें बनाम आदिवासी ईसाई. यहां रतलाम में चर्च जलाने की जिस घटना का जिक्र किया जा रहा है उसके मूल में भी मलयाली चर्च प्रशासन पादरी जोस मैथ्यू (मलयाली) बनाम नोयल पारे (स्थानीय मराठी मूल का आदिवासी) है. हाल ही में बिजनौर -उतर प्रदेश की एक स्थानीय अदालत ने `संत मेरी स्कूल´ की नन प्रमिला की 5 नवंबर 2007 को हुई हत्या के मामले में स्कूल के चौकीदार जॉन को उम्रकैद की सजा सुनाई है। कुछ दिन पूर्व उतराखंड के रामपुर में एक कैथोलिक पादरी एवं उसकी नौकरानी की हत्या के मामले में भी उक्त आश्रम से जुड़े कुछ लोग पकड़े गये है। आजकल उड़ीसा में एक नन के साथ हुये बलात्कार का मामला राष्ट्रीय एवं अतंरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में छाया हुआ है. उड़ीसा पुलिस ने संदेह के आधार पर चार लोगों को हिरासत में लिया है. पीड़ित नन चर्च अधिकारियों के संरक्षण में अज्ञातवास में चली गई है. चर्च अधिकारियों के मुताबिक पीड़िता को सही समय पर सामने लाया जायेगा। किसी भी महिला के साथ बलात्कार एक घिनौना अपराध है. बलात्कारी शरीर ही नहीं पीड़िता की आत्मा की भी हत्या कर देता है. ऐसा अपराधी कोई भी हो उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए परन्तु उड़ीसा मामले को लेकर कुछ चर्च अधिकारियों पर ही अगुंली उठ रही है. ऐसे में यह जरूरी है कि सच लोगों के सामने लाया जाना चाहिए.
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मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है.
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यहीं नहीं उड़ीसा में जो हो रहा है उसमें भी मलयाली मिशनरियों का बड़ा हाथ है। कटक के आर्च बिशप राइट रेव्हण रिफेल चीनथ भी मलयाली ही है। वहां इनकी गलतियों की सजा गरीब एवं सीधे साधे धर्मांतरित वंचितों को मिली। छल, फरेब, धोखाधड़ी के बलबूते अपने साम्राज्य का विस्तार करते `पोप पोषित´ यह मिशनरी हिन्दू दलितों को मतांतरित करने के बाद भी सरकारी दस्तावेजों में हिन्दू रहने के लिए प्रेरित करते है, ताकि वह इन से नहीं सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहे और इनकी धर्मांतरण की दुकान बिना किसी रोक-टोक के चलती रहे।
इन्हें वंचितों एवं आदिवासियों के प्रति कितनी सहनाभूति है यह उड़ीसा के कंधमाल और कर्नाटक में हुए कुछ चर्चों पर हमलों के दौरान विरोध करने के तरीके से भी समझा जा सकता है। जहां उड़ीसा के मामले में कैथोलिक चर्च अधिकारी एक औपचारिकता निभाते दिखाई दिये वहीं मंगलूर में हुई घटनाओं के बाद उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। अंग्रेंजी अखबारों में दो-दो पेज तक की खबरे आनी शुरू हुई। चर्च अधिकारी और उनके राजनीतिक समर्थक ऐसे सक्रिय हुए मानों कर्नाटक में `ईसाइयत´ समाप्त होने को हो। चर्च अधिकारियों की सक्रियता और उग्र तेवरों को देखते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री तुरंत मंगलूर डायसिस के बिषप के यहां सफाई देने वैसे ही पुहचें जैसे राजग के शासनकाल में केन्द्र सरकार अपनी सफाई देती थी। मंगलूर की घटनाओं के बाद चर्च अधिकारियों का उग्र होना स्भाविक था क्योंकि एक तरह से वह चर्च का मिनी वैटिकन जो ठहरा। यदि मराठियों,असामियों, बगालियों, पंजाबियों आदि को अपने अस्तित्व की चिन्ता सता सकती है तो उड़ीसा के मूल निवासियों को भी अपने अस्तित्व की रक्षा की चिन्ता होना स्भाविक है।
मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है। यह दक्षिण भारतीय पादरी - बिशप विदेशी मिशनरियों द्वारा छोड़ी गई अकूत सम्पति को अपने हाथ से निकलने न देने की फिराक में नित नयें हथकंडे अपनाते रहते है। यहां एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है कि वास्कोडिगामा द्वारा छोड़े गये पुर्तगाली मूल के मिशनरियों के वंशज अब भी मंगलोरियन - गोअन - के रुप में उपस्थित है। उतर प्रदेश के नौ कैथोलिक डायसिसों आगरा, मेरठ, झॉसी, बिजनौर, इलाहाबाद, लखनाऊ, बनारस, गोरखपुर, बरेली - के बिशपों में से छ: बिशप पुर्तगाली मूल के है - शेष मलयाली (केरल) के है। अभी कुछ माह पूर्व केरल के आर्च बिशप ने केरल के ईसाइयों के नाम एक परिपत्र (फतवा) जारी किया था कि प्रत्येक दम्पती को चाहिये कि वे `अधिक से अधिक´ संतान उत्पन्न करें. आशय यही था कि चर्च संपदा को हथियाये रखने के लिए केरल के कर्णधारों की अवश्यकता है.
चर्च अधिकारी आज विभिन्न तरीकों से अथाह दौलत कमा रहे हैं. उनका पूरा व्यावसाय इस देश के करोड़ों वंचितों के नाम पर चल रहा है। भारत सरकार का वार्षिक बजट तो आय-व्याय के साथ घाटे के बजट के रुप में जुड़ा होता है मगर इनके घाटे का तो सवाल ही नहीं और साथ ही धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के हित्तों की रक्षा का भार भारत की सरकार पर जिसके तहत इटली की सरकार और वैटिकन भारत के राजदूत को बुलाकर डांट लगाती है। यहीं कारण है कि चर्च अधिकारियों द्वारा शोषित आम ईसाई अनाथ सा विक्षिप्तावस्था में जा पहुंचा है जिसका भविष्य आक्रोश और विरोध की नींव पर खड़ा है.
कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
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