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20120530

IIT Kharagpur :: Exposure of Frauds, Irregularities :: A Few illustrative sample cases

Some shocking facts found on the internet (original link given at last):

1.     IIT Kharagpur (KGP) Director, Prof. D. Acharya is recommended major penalty, by CBI in AICTE scam. In spite of his own indictment, Prof. Acharya suspended whistleblower Prof. Kumar when this dormant matter became public. There are many instances of Prof. Acharya submitting ‘patently false’ information, malafidely & maliciously, in official documents.


2.   A CBI enquiry is pending in running of a fake Institute with alleged involvement of IIT KGP’s past/current directors (Prof. K.L. Chopra, Prof. S.K, Dube, Prof. D. Acharya), officiating registrar (Dr. T.K. Ghosal), then CVO (Prof. A.K. Ghosh) and current CVO (Prof. B.K. Mathur), and many senior professors, who are the alleged complicit.

3.      Irregularities and favoritism in the appointments of the Registrar, Dr T.K. Ghosal, by past and current directors (Prof. K.L. Chopra, Prof. S.K, Dube, Prof. D. Acharya). Director Prof. Acharya misled CVC by submitting a wrong report and got the matter closed. Dr T.K. Ghosal’s son was appointed as a Network Engineer (Group A post) by Director Acharya by ignoring many meritorious applicants.

4.     IIT Patna Director, Prof. A.K. Bhowmick, the then IIT KGP Dean, was recommended major penalty, by CBI, in Coal-Net Scam. It’s a mystery how Prof. Bhowmick got CVC clearance to be appointed as an IIT Director being indicted for a major penalty by CBI. CAG remarked that the implementation of the Coal-net remained unfruitful even after 7 years and spending Rs. 39.58 crore. Others indicted professors were awarded too.

5.      IIT KGP Dean, Prof. P.P. Chakrabarti, was recommended penalty by CBI in the same Coal-net Scam. Instead, Prof. Chakrabarti was promoted and is continuing as the Dean, SRIC for almost a decade. Prof. Chakrabarti is embroiled in mis-appropriating IPRs, in which the technology was allegedly transferred to Indian Railway in violation of the non-disclosure. Tens of millions of public fund is being spent in defending his individual legal suits in US court. No sanction was taken from Ext. Affair Ministry. Dean SRIC and Officials suppressed most details.

6.   IIT KGP Deputy Director, Prof. A.K. Mazumdar, Chairman Purchase Comm., in Laptop Scam, ignored hugely cheaper laptop (Rs 69 K) which matches best with the specifications. Instead, IIT approved laptop at exorbitant rates (Rs 107 K) of the same make, when laptop’s demand was in hundreds. Prof. Mazumdar siphoned millions for his spouse from his and his protege (computer science dept. Head & Prof. Jayanta Mukhopadyay)’s project funds.

7.      IIT KGP Dean, Prof. S.K. Som, with Chairmen JEE, falsely submitted that there were no admissions, in IIT KGP, without JEE’s merit list, though there were hundreds of such admissions done, including wards of the ex-Deputy Director Prof. M. Chakraborty (current IIT Bhubneshwar Director) and the then JEE Chairman, Prof. V.K. Tewari.

8.    IIT KGP Dean, Prof. P.K.J. Mohapatra’s alleged role in M.Tech. 2010 admission irregularities, in which admission details were suppressed by submitting patently false information that the admissions were not based onGATE score.

9.      IIT Faculty nexus with GATE coaching classescomputer science Prof. I. Sengupta was associated with a Kolkata GATE coaching while his spouse, Prof. D. Roychowdhury was a question paper setter of Computer Science GATE.

10.  Admissions of the wards of IIT KGP’s Administrators, including Directors, Deputy Director, Deans, Professor-In-Charges, GATE/JEE Chairmen, etc. is a routine affair in IIT KGP.

11.  A ward of IIT KGP’s past Director, Prof. S.K. Dube, was caught for impersonating in JEE.

12.  IIT KGP is a serial violator of RTI. Not a single out of 3 dozen applications, was ever dealt in accordance with RTI Act. None of the CIC orders was ever completely complied by the IIT.

13.  IIT Chairman, Mr. Shiv Nadar’s SSN College of Engineering was accredited by discarding Experts’ reports. It is not understood why Mr. Nadar’s College is not under CBI Scanner. It may be noted that the Director Acharya is indicted for a major penalty by CBI for an identical favor.

14.  No action on any of the CBI, CVC or CAG reports/complaints was ever taken by the IIT.  Call details of Kumar’s personal cell phone are being acquired by IIT.

(eklavyajee06.blogspot.in)
-------------------------------- कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20120527

दलित पादरी की दर्दभरी दास्तान

शब्दों के मायाजाल को बुन कर कईयों ने समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्यों का बड़ा ही भव्य और जीवंत विश्रेल्षण किया है। ऐसे ही शब्दों का सहारा लेकर दलित पादरी फादर विलियम प्रेमदास चौधरी की आत्मकथा आडंबरपूर्ण कैथोलिक चर्च व्यवस्था में फैले भेदभाव और अस्पृश्यता के अंधियारे का खुलासा करती है। साथ ही यह चर्च के मिथक को तोड़कर उसकी असली कहानी बयां करती है।

फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने अपनी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा ‘‘ऐन अन्वान्टिड प्रीस्ट’’ (एक अंवाछित पादरी) में इस समास्या पर खुल कर आक्रमण किया है। उन्होंने चर्च के पादरियों के जीवन का विश्रेल्षण किया है जिससे अब तक गैर ईसाई ही नही ईसाई समुदाय भी अनजान है। वो काफी अंदर की बातें बतलाने से भी नहीं घबराते और बड़ी सूक्ष्मता के साथ इस समास्या के एक एक परत को समाज के सामने रखते है।

चर्च की ऊंची दीवारों से घिरे और काफी अंदर तक फैले जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, आसमानता का जिक्र करते हुए फादर विलियम आर्चबिशप विन्सेंट एम कैनसासियों के एक पत्र का उतर देते हुए कहते है ‘मैं एक दलित पादरी हूँ न कि भिखारी। मैं अपने लिए किसी चर्च का प्रमुख बनने की भीख नही मांग रहा हूँ। मैं कोई दक्षिण भारतीय पादरी नहीं जिसकी आप को चिंता हो। मुझे धर्म की शिक्षा देने के लिए आपके निर्देशों की जरुरत नहीं, जीजस हमारे स्वामी है न कि आप। मैं जीजस का भक्त हूँ न कि आपका। चर्च प्रमुख बनने के बिना भी मैंने जो पाया है उससे मैं संतुष्ट हूँ।

''मैं दलित वर्ग से आया हूँ इसलिए ये मेरी जिम्मेदारी है कि मैं कैथोलिक चर्च के अंदर दलित ईसाइयों के सम्मान की रक्षा करुं।'' चर्च में गहरे तक फैले भेदभाव का जिक्र करते हुए वह कहते है कि 'स्थानीय दलित पादरी होने के कारण चर्च नेतृत्व ने मेरा मनोबल तोड़ने के लिए पिछले चार वर्षो से मुझे ‘कलर्जी होम’ (एक तरह से अवकाश प्राप्त पादरियों का आवास) में रखा हुआ है। आज तक किसी कार्यरत युवा पादरी को इतने समय तक यहा नहीं रखा गया है।' कैथोलिक बिशप से वह पूछते है कि आप कहते है कि मुझे किसी चर्च का प्रमुख नही बनाया जा सकता क्योंकि मुझ में कमियां है जबकि आप अभी तक मेरे किसी दोष को सिद्ध नहीं कर सकें है केवल इसके कि मैं हिन्दू दलित से धर्मांतरण करके ग्यारह वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद पादरी बना हूँ।

यह किताब चर्च के अंदर पादरियों के बीच पनपने वाले अहम,अंहकार और टकरावों और इस विशाल संस्थान के कामकाज के तरीके पर कई सवाल खड़े करती है और साथ ही धर्मांतरित दलितों और दलित पादरियों पर हुए जुल्म पर भी जोर देती हैं। इस किताब ने कई चीजों का खुलासा किया है और कई मिथकों को तोड़ा है। फादर विलियम ने चर्च संस्थानों में फैले भ्रष्टाचार और चर्च के कुछ खास पदाधिकारियों द्वारा आर्थिक बदइंतजामी फैलाने पर भी कई सवाल खड़े किये है। वो एक अन्य पादरी डोमिनिक इमानुएल जो दिल्ली कैथोलिक आर्च डायसिस के प्रवक्ता है के बारे में लिखते है कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के लिए बनाई गई फिल्मों का आय-व्याय का सही ब्योरा नहीं दिया। उसके विदेशों से पैसा पाने के तरीकों पर भी यह किताब कई प्रश्न खड़े करती है और इस बात पर जोर देती है कि चर्च के आमदनी और खर्चे का सही सही हिसाब रखा जाना चाहिए।

एक रोचक प्रंसग का जिक्र करते हुए फादर विलियम कहते है कि इस तरह के प्रश्न उठाने पर कई बार उनकी अपने साथी पादरियों से लम्बी बहस हो जाती है एक बार इन्हीं मुद्दों पर लम्बी खिंची बहस के बाद आर्चबिशप ने मुझे अन्वान्टिड प्रीस्ट कह डाला।
ये किताब हिन्दु समाज पर भी दबाव डालती है कि वो उन दलित भाईयों के बारे में सोंचे जो समाज में बराबरी और आदर के लिए ईसाइयत को अपना लेते है। धर्मांतरण करने वाले दलित सोचते है कि अब वो आजाद है लेकिन उन्हें यहा भी मुक्ति नहीं मिलती। चर्च ढांचे में भेदभाव बड़ी चलाकी से होता है इसलिए फादर विलियम जैसे किसी दलित पादरी की स्थिति काफी खराब हो जाती है और उनके लिए सम्मान -जनक रुप में पादरी बने रहना असंभव जैसे हो जाता है।

फादर विलियम ने वो लिखने की हिम्मत की है जिसे कई कहने और सपने में भी कबूल करने की हिम्मत नहीं करेंगे। वो धर्मांतरण के कड़वें सच को और एक दलित की दुविधा को स्वीकार करते है। वो लिखते है कि करीब करीब सभी दलित हिन्दु इसलिए गरीब थे क्योंकि उनका उच्च जातियों ने शोषण किया वो या तो मजदूरी कर रहे है या फिर कोई बहुत ही तुच्छ कार्य। धर्मांतरण के बाद शोषण करने का जिम्मा कैथोलिक चर्च के पदाधिकारियों ने उठा लिया है इसलिए धर्मांतरित दलितों की स्थिति पहले जैसी ही बनी हुई है। कैथोलिक चर्च पर दक्षिण भारतीय बिशपों एवं पादरियों के एकाधिकार जैसे कई अहम मसले उन्होंने अपनी आत्मकथा में उठायें है।  

कैथोलिक चर्च में दलितो और आदिवासियों की विशाल जनसंख्या की तरफ इशारा करते हुए यह पुस्तक कहती है कि उच्च जातीय चर्च नेतृत्व कदम कदम पर उनका शोषण कर रहा है, जीसस पर उनके अटूट विश्वास ने ही उन्हें चर्च के साथ बांध रखा है जबकि चर्च का सिस्टम हमेशा उच्च वर्गो और उच्च जातियों को ही फायदा पहुंचाने वाला रहा है। फादर विलियम इसे बदलने पर जोर देते है और कहते है कि इसी की वजह से कई जगह आपस में टकराव भी देखने को मिल रहे है। ये किताब पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का भी उल्लेख करती है जो दलित ईसाइयों के अधिकारों की पुरजोर वकालत कर रहा है। फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने एक बड़े ही आर्दश मंच का इस्तेमाल कर अपने चारों तरफ उपजे कई स्वालों का जवाब दे दिया है।

किताब ‘ऐन अनवान्टेड प्रीस्ट’ फादर विलियम प्रेमदास चौधरी की आत्मकथा है ये धर्म में आस्था रखने वाले धार्मिक संस्थाओं, सरकार, नौकरशाह, न्यायपालिका, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग अनुसंधान कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों को ये समझने में मदद पहुंचाएगी कि दलित और आदिवासियों की तमाम समास्याएं क्या है और सफेद पोशाक (पवित्र चोगा) के पीछे कितना अंधियारा छाया हुआ है। यह धर्मांतरण की राजनीति को समझने में मदद पहंचाएगी। ये किताब यह समझाने में भी कारगर साबित होगी कि दलितों के आर्थिक विकास से न कि धर्मांतरण से समाज में बड़ा बदलाव आएगा।
(www.visfot.com)

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20120522

HC Notice to Rahul Gandhi for Illegal Detention of Girl

The Lucknow Bench of Allahabad High Court today issued notice to AICC general secretary Rahul Gandhi on a petition alleging that a girl and her parents were illegally detained by him since 2007.

Justice Shri Narayan Shukla passed the order, seeking Gandhi's reply, on a habeas corpus petition filed by Kishore Samrite, a former Samajwadi Party MLA from Madhya Pradesh, on behalf of Sukanya Devi, her father Balram Singh and mother Sumitra Devi.

The petition alleged that the petitioners - Sukanya Devi and her parents - were in illegal detention of Rahul Gandhi since January 4, 2007.

It has sought direction to command the Congress leader to produce the girl and her parents before the court and set them free.
(Outlook India)
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20091121

मुम्बई हमले के समय पुलिस की सक्रियता की सच्चाई

पहले भी मैंने तहलका में छपे एक लेख का जिक्र किया था जिसमें साफ़ जाहिर है कि ऊँचे पद पर बैठे कुछ मक्कार (और देशद्रोही) लोग इतनी बड़ी तादाद में लोगों के जान गँवाने के उत्तरदायी हैं.

उन पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिये?

आप भी पढ़ें: Senior cops did not respond to 26/11 situation: Hasan Gafoor
Some of the top Mumbai police officers have been accused by their former boss of dithering from "responding to the situation" during the 26/11 attacks. Gafoor Hasan, the then Mumbai Police Commissioner, said, "a section of senior police officers refused to be on the ground and take on the terrorists. By doing so, they chose to ignore the need of the hour."

Naming some of the seniors, Hasan, in an interview published in 'The Week' magazine just days ahead of the first anniversary of the attacks, said, "I told you there were a handful. For example, K L Prasad refused to come to the Trident and decided against hitting the roads. Devena Bharti, K Venkatesham and Parambhir Singh did not appear keen on responding to the situation as it kept dawning on us."

Prasad was then the Joint Commissioner of Police (Law and Order) while Bharti was the Additional Commissioner of Police (Crime). Venkatesham was the Additional Commissioner of Police (South Region) and Singh was the Additional Commissioner of Police (Anti-Terrorism Squad).

"Yes, there was dearth of eagerness on the part of a handful of senior officers to be on the ground during those days," said Gafoor, replying to a question if he noticed a bit of unwillingness among the senior officers.

Now Director General of Police (Housing), Gafoor received a lot of flak from the Ram Pradhan Committee, which probed into how the security agencies responded to the deadly terror strikes that claimed more than 180 lives.

It had observed that command and control was not properly exercised during the handling of the attacks.

Asked how he felt when let down by his own men and if there was a bigger embarrassment, Gafoor said "yes there was, indeed. On November 28, I attended a meeting with the DGP and Home Minister. I was told to withdraw the NSG and instead use the Mumbai police for the ongoing operations. The DGP told me that the entire world was watching us and so we should put an immediate end to the siege and help defuse the crisis. This sounded ridiculous, as the NSG is an elite force that can tackle such crisis situation. I said it was even preposterous to even think of taking off the NSG."

Recalling the events that took place on November 26 last year, Gafoor said "the first thing on my mind was, of course, to liquidate the terrorists or to restrict and compel them to a corner and then cordon off the targeted area -- all this to engineer the safe evacuation of the people trapped inside."

Lauding the NSG for doing a "great job" in eliminating the terrorists, the former Mumbai Police Commissioner said "without them it would not have been possible to even map the terrorists' movement inside those built-up areas, let alone take them head on and overpower them ultimately."

Asked if believes that he was made a scapegoat, he said, "I cannot comment on that. But yes, political considerations do play a part in lot of things that are decided and ratified. It is politics and much more beyond."

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090615

कांग्रेस का राहुल उदयः कितना सच, कितना झूठ

16 मई को अभी चुनाव परिणाम आने शुरू भी नहीं हुए थे. सिर्फ रूझान आ रहे थे जो यह बता रहे थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए बड़ा उलटफेर करने जा रही है. सुबह के ग्यारह बजे तक जो रुझान आ रहे थे वे बता रहे थे कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर रही है. लेकिन रुझान आते ही कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि कांग्रेस ने जो सफलता अर्जित की है वह राहुल गांधी जी की कड़ी मेहनत का परिणाम है. इसके थोड़ी देर बार अंबिका सोनी का बयान आया कि राहुल गांधी जी को इस भारी जीत का सारा श्रेय देना चाहिए और पुरस्कार भी.

फिर तो जैसे राहुलगान गाने का तांता लग गया. कांग्रेस के नेताओं को छोड़िए. मीडिया ने यह काम अपने हाथ में ले लिया. इस गान में सबसे पहले कोरस मिलाया राजदीप सरदेसाई के चैनल ने फिर उसके बाद टाईम्स नाऊ भी इसी में शामिल हो गया. फिर देखा-देखी हिन्दी के चैनलों ने भी राहुल गान की तान छेड़ दी. पूरे दिन राहुल गांधी को कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जाता रहा. अगले दिन देश के हर अखबार ने यही काम किया. पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव परिणामों में कांग्रेस की सफलता राहुल गांधी को समर्पित हो गयी. पिछले दो-तीन महीने से राहुल गांधी के लिए जो मीडिया मैनेजमेन्ट चल रहा था उसका क्लाईमेक्स बहुत शानदार तरीके से हुआ. राहुल गांधी को मनमोहन सिंह ने भी मंत्री बनने के लिए आफर किया जिसे राहुल गांधी ने बड़ी शालीनता से अस्वीकार कर संगठन के काम में ही रमने का इरादा जताया. फिर भी प्रयास जारी है कि वे बिना विभाग के ही मंत्री बन जाएं. आगे वे क्या करेंगे मालूम नहीं लेकिन राहुल इफेक्ट को परिभाषित करते हुए कांग्रेस और मीडिया दोनों ही तीन राज्यों में कांग्रेस के उत्थान का तर्क दे रहे हैं.

उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान ऐसे तीन राज्य हैं जिसके बारे में कहा जा रहा है कि सिर्फ राहुल जी की "दूरदर्शी नीतियों" के कारण इन राज्यों में कांग्रेस को सफलता मिली है. फिलहाल हम यह सवाल नहीं करते हैं कि अगर ऐसा है तो फिर देश के शेष राज्यों में राहुल जी की दूरदर्शी नीतियां क्यों नहीं अपनाई गयी? लेकिन इतना जरूर पूछते हैं कि महाराष्ट्र के जिस कलावती का जिक्र उन्होंने संसद के अपने भाषण में किया था उस कलावती के गांव जालका ने शिवसेना के आनंदराव अडसुल कों क्यों जितवा दिया? अगर राहुल गांधी का करिश्मा ही है तो कम से कम अमरावती सीट जरूर कांग्रेस के खाते में जानी चाहिए थी क्योंकि अमरावती की कलावती को राहुल गांधी ने रातों-रात देशभर में चर्चित कर दिया था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राहुल गांधी के प्रशिक्षण में लगे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने बहुत सोच समझकर राहुल गांधी को वहां-वहां पहुंचाया जहां दुख और तकलीफ है. इसी कड़ी में वे विदर्भ भी गये थे. बार-बार गये थे. लेकिन विदर्भ ने उनका साथ क्यों नहीं दिया? इस सवाल को यहीं छोड़ आगे बढ़ते हैं.

उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में राहुल गांधी ने ऐसा क्या कमाल किया है? राहुल गांधी के प्रशिक्षक विदर्भ के अलावा उनको उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड इलाके में भी लेकर गये थे. अगर कांग्रेस की जीत में राहुल की जनवादी और मर्मस्पर्शी नीतियां होती तो कम से कम हमीरपुर और बांदा की सीट कांग्रेस को जीतनी चाहिए थी. लेकिन इन दोनों सीटों में एक बसपा के खाते में गयी है और दूसरी सपा के खाते में. यहां राहुल गांधी का जादू क्यों नहीं चला? जबकि दलित के घर जाने से लेकर कड़ी धूप में विचरण करने तक सारे काम उन्होंने यहां किये थे. उत्तर प्रदेश में जहां-जहां कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए हैं उन सीटों को ही देख लीजिए. मोरादाबाद की सीट अजहरूद्दीन ने जीती है. खीरी जफर अली नकवी ने जीती है. इसी तरह धौरहरा से जतिन प्रसाद, उन्नाव से अन्नू टंडन, कानपुर से श्रीप्रकाश जायसवाल, अकबरपुर से राजाराम पाल, झांसी से प्रदीप कुमार जैन, बाराबंकी से पीएल पुनिया, फैजाबाद से निर्मल खत्री बहराईच से कमल किशोर, गोण्डा से बेनी प्रसाद वर्मा, डुमरियागंज से जगदम्बिका पाल चुनाव जीते हैं. इन सीटों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि कांग्रेस ने ये सीटें समीकरण और उम्मीदवारों के कारण जीती हैं न कि राहुल गांधी के प्रभाव के कारण. इनमें अधिकांश सीटें मुस्लिम मतदाता बहुल हैं और इस बार सपा से छिटकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट किया है. रायबरेली, अमेठी, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर सीटों का जिक्र इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योकि ये चार सीटें तो कांग्रेस को जीतनी ही थी. इनमें से एक पर सोनिया गांधी चुनाव लड़ रही थी, दूसरे पर खुद राहुल गांधी, तीसरे पर दिनेश सिंह की बेटी राजकुमारी रत्ना सिंह और चौथे पर डॉ संजय सिंह. इन सीटों पर प्रियंका का सीधा प्रभाव था, और ये चारों सीटे आस-पास हैं. इसलिए यहां की जीत का श्रेय भी राहुल गांधी के खाते में नहीं जाता है.

अगर कांग्रेस की इस जीत को राहुल गांधी का करिश्मा मान भी लें तो यह करिश्मा बिहार में क्यों नहीं दोहराया गया? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वोट शेयर में 6 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है. उसे कुल 12 प्रतिशत वोट और 21 सीटें हासिल हुई हैं. लेकिन बिहार में भी उसको कम वोट नहीं मिले हैं. बिहार में उसके मत में 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और इस बार उसे बिहार में कुल मतदान का 10 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ है. फिर बिहार में उसे केवल दो सीटें ही क्यों मिली और पिछली बार की तुलना में उसे एक सीट का नुकसान हो गया. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में हुई जीत को आंकड़ों के ही लिहाज से देखेंगे तो जीत के कारण साफ होने लगते हैं. उत्तर प्रदेश में सपा के वोट शेयर में कमी दर्ज की गयी है. 2004 में 26.74 प्रतिशत वोटों की तुलना में इस बार उसे 23.26 फीसदी वोट मिले हैं. इसी तरह भाजपा के मत प्रतिशत में भी कमी आयी है. पिछले चुनाव में 22.17 प्रतिशत की तुलना में उसे 17.50 प्रतिशत वोट मिले हैं. हालांकि बसपा को पिछले चुनाव की तुलना में अधिक वोट मिले हैं. राज्य में उसे पिछली बार 24.67 फीसदी वोट मिला था जबकि इस बार 27.42 फीसदी वोट मिला है. अन्य के मत प्रतिशत में एक प्रतिशत का उतार है. साफ है कांग्रेस को सपा और भाजपा के परंपरागत वोटबैंक का हिस्सा मिला है. सपा का परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम कल्याण सिंह के साथ आने से सपा से अलग हुआ है और भाजपा का परंपरागत वोटर जो कांग्रेस से छिटकर भाजपा के साथ आया उसने दोबारा कांग्रेस का साथ दिया है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मत प्रतिशत में बढ़ोत्तरी और जीत के यही दो कारण हैं.

अगर मायावती के मत प्रतिशत में कमी आती तो समझा जा सकता था कि यह राहुल गांधी का कमाल है क्योंकि मायावती भी आरोप लगाती रही हैं कि दलित के घर खाना खाने से कोई दलित का दुख-दर्द नहीं बांट लेता. साफ है, उन्हें इस बात का खतरा था कि राहुल गांधी उनके परंपरागत वोट में सेंधमारी कर सकते हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मायावती के वोट शेयर में बढ़ोत्तरी हुई है. नुकसान सिर्फ सपा और भाजपा को हुआ है. सपा को नुकसान के पीछे का एकमात्र कारण कल्याण सिंह हैं. कल्याण सिंह के ही कारण मुसलमान वोटर सपा से दूर हुआ जबकि उम्मीदों पर खरा न उतर पाने के कारण इस बार कांग्रेस के पुराने वोटर भाजपा को छोड़ कांग्रेस के साथ चले गये. फिर भी इस मत प्रतिशत से ज्यादा सीटों का समीकरण कांग्रेस की जीत के लिए ज्यादा जिम्मेदार है. मसलन उन्नाव से चुनाव लड़ रही अन्नू टंडन के पति रिलांयस के बड़े ओहदेदार हैं और खुद मुकेश अंबानी की नजर इस सीट पर लगी हुई थी. सलमान खान सबसे पहले इसी सीट पर अन्नू टंडन का प्रचार करने आये थे तो उनका यहां आना अनायास नहीं था. इसी तरह राजस्थान में सारा कमाल जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत का है. लेकिन कांग्रेस को मिली सफलता का एक और बड़ा कारण यहां 6 विधायकों का ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल होना भी है. बसपा जो कांग्रेस का वोट काट सकती थी उसका भी वोट कांग्रेस के खाते में आ गया.

यही तीन राज्य हैं जिसमें जीत को राहुल गांधी की "कड़ी मेहनत" का नतीजा बताया जा रहा हैं और उनकी कड़ी मेहनत को पलकों से बुहार लगायी जा रही है. अब आप ही बताइये, कांग्रेस की इस जीत में राहुल गांधी का योगदान कहां है, जिसे हमारा मीडिया बार-बार कांग्रेस के प्रवक्ता की तरह बखान कर रहा है?
(संजय तिवारी)
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20090612

मुम्बई हमले के समय पुलिस की निष्क्रियता

मुम्बई पुलिस ने देश की नाक नीचे करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी. २६ नवंबर की काली रात को अपनी जान की बाजी लगाते हुए सदानंद दाते और उनके साथी एक घंटे (रात १२ बजे) तक control room से reinforcement भेजे जाने की भीख माँगते रहे थे, पर वहाँ कोई नहीं गया. समय रहते अगर सदानंद को सहायता मिली होती तो इस भयावहता को कम किया जा सकता था. इस हमले ने दिखा दिया कि पुलिस की विभिन्न सुरक्षा विभागों से कोई तालमेल ही नहीं है. पुलिस की इन अक्षमताओं का फ़ल मिला उन बहादुर सिपाहियों के परिवारों को उनकी जान गँवाकर.

और इन सब पर परदा डालने के लिये ही विनीता कामते को अभी भी पुलिस के call records की जानकारी नहीं दी गयी है.

पूरा पढ़ें: Slaughter House Files.
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20090503

स्विस बैंक, सफ़ेदपोश नेता और, काला धन

अभी हाल ही में The New Indian Express में प्रकाशित गुरुमूर्ति जी का लेख (Who will probe first family's billions?) पढ़ा.

इस लेख में जो भी पढ़ने को मिला तो एक पल को विस्मित हो गया था..... पर अब जैसा कि रोज़-रोज़ ऐसे वाकिये सुनने की आदत हो गयी है सो अपने को सँभाल लिया.

सोचने की बात है कि (बातें तो और भी हैं पर कोई सोचता ही नहीं):

१- काले धन पर जब दुनिया के बहुत सारे देश मुहिम छेड़े हुए हैं तब भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी बिना एक शब्द बोले G-20 देशों की बैठक से वापिस आ गये. इसका उत्तर अति-शिक्षित मनमोहन सिंह जी के पास नहीं है.

२- एक सौ करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले देश का प्रधानमंत्री Nuclear Deal पर हस्ताक्षर करने के छः माह बाद ये खुलासा करे कि यदि ये deal नहीं होती तो वह त्यागपत्र दे देता. ये कथन क्या प्रकट कर रहा है?

और मुद्दों पर न जाते हुए केवल इन्हीं दो उदाहरणों से एक बात साफ़ हो जाती है कि सत्ता की कुंजी उनके हाथ में नहीं है. और वह एक सहायक की भाँति वही बोलते और करते हैं जो उनको बोला जाता है... अर्थात कठपुतली प्रधानमंत्री. इसके विपरीत यदि वो सारे निर्णय स्व-विवेक से लेते हैं तो देश हित से जुड़े उन दो मुद्दों पर जो पूर्णरूप से स्पष्ट थे ऐसा राष्ट्रघाती निर्णय कैसे ले सकते हैं.

जैसा कि स्पष्ट है कि दोनों मुद्दे पैसे से जुड़े हैं पहला रिश्वत का काला धन एकत्र करने के संदर्भ में और दूसरा किसी भी deal में मिलने वाली रिश्वत के संदर्भ में. आप बतायें कि क्या ये घोटाले नहीं हैं? वो बात अलग है कि ये सब घोटाले वो पार्टीहित में कर रहे हैं. प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन जी एक नयी गाथा लिखी है. अपनी गलतियां और कमजोरियां छिपाने के लिये वो अपना RESUME पढ़ कर सुनाने लगते हैं.

अब फ़िर से गुरुमूर्ती जी के लेख पर आते हैं. पत्रिका के हवाले से उन्होंने तीन बातें सामने लाईं हैं:


1- $2.2 billions in Rajiv's secret accounts, says Swiss magazine, Schweizer Illustrierte (November 11, 1991).


2- Family benefited from KGB, says book.


3- Bofors slush payoff to ‘Q’.

आप जानते हैं कि ये तीन ख़तरे हैं कांग्रेस के लिये. कांग्रेस और इस देश के नये कर्णधार राहुल गाँधी कहते हैं कि सत्ता में आने के बाद वो इसकी जाँच कराएंगे. आपको लगता है कि जाँच होगी???
क्वात्रोकी को सोनिया अम्मा की दोस्ती से जो फ़ायदे हुए उस बोफ़ोर्स घोटाले की जाँच तो अभी भी चल रही है... ये जाँच तो शायद मेरे पोते भी देखेंगे.

अब आप बतायें कि एक पढ़ा लिखा आदमी केवल सत्ता के लालच में एक देशद्रोही परिवार की पार्टी का हित साधने में मगन है और हम हैं कि उन सबको बार-बार जिता कर संसद भेज देते हैं.

मेरा प्रश्न इस देश की जनता से है जो Internet का प्रयोग करती है, अपने को पढ़ा-लिखा और समझदार बोलती है: कब तक करते रहेंगे यह गलती, कब लेंगे सबक?
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20090330

पोप पोषित मिशनरियों के पाप

चर्च पर हिन्दू चरमपंथियों द्वारा हमला तो खबर बनती है लेकिन यह खबर कभी क्यों नहीं बनती कि चर्च के अंदर कितना शोष, अत्याचार और दमन हो रहा है. चर्च संगठन अपने ही कर्मचारियों का शोषण करते हैं, नन्स और पारी की संदेहास्पद हत्याओं के मामले भी प्रकाश में आये हैं, जिनमें चर्च प्रशासन से जुड़े लोग ही शामिल पाये गये हैं, फिर भी हमारा प्रबुद्ध समाज चर्च संगठनों के बीच फैली इन कुरीतियों के बारे में कभी अपनी जबान नहीं खोलता.

पिछले दिनों चर्चों से जुड़ी ऐसी कई घटनांए सामने आई हैं जिन्हें साप्रदायिकता की श्रेणी में रखा जा रहा है। अभी हाल ही में रतलाम (मध्य प्रदेश) की रेलवे कंलोनी में स्थित 85 वर्ष पुराने चर्च में आग लगा दी गई। इस घटना को सीधे हिन्दु संगठनों से जोड़ा गया। मामला तुंरत अतंराष्ट्रीय स्तर तक पंहुचाया गया। चर्च अधिकारियों और उनके विदेशी आकाओं की भकुटियां तन गई। बाद में पता चला कि उक्त घटना की तह में था उसी चर्च का चौकीदार था- नोयल पारे. नोयल पारे ने आक्रोशवश ही चर्च में आग लगाई थी।

चर्च की 86वीं वर्षगांठ मनाई जाने वाली थी. बड़े समारोह की तैयारियॉ थी. किंतु उस चर्च के चौकीदार पर आठ हजार का कर्ज था. कर्ज था बनियों का. जिनसे वह पेट भरने के लिये जरुरी नून-तेल उधार लेता था। चर्च प्रशासन उसे मात्र 1000 रुपए मासिक वेतन देता था। कितना बड़ा अंतर है सरकारी नियमों में न्यूनतम मजदूरी को लेकर और चर्च प्रषासन द्वारा दी जाने वाली मजदूरी के बीच. देश की राजधानी दिल्ली में ही चर्च द्वारा चलाये जाने वाले अधिक्तर संस्थानों में भी ऐसा ही हाल है, सरकारी आदेश पोप पोषित धर्मराज्य के प्रशासकों के ठेंगे पर होते है। चर्च का गुलाम कर्मचारी 24 घंटे काम करके एक हजार रुपए महीना अर्थात 33 रुपए प्रतिदिन, ऐसी स्थिति में -क्रिया की प्रतिक्रिया - शोषण का परिणाम आक्रोश तो होगा ही. आक्रोशवश ऐसा कर्मचारी कुछ भी कर सकता है। हत्या या आत्महत्या या फिर तोड़फोड़ मारपीट अगजनी इत्यादि या चोरी चकारी, लूटपाट कुछ भी.

कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के ही झाबुआ में कान्वेंट की ननों (धर्म-बहनों) पर सामूहिक हमला व बलात्कार का मामला भी खूब उछाला गया। लेकिन उस समय भी बात वहीं थी बंदर की बला तबेले के सिर. हिन्दू संगठन ही बदनाम किये गये। इस मामले में भी झाबुआ के धर्मांतरित ईसाइयों का आक्रोश ही था। मलयाली-दक्षिण भारतीय ननें बनाम आदिवासी ईसाई. यहां रतलाम में चर्च जलाने की जिस घटना का जिक्र किया जा रहा है उसके मूल में भी मलयाली चर्च प्रशासन पादरी जोस मैथ्यू (मलयाली) बनाम नोयल पारे (स्थानीय मराठी मूल का आदिवासी) है. हाल ही में बिजनौर -उतर प्रदेश की एक स्थानीय अदालत ने `संत मेरी स्कूल´ की नन प्रमिला की 5 नवंबर 2007 को हुई हत्या के मामले में स्कूल के चौकीदार जॉन को उम्रकैद की सजा सुनाई है। कुछ दिन पूर्व उतराखंड के रामपुर में एक कैथोलिक पादरी एवं उसकी नौकरानी की हत्या के मामले में भी उक्त आश्रम से जुड़े कुछ लोग पकड़े गये है। आजकल उड़ीसा में एक नन के साथ हुये बलात्कार का मामला राष्ट्रीय एवं अतंरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में छाया हुआ है. उड़ीसा पुलिस ने संदेह के आधार पर चार लोगों को हिरासत में लिया है. पीड़ित नन चर्च अधिकारियों के संरक्षण में अज्ञातवास में चली गई है. चर्च अधिकारियों के मुताबिक पीड़िता को सही समय पर सामने लाया जायेगा। किसी भी महिला के साथ बलात्कार एक घिनौना अपराध है. बलात्कारी शरीर ही नहीं पीड़िता की आत्मा की भी हत्या कर देता है. ऐसा अपराधी कोई भी हो उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए परन्तु उड़ीसा मामले को लेकर कुछ चर्च अधिकारियों पर ही अगुंली उठ रही है. ऐसे में यह जरूरी है कि सच लोगों के सामने लाया जाना चाहिए.

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मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है.

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यहीं नहीं उड़ीसा में जो हो रहा है उसमें भी मलयाली मिशनरियों का बड़ा हाथ है। कटक के आर्च बिशप राइट रेव्हण रिफेल चीनथ भी मलयाली ही है। वहां इनकी गलतियों की सजा गरीब एवं सीधे साधे धर्मांतरित वंचितों को मिली। छल, फरेब, धोखाधड़ी के बलबूते अपने साम्राज्य का विस्तार करते `पोप पोषित´ यह मिशनरी हिन्दू दलितों को मतांतरित करने के बाद भी सरकारी दस्तावेजों में हिन्दू रहने के लिए प्रेरित करते है, ताकि वह इन से नहीं सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहे और इनकी धर्मांतरण की दुकान बिना किसी रोक-टोक के चलती रहे।

इन्हें वंचितों एवं आदिवासियों के प्रति कितनी सहनाभूति है यह उड़ीसा के कंधमाल और कर्नाटक में हुए कुछ चर्चों पर हमलों के दौरान विरोध करने के तरीके से भी समझा जा सकता है। जहां उड़ीसा के मामले में कैथोलिक चर्च अधिकारी एक औपचारिकता निभाते दिखाई दिये वहीं मंगलूर में हुई घटनाओं के बाद उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया। अंग्रेंजी अखबारों में दो-दो पेज तक की खबरे आनी शुरू हुई। चर्च अधिकारी और उनके राजनीतिक समर्थक ऐसे सक्रिय हुए मानों कर्नाटक में `ईसाइयत´ समाप्त होने को हो। चर्च अधिकारियों की सक्रियता और उग्र तेवरों को देखते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री तुरंत मंगलूर डायसिस के बिषप के यहां सफाई देने वैसे ही पुहचें जैसे राजग के शासनकाल में केन्द्र सरकार अपनी सफाई देती थी। मंगलूर की घटनाओं के बाद चर्च अधिकारियों का उग्र होना स्भाविक था क्योंकि एक तरह से वह चर्च का मिनी वैटिकन जो ठहरा। यदि मराठियों,असामियों, बगालियों, पंजाबियों आदि को अपने अस्तित्व की चिन्ता सता सकती है तो उड़ीसा के मूल निवासियों को भी अपने अस्तित्व की रक्षा की चिन्ता होना स्भाविक है।

मलयाली मूल और मंगलूर - कर्नाटक -गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे है। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की और लौटे तो भारत की ईसाई संपदा चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों -बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रुप में चर्च के सदस्य है। यह दक्षिण भारतीय पादरी - बिशप विदेशी मिशनरियों द्वारा छोड़ी गई अकूत सम्पति को अपने हाथ से निकलने न देने की फिराक में नित नयें हथकंडे अपनाते रहते है। यहां एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है कि वास्कोडिगामा द्वारा छोड़े गये पुर्तगाली मूल के मिशनरियों के वंशज अब भी मंगलोरियन - गोअन - के रुप में उपस्थित है। उतर प्रदेश के नौ कैथोलिक डायसिसों आगरा, मेरठ, झॉसी, बिजनौर, इलाहाबाद, लखनाऊ, बनारस, गोरखपुर, बरेली - के बिशपों में से छ: बिशप पुर्तगाली मूल के है - शेष मलयाली (केरल) के है। अभी कुछ माह पूर्व केरल के आर्च बिशप ने केरल के ईसाइयों के नाम एक परिपत्र (फतवा) जारी किया था कि प्रत्येक दम्पती को चाहिये कि वे `अधिक से अधिक´ संतान उत्पन्न करें. आशय यही था कि चर्च संपदा को हथियाये रखने के लिए केरल के कर्णधारों की अवश्यकता है.

चर्च अधिकारी आज विभिन्न तरीकों से अथाह दौलत कमा रहे हैं. उनका पूरा व्यावसाय इस देश के करोड़ों वंचितों के नाम पर चल रहा है। भारत सरकार का वार्षिक बजट तो आय-व्याय के साथ घाटे के बजट के रुप में जुड़ा होता है मगर इनके घाटे का तो सवाल ही नहीं और साथ ही धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के हित्तों की रक्षा का भार भारत की सरकार पर जिसके तहत इटली की सरकार और वैटिकन भारत के राजदूत को बुलाकर डांट लगाती है। यहीं कारण है कि चर्च अधिकारियों द्वारा शोषित आम ईसाई अनाथ सा विक्षिप्तावस्था में जा पहुंचा है जिसका भविष्य आक्रोश और विरोध की नींव पर खड़ा है.

(आर एल फ्रांसिस)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.