20090430

काले धन पर बेरुखी

डा. मनमोहन सिंह और उनकी सरकार स्विस बैंकों में जमा हजारों करोड़ रुपये का धन वापस भारत लाने में रुचि क्यों नहीं ले रही है? क्या कारण है कि जब विश्व के अधिकाश देश स्विस बैंकों में जमा अपने-अपने देश का काला धन वापस पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं तो भारत सरकार पिछले एक साल से इस विषय में या तो मौन है या बहानेबाजी पर उतारू है। यह स्थापित सत्य है कि पिछले 60 वषरें में भारत की अकूत संपत्ति भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों और करचोर व्यापारियों के द्वारा स्विस बैंकों में जमा की गई है। काग्रेस भाजपा पर विदेशों में जमा काले धन की राशि को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगा रही है। अमेरिका स्थित 'ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी' के ताजा अनुमान के अनुसार भारत से प्रतिवर्ष 1,35,000 करोड़ रुपये स्विस बैंक आदि में जमा कराया जाता है। 160 विकासशील देशों की सूची में भारत का स्थान पाचवा है। जीएफआई के अनुसार 2002 से 2006 के बीच भारत से औसतन 1,13,500 करोड़ रुपये से 1,36,500 करोड़ रुपये (22.7 अरब से 27.3 अरब डालर) प्रतिवर्ष काला धन विदेशी बैंकों में जमा होता रहा। जीएफआई के अनुसार विकासशील देशों से इसी अवधि में प्रतिवर्ष एक खरब डालर काला धन विदेशों में जमा हुआ है। वास्तव में राशि का आकार महत्वपूर्ण नहीं है। काले धन की राशि यदि एक रुपया भी हो तो देश से चुराकर ले जाए गए धन की वापसी क्या नहीं होनी चाहिए?

'आर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनोमिक कार्पोरेशन एंड डेवलपमेंट' (ओईसीडी) ने अप्रैल 2009 के शुरू में प्रकाशित लेखाजोखा में उल्लेख किया था कि स्विस बैंकों समेत टैक्स चोरी के अन्य स्वर्ग में 25 लाख करोड़ से लेकर 70 लाख करोड़ रुपये की धनराशि है। जर्मन के वित्त मंत्रालय ने एलटीजी बैंक से जो सूची प्राप्त की है उसमें करीब 100 भारतीयों के भी नाम शामिल हैं। काग्रेस यह प्रश्न कर रही है कि भाजपा ने अपने कार्यकाल में उक्त धन को वापस लाने का प्रयास क्यों नहीं किया? यह प्रश्न उतना ही बेतुका है, जैसे कोई यह पूछे कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने मोबाइल फोन और कंप्यूटर लाने का प्रयास क्यों नहीं किया? आज से एक वर्ष पूर्व तक पश्चिमी देशों में 'बैंक सीक्रेसी' को व्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता था, किंतु अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले और वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते परिस्थितिया बदलीं और विकसित देशों में इस पर पुनर्विचार प्रारंभ हुआ। लालकृष्ण आडवाणी ने पिछले साल अप्रैल माह में ही डा. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर समुचित कदम उठाने की अपील की थी। तत्कालीन वित्त मंत्री की ओर से जो जवाब आया उससे सरकार द्वारा कदम उठाने का संकेत मिला था, किंतु धन वापसी की प्रक्रिया प्रारंभ करने की जगह सरकार ने जर्मनी स्थित भारतीय राजदूत को पत्र लिखकर यह निर्देश दिया कि स्विस बैंकों में काला धन रखने वाले भारतीयों का नाम उजागर करने के लिए जर्मनी सरकार पर दबाव नहीं डाला जाए। क्यों?

वैश्विक मंदी के कारण जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन आदि आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं। दुनिया भर के बैंक कंगाली के कगार पर हैं और यूरोपीय देशों के नेता इसमें स्विस बैंक जैसे टैक्स चोरी के स्वर्ग की गोपनीय कार्यप्रणाली का बड़ा योगदान मानते हैं। यूरोपीय देशों ने जी-20 के मंच से टैक्स चोरों के पनाहगाहों में जमा की गई राशि अपने देश वापस लाने का ऐलान किया। 2008 की तीसरी तिमाही में जर्मन सरकार ने कर चोरों को संरक्षण देने के कारण स्विट्जरलैंड को ब्लैक लिस्ट करने के लिए 'ओईसीडी' पर दबाव डाला। उधर अमेरिका ने विधिक मुकदमे के द्वारा स्विट्जरलैंड के सबसे बड़े बैंक-यूबीएस से करीब 300 अमेरिकी करचोरों के नाम जानने में सफलता प्राप्त की। फरवरी माह में बर्लिन में आयोजित जी-20 की बैठक में यूरोपीय देशों ने यह निर्णय लिया कि अप्रैल में लंदन में होने वाली बैठक में टैक्स चोरी के ठिकानों के खिलाफ वैश्विक मुहिम छेड़ी जाएगी। जी-20 की बैठक के लिए लंदन रवाना होने से पूर्व आडवाणी ने प्रधानमंत्री से कहा कि बैंकिंग गोपनीयता खत्म करने के लिए भारत को जी-20 द्वारा किए जा रहे प्रयासों में सक्रिय भूमिका अदा करनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने सलाह अनसुनी कर दी। काग्रेस ने कहा कि जी-20 ऐसे मामलों को उठाने का उपयुक्त मंच नहीं है, जबकि सत्य यह है कि जी-20 की लंदन बैठक का मुख्य एजेंडा ही काला धन और टैक्स चोरी के ठिकाने थे। काग्रेस इस मामले में झूठ क्यों बोल रही है? फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने तो बैंकों की गोपनीयता और टैक्स चोरी के ठिकाने खत्म करने के लिए यदि कुछ नहीं किया गया तो जी-20 के बहिष्कार की धमकी दे रखी थी।

काग्रेस नीत सरकार काले धन की वापसी के प्रश्न पर इतनी घबराई हुई क्यों है? उसकी विवशता क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमें बोफोर्स दलाली काड को याद करना होगा। अस्सी के दशक में रिलायंस घोटाले के सिलसिले में एक अंग्रेजी दैनिक की ओर से एस. गुरुमूर्ति को जानकारी जुटाने का भार सौंपा गया था। इस विषय में हाल में गुरुमूर्ति ने अपने एक लेख में लिखा है, ''मैंने देश से बाहर जमा कराए गए काले धन का पता लगाने के लिए अमेरिकी जासूसी फर्म-फेयरफैक्स से संपर्क किया। मैंने भारत सरकार से फेयरफैक्स को जाच कार्य सौंपने का निवेदन किया। स्विस सूत्रों के अनुसार तब काले धन के रूप में करीब 300 अरब डालर स्विस बैंकों में जमा थे, किंतु 13 मार्च, 1987 को मुझे सीबीआई ने फर्जी आरोपों में गिरफ्तार कर लिया। बाद में आरोप बेबुनियाद साबित हुए। पूरे देश को पता लग गया कि सरकार ने मुझे निशाना क्यों बनाया? सरकार को अंदेशा था कि इस जाच से सत्ताधारी 'परिवार' की बोफोर्स दलाली और काली कमाई का भी खुलासा हो जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाधी ने विनोद पाडेय, भूरे लाल जैसे ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी को हटाने के साथ जाच की हामी भरने वाले तत्कालीन वित्तमंत्री वीपी सिंह को भी हटा दिया था।''

1984 की सहानुभूति लहर में विपक्ष का सूपड़ा साफ करने वाले राजीव गाधी को 1989 के चुनाव में शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा, जिसमें भ्रष्टाचार ही बड़ा चुनावी मुद्दा था। काले धन के मामले से काग्रेस को बोफोर्स का भूत जिंदा होने का अंदेशा है। राजग के काल में क्वात्रोच्चि का खाता सील कराया गया था, जिसे संप्रग सरकार के काल में हटवा दिया गया। क्वात्रोच्चि बोफोर्स लूट का माल निकालने में सफल रहा। एक अनुमान के अनुसार स्विस बैंकों में जमा राशि हमारे कुल बजट का तीन गुना हिस्सा है। इस काले धन की वापसी से भारत की अर्थव्यवस्था का कायापलट हो सकता है। आज भारत पर 220 अरब डालर का विदेशी कर्ज है, हम उससे छुटकारा पा सकते हैं। आधारभूत संरचनाओं के विकास के लिए हमें वित्तीय कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा. काले धन की वापसी की राह में रोड़े अटका कर काग्रेस वस्तुत: अपने दामन पर लगे बोफोर्स जैसे दागों को स्वयंसत्यापित कर रही है.
(बलबीर पुंज)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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