इंडिया गेट पर जिन सिपाहियों के नाम दर्ज हैं उनमें से ज्यादातर ब्रिटिश हुकूमत की ओर से अफगानों से लड़ते हुए मारे गये थे. उनकी ही याद में ब्रिटिश हुकूमत ने एक स्मारक बनाने का निर्णय लिया था. इंडिया गेट की नींव १० फरवरी १९२१ को डाली गयी थी. जिस साल भारतीय आजादी के तीन सपूतों राजगुरू, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी दी गयी उसी साल १९३१ में इन शहीदों के हत्यारे लार्ड इरविन ने इण्डिया गेट को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दे दिया था.
तीसरा स्वाधीनता आंदोलन चलानेवाले अक्सर लोगों से यह सवाल करते हैं कि क्या आपको पता है कि इंडिया गेट किसकी याद में बना है? उन लोगों से हमेशा एक ही जवाब मिलता है- भारतीय शहीदों की याद में. फिर इसके बाद कोई सवाल नहीं होता बल्कि जानकारी होती है कि क्या आपको पता है कि यह इंडिया गेट पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा करते हुए मारे गये सिपाहियों की याद में बना है तो हर कोई भौंचक रह जाता है. इंडिया गेट पर जितने भी नाम उकेरे गये हैं उनमें से एक भी नाम भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से नहीं जुड़ा है. स्वाधीनता आंदोलन से क्या जुड़ेगा, जिनका नाम अंकित है वे लोग तो स्वाधीनता के सिपाहियों से लड़नेवाले लोग थे. लेकिन साठ साल बीत जाने के बाद भी इंडिया गेट हमारी आजादी का प्रतीक बनकर सीना ताने खड़ा है. सेना के तीनों अंग वहां हर साल सलामी देते हैं, और उन सिपाहियों को अपना सिर झुकाते हैं जो अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा में बलिदान हुए थे.
अपनी इसी एकसूत्रीय मांग के साथ तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के कार्यकर्ता लोगों को जागरूक कर रहे हैं कि आजादी अधूरी है. इसे पूरा करने की शुरूआत उसी इंडिया गेट से करनी चाहिए जिसे हमारी आजादी और बलिदान का प्रतीक बताया जाता है. इसी सिलसिले में दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हाल में ही एक राष्ट्रीय विमर्श रखा गया था जिसमें देश के विभिन्न संगठनों के लोग शामिल हुए. इसमें हर विचारधारा के लोग थे. आर्य समाज से भी लोग आये थे तो सीपीआई (एमएल) के लोग भी थे. सबकी साझी चिंता यही थी कि आजादी के बाद भारत में गलत प्रतीकों को राष्ट्रीयता का आधार बनाया गया. राष्ट्रगीत से लेकर राष्ट्रीय प्रतीक तक सबकुछ विवादास्पाद है और कहीं न कहीं अंग्रेजों के प्रभुत्व को ही स्थापित करती है.
इंडिया गेट पर जिन सिपाहियों के नाम दर्ज हैं उनमें से ज्यादातर अफगानों से लड़ते हुए मारे गये थे. उनकी ही याद में ब्रिटिश हुकूमत ने एक स्मारक बनाने का निर्णय लिया था. इंडिया गेट की नींव १० फरवरी १९२१ को डाली गयी थी. जिस साल भारतीय आजादी के तीन सपूतों राजगुरू, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी दी गयी उसी साल १९३१ में इन शहीदों के हत्यारे लार्ड इरविन ने इण्डिया गेट को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दे दिया था. उसने उस समय कहा था कि यह साम्राज्य के वफादार भारतीयों की निशानी है. और आज ५९ साल बीत जाने के बाद भी हम इस इण्डिया गेट को शहीदों का स्मारक मानकर बैठे हुए हैं. १९७१ में भारतीय सिपाहियों की याद में अमर जवान ज्योति को भी यहीं स्थापित कर दिया गया. तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय सवाल करते हैं - " क्या आजाद भारत के पास इतनी भी जमीन नहीं थी कि वह युद्ध में शहीद हुए अपने जवानों के लिए अलग से स्मारक बना सकती तो उसने साम्राज्य के वफादारों के नीचे उनकी ज्योति जला दी? क्या हमारा सिपाही किसी साम्राज्य के लिए अपनी जान न्यौछावर करता है या फिर गणतंत्र के लिए?"
१७५७ से लेकर १९४७ तक जिन अनाम लोगों ने भारत की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये हैं उनका स्मरण दिलानेवाला कोई भी प्रतीक हमारे पास नहीं है. उन अनाम शहीदों को याद करने के नाम पर हम साम्राज्य समर्थक सिपाहियों को अपना श्रद्धासुमन अर्पित कर आते हैं.
तीसरी आजादी से जुड़े लोग मानते हैं कि देश में आजादी के लिए संघर्षों का दो दौर चला है. लेकिन अभी तीसरा दौर चलना बाकी है क्योंकि आजादी के लिए संघर्ष लगातार चलता रहता है. जब इतिहास का एक चक्र पूरा होता है तो दूसरे की शुरूआत हो जाती है. आजादी का संघर्ष कुछ मूल्यों को पैदा करता है और जब संघर्ष का एक दौर खत्म होता है तो अगले दौर में वे मूल्य मार्गदर्शक होते हैं. उन मूल्यों को स्थापित करनेवाले और उनके लिए जीवन लगानेवाले देशभक्त तथा उन मूल्यों को अमर बनानेवाले शहीद होनेवाले लोग ही आदर्श होते हैं. गोपाल राय कहते हैं "अगर आप अपने देश से मुहब्बत करते हैं और देश को नयी साम्राज्यवादी गुलामी से बचाना चाहते हैं और हर हाथ को काम, हर व्यक्ति को सम्मान तथा पूर्ण आजाद तथा विकसित भारत का निर्माण करना चाहते हैं तो आपको साम्राज्यवादी लूट और जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के आधार पर आपसी फूट पैदा करनेवाली हर साजिश को नाकाम करना होगा."
अपने इसी अभियान के तहत तीसरा स्वाधीनता आंदोलन २१ जनवरी से दिल्ली में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल करने की घोषणा कर चुका है, ताकि इंडिया गेट को सही अर्थों में राष्ट्रीय स्मारक बनाया जा सके और वहां शहीदों के लिए उनका अपना राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाए जिसे सलाम करके हर भारतवासी गौरव का अनुभव कर सके.
(www.visfot.com से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.
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