20100503

मुंबई-महाराष्ट्र-मुंबई

महाराष्ट्र और गुजरात की स्थापना के पचास साल पूरे हो गये हैं. आज मजदूर दिवस पर जिस महाराष्ट्र और गुजरात का स्थापना िदवस मनाया जा रहा है कभी ये दोनों राज्य मुंबई के हिस्से थे. लेकिन जब इसी मुंबई राज्य से महाराष्ट्र और गुजरात के गठन का प्रस्ताव आया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मुंबई को अलग केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की वकालत की. उनका तर्क था कि अगर मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी बने रहना है तो ऐसा करना जरूरी है.

लेकिन पंडित नेहरू की नहीं चली. देश के पहले वित्तमंत्री और वित्त विशेषज्ञ चिंतामणि देशमुख ने इसका प्रखर विरोध किया और इसी मुद्दे पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दे दिया. मुंबई को महाराष्ट्र में रखने के लिए जबर्दस्त आंदोलन चला जिसमें कुल 80 लोगों की आहुति हुई लेकिन आखिरकार मुंबई महाराष्ट्र की हुई. लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जिस कांग्रेस के शीर्ष नेता ने मुंबई को महाराष्ट्र में न मिलाने की वकालत की आज उन्हीं पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीति वंशज मुंबई के लिए पूरे महाराष्ट्र की अवहेलना कर रहे हैं. जो मुंबई सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से महाराष्ट्र का अभिन्न अंग थी, कांग्रेस ने उसे शेष भारत से जोड़ने की बजाय दुनिया के उन संस्कृतियों से जोड़ दिया है जिनका महाराष्ट्र तो छोड़िये, राष्ट्र से ही कुछ लेना देना नहीं है.

चिंतामणिराव देशमुख उस दौर के जाने माने वित्त विशेषज्ञ थे. इसी का परिणाम है कि 1946 में लार्ड बेवेल ने उनके सामने अंतरिम सरकार का वित्तमंत्री बनने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने मना कर दिया था. 1950 में जब देश में पहली पूर्ण संवैधानिक सरकार बनी तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक बार फिर चिंतामणिराव देशमुख के सामने वित्तमंत्री बनने का प्रस्ताव रखा. चिंतामणि राव देशमुख ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उनका कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है. लेकिन पंडित नेहरू के आग्रह पर उन्होंने वित्तमंत्री बनने का आग्रह इस शर्त के साथ स्वीकार किया कि जब कभी दोनों के बीच सैद्धांतिक मतभेद उभरेगा तो वे इस्तीफा दे देंगे. नेहरू ने उन्हे विश्वास दिलाया कि ऐसी स्थिति आयी तो उनसे पहले वे खुद इस्तीफा दे देंगे. देश में संप्रभु सरकार के गठन के पांच साल बाद अलग महाराष्ट्र का आंदोलन शुरू हो गया. पहली बार 21 नवंबर 1955 को मिल मजदूरों ने संयुक्त महाराष्ट्र कृति समिति के आह्वान पर एक बंद का आयोजन किया जिसमें चार लाख से अधिक मजदूर शामिल हुए. इस आंदोलन में जिस महाराष्ट्र का प्रस्ताव किया गया था उसमें मुंबई भी शामिल थी. इस आंदोलन पर मुंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी भाई देसाई के आदेश पर लाठीचार्ज, आंसूगैस और गोलीबारी तक की गयी. इसके परिणामस्वरूप 18 लोग मारे गये. लेकिन आंदोलन नहीं रुका. जनवरी 1956 में एक बार फिर सरकार ने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन समिति के आंदोलन को दबाने की कोशिश की. दमन की इन दोनों घटनाओं में कुल 80 लोग मारे गये और साढे चार सौ से अधिक लोग घायल हुए. चिंतामणिराव देशमुख ने मांग की कि इन घटनाओं की न्यायिक जांच करवाई जाए और अलग राज्य के लिए बने आयोग का जब तक अपनी आखिरी राय नहीं बता देता तब तक मुंबई को अलग केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की घोषणा न की जाए.

लेकिन पण्डित नेहरू ने अपने मंत्रिमण्डल को विश्वास में लिये बिना अपने त्रिराज्य फार्मूले को घोषित कर दिया. उस समय कांग्रेस के सभी मराठी नेता पंडित नेहरू के इस फैसले के सामने नतमस्तक हो गये. लेकिन अब यहां आकर चिंतामणिराव देशमुख ने नेहरू के इस फैसले के विरोध में अपना इस्तीफा दे दिया. आखिरकार 1960 में जब महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों की स्थापना हुई तो नेहरू नहीं बल्कि चिंतामणिराव देशमुख की जीत हुई और मुंबई महाराष्ट्र का अभिन्न हिस्सा बना. लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती बल्कि यहां से शुरू होती है. बीते समय में जब जब मुंबई में मराठीवाद की बयार बही है तो हमेशा यह तर्क दिया गया है कि मुंबई को महाराष्ट्र से अलग कर दिया जाए. यह न तब संभव था और न आज संभव है. लेकिन कांग्रेस मुंबई को लेकर कभी ईमानदार नहीं रही है. अगर कल कांग्रेस के मराठी नेता मुंबई को केन्द्रशासित प्रदेश बनाने का समर्थन कर रहे थे तो आज यही नेता मुंबई शहर के विकास को महाराष्ट्र का विकास मान रहे हैं. मुंबई जब एक वृहत राज्य था तो उसके संसाधनों का उपयोग करके ब्रिटेन ने अपनी संपत्ति बढ़ाई. इसी का परिणाम है कि देश की पहली रेलवे लाइन मुंबई में बिछाई गयी क्योंकि अंग्रेजों को कोलकाता से अधिक विकसित बंदरगाह मुंबई का लगा. सिर्फ बंदरगाह की ही बात नहीं थी. बंदरगाह से वे जिस कच्चे माल (कपास) की सबसे अधिक जरूरत थी वह महाराष्ट्र के पास था. 1846 में अमेरिका में कपास की फसल का सत्यानाश हो गया था इसलिए अंग्रेजों ने 1852 में पहली रेल चलाने के साथ ही 1854 में पहली कपड़ा मिल की स्थापना की.

आगे की परिस्थितियों ने अंग्रेजों की निर्भरता मुंबई राज्य पर और बढ़ा दी. 1861 से 1865 के बीच अमेरिका में गृहयुद्ध हुआ. इस गृहयुद्ध के कारण कपास संपन्न अमेरिका के दक्षिणी इलाके में ब्लाक हो गया. लंकाशायर की मिलों को कपास मिलना बंद हो गया तो मुंबई राज्य के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं था. यहां से अंग्रेजों ने मुंबई को ही अपनी आर्थिक राजधानी बना लिया जो आजादी के छह दशक बाद भी अपनी उस पदवी पर आसीन है. लेकिन ऐसे में सवाल कई हैं. जब महाराष्ट्र का निर्माण हुआ तो पहले बजट में बैरिष्टर शेषराव वानखेडे ने बताया कि महाराष्ट्र की कुल आय एक हजार चार करोड़ रुपया थी जो कि राष्ट्रीय आय (9980 करोड़) का दस प्रतिशत के लगभग थी. राज्य का राजस्व आय-व्यय लगभग बराबर (100 करोड़) था. और जब हम आपको ये आंकड़े दे रहे हैं तो ये आंकड़े नवगठित महाराष्ट्र राज्य के हैं न कि मुंबई के. उस वक्त मुंबई भले ही आर्थिक राजधानी थी लेकिन महाराष्ट्र विपन्न हो चुका था ऐसा नहीं है. लेकिन आज कांग्रेस की ही सरकार के आंकड़ें देखें तो समझ में आता है कि मुंबई में बैठे कांग्रेसी आज भी इसे एक अलग केन्द्रशासित प्रदेश की तरह ही मानते हैं और मुंबई के विकास को महाराष्ट्र का विकास मान लेते हैं. 2008-09 में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 37,490 रुपये थी जबकि इसी दौरान मुंबई की प्रति व्यक्ति आय 89,343 रुपये थी. उसी साल पुणे में 79,996, ठाणे में प्रति व्यक्ति आय 78351 और नागपुर में 60,592 रुपये है. लेकिन ऐसा मत समझिए कि महाराष्ट्र के कुछ बड़े शहरों में अगर प्रति व्यक्ति आय अच्छी है तो पूरे राज्य का हाल बहुत उम्दा है.

वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण के जिले नांदेड़ पहुंचते ही समृद्धि की यह शक्ल बदशक्ल हो जाती है. नांदेड़ में प्रति व्यक्ति आय 28,855 रुपये है तो पड़ोसी हिंगोली में 29,150 और भारी उद्योग मंत्री विलासराव के जिले लातूर में प्रति व्यक्ति आय 29764 रुपये है. कहने की जरूरत नहीं है कि मुंबई, पुणे, ठाणे और नागपुर को छोड़ दें तो कमोबेश पूरे महाराष्ट्र में हालात खराब हैं. जिस विदर्भ की कपास से ब्रिटेन ने अपने सूर्य को डूबने नहीं दिया उसी विदर्भ के कपास किसानों की आत्महत्याएं अब खबर भी नहीं बनती. विदर्भ 1998-99 तक खुशहाल था लेकिन अब वह पूरी तरह से बदहाल है. जिस महाराष्ट्र के निर्माण के वक्त उसका फिस्कल डिफसिएट लगभग शून्य था आज उसी महाराष्ट्र पर एक लाख तिरासी हजार करोड़ से अधिक का कर्ज है. दुर्भाग्य देखिए कि जिस मुंबई को महाराष्ट्र में मिलाने का कांग्रेसी विरोध कर रहे थे वे आज इसके आस पास ही सिमटकर रह गये हैं. जिन्होंने मुंबई को महाराष्ट्र में लाने के लिए बलिदान दिया था उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया. मिलों को बंद करके माल बना दिये गये. मजदूरों को भगाकर इसे बिचौलियों का ऐसा शहर बना दिया है जिनका न तो महाराष्ट्र से कुछ लेना देना है और न ही राष्ट्र से. मुंबई से जिस महाराष्ट्र की यात्रा शुरू हुई थी वह एक बार फिर मुंबई पर ही आकर टिक गयी है लेकिन यह मुंबई महाराष्ट्र की होकर भी महाराष्ट्र की बिल्कुल ही नहीं रह गयी है.

(प्रेम शुक्ल)

----------------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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